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श्रावकाचार-संग्रह
रत्नत्रयपवित्राणां मुनीन्द्राणां तपोभूताम् । चरणानचंयाम्यम्भोगन्धाद्यै भक्तितः सदा ॥६९ द्वेषा हग्बोधचारित्रमुत्तमं क्षान्तिपूर्वकम् । धर्ममञ्चामि सद्द्रव्यजनोक्तं सुखदं मुदा ॥७० एवं पाठं पठन्वाचा जिनाबीनचयेत्तराम् । तद्गुणौघं स्मरन्नन्तः कायेन कृततद्विधिः ॥७१ माल्यधूपप्रदीपाद्यैः सचित्तैः कोऽर्चयेज्जिनम् । सावद्यसम्भवाद्वक्ति यः स एवं प्रबोध्यते ॥७२ जिनाचनेकजन्मोत्थं किल्विषं हन्ति या कृता । सा किन्न यजनाचारैर्भवं सावद्यमङ्गिनाम् ॥७३ प्रेयन्ते यत्र वातेन दन्तिनः पर्वतोपमाः । तत्राल्पशक्तितेजस्सु दंशकादिषु का कथा ॥ ७४ भुक्तं स्यात्प्राणनाशाय विषं केवलमङ्गनाम् । जीवनाय मरीचादिसदौषधविमिश्रितम् ॥७५ तथा कुटुम्बभोग्यार्थमारम्भः पापकृद्भवेत् । धर्मकृद्दानपूजादौ हिंसालेशो मतः सदा ॥७६ जिनमचंयतः पुण्यराशौ सावद्यलेशकः । न दोषाय कणः शीतशिवाम्भोधौ विषस्य वा ॥७७ गण्डं पाटयतो बन्धोः पीडनं चोपकारकृत् । जिनधर्मोद्यतस्यैव सावद्यं पुष्यकारणम् ॥७८
शाङ्ग तथा चौदह पूर्व रूप जो वाणी (सरस्वती) है उसे जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीपा दिसे तथा सुन्दर सुन्दर वसनोंसे पूजता हूँ ॥ ६८ ॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रयसे पवित्र तथा अनेक प्रकार दुर्द्धरतपश्चरणके करनेवाले मुनिराजोंके चरणोंको जलगन्धादि आठ द्रव्योंसे भक्ति पूर्वक पूजता हूँ || ६९ || सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र रूप तथा उत्तमक्षमादि दशधर्मं रूप जिन भगवान्के द्वारा कहा हुआ तथा स्वर्गादि सुखोंका देनेवाला जो धर्म है उसे जल गन्धादि उत्तम द्रव्योंसे पूजता हूँ || ७०|| अपने शरीरसे यथोक्त पूजनादि विधि करता हुआ और अन्तःकरण (हृदय) में जिन भगवान् के गुण स्मरण पूर्वक पूजनादि सम्बन्धी पाठ वाणीसे पढ़ता हुआ श्रावक जिन भगवान्का पूजन करे || ७१ || जिन भगवान् के पूजनके सम्बन्ध में यदि कोई यह कहे कि – पुष्पमाल, धूप, प्रदीपादि सचित्त पदार्थसे कौन जिनदेवका पूजन करेगा ? क्योंकि चित्त पदार्थसे पूजन करनेसे तो सावद्य (आरम्भ) होता है ? जिन लोगोंकी ऐसी श्रद्धा है उन्हें इस तरह समझाना चाहिये ||७२ || “जिन भगवान्का पूजन करनेसे जन्म जन्ममें उपार्जन किये हुए पापकर्म क्षणमात्रमें नाश हो जाते हैं" तो क्या उसी पूजनसे – पूजन सम्बन्धी आचारसे उत्पन्न जीवोंका अत्यल्प सावद्य कर्म नाश नहीं होगा ? अवश्य होगा || ७३ || जिस प्रचण्ड पवनसे पर्वतके समान बड़े बड़े गजराज भी क्षणमात्रमें उड़ा दिये जाते हैं उसी प्रलयकालकी वायुसे बहुत थोड़ी शक्तिके धारक विचारे दंशमशकादि छोटे जन्तु क्या बचे रहेंगे ? ||७४ || यदि केवल विष खाया जाय तो नियमसे वह प्राणों का नाश करेगा। परन्तु वही विष यदि मरीचादि उत्तम उत्तम औषधियोंके साथ खाया जाय तो जीवोंके जीवनके लिये होता है || ७५|| जिस तरह हम ऊपर एक पदार्थको हानिकारक बता आये हैं परन्तु उपायान्तरसे उपयोगमें लाई हुई वही वस्तु गुणकारक हो जाती है । उसी तरह वह आरंभ यदि कुटुम्बके लिये किया हुआ हो तो पाप-कारक होता है । और धर्मके अर्थ किया हुआ हो तो वही आरंभ हिंसाका केवल लेशमात्र माना जाता है || ७६ || जिन भगवान्की पूजा करनेवाले भव्य जनोंके पुण्य बहुत होता है उस पुण्य समूह में सावद्य ( आरंभ ) का लव दोष (पाप) का कारण नहीं हो सकता । जिस तरह विषकी एक छोटी सी कणिका समुद्रके जलको नहीं बिगाड़ सकती ॥७७॥
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जिस तरह फोड़ा आदिके चीरने वाले बन्धु लोगोंका दुःख देना भी लाभ दायक होता है उसी तरह जिन धर्मकी प्रभावना करनेमें प्रयत्न तत्पर भव्य पुरुषोंके आरंभ भी पुण्योत्पत्तिका
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