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________________ १५८ श्रावकाचार-संग्रह रत्नत्रयपवित्राणां मुनीन्द्राणां तपोभूताम् । चरणानचंयाम्यम्भोगन्धाद्यै भक्तितः सदा ॥६९ द्वेषा हग्बोधचारित्रमुत्तमं क्षान्तिपूर्वकम् । धर्ममञ्चामि सद्द्रव्यजनोक्तं सुखदं मुदा ॥७० एवं पाठं पठन्वाचा जिनाबीनचयेत्तराम् । तद्गुणौघं स्मरन्नन्तः कायेन कृततद्विधिः ॥७१ माल्यधूपप्रदीपाद्यैः सचित्तैः कोऽर्चयेज्जिनम् । सावद्यसम्भवाद्वक्ति यः स एवं प्रबोध्यते ॥७२ जिनाचनेकजन्मोत्थं किल्विषं हन्ति या कृता । सा किन्न यजनाचारैर्भवं सावद्यमङ्गिनाम् ॥७३ प्रेयन्ते यत्र वातेन दन्तिनः पर्वतोपमाः । तत्राल्पशक्तितेजस्सु दंशकादिषु का कथा ॥ ७४ भुक्तं स्यात्प्राणनाशाय विषं केवलमङ्गनाम् । जीवनाय मरीचादिसदौषधविमिश्रितम् ॥७५ तथा कुटुम्बभोग्यार्थमारम्भः पापकृद्भवेत् । धर्मकृद्दानपूजादौ हिंसालेशो मतः सदा ॥७६ जिनमचंयतः पुण्यराशौ सावद्यलेशकः । न दोषाय कणः शीतशिवाम्भोधौ विषस्य वा ॥७७ गण्डं पाटयतो बन्धोः पीडनं चोपकारकृत् । जिनधर्मोद्यतस्यैव सावद्यं पुष्यकारणम् ॥७८ शाङ्ग तथा चौदह पूर्व रूप जो वाणी (सरस्वती) है उसे जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीपा दिसे तथा सुन्दर सुन्दर वसनोंसे पूजता हूँ ॥ ६८ ॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रयसे पवित्र तथा अनेक प्रकार दुर्द्धरतपश्चरणके करनेवाले मुनिराजोंके चरणोंको जलगन्धादि आठ द्रव्योंसे भक्ति पूर्वक पूजता हूँ || ६९ || सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र रूप तथा उत्तमक्षमादि दशधर्मं रूप जिन भगवान्‌के द्वारा कहा हुआ तथा स्वर्गादि सुखोंका देनेवाला जो धर्म है उसे जल गन्धादि उत्तम द्रव्योंसे पूजता हूँ || ७०|| अपने शरीरसे यथोक्त पूजनादि विधि करता हुआ और अन्तःकरण (हृदय) में जिन भगवान् के गुण स्मरण पूर्वक पूजनादि सम्बन्धी पाठ वाणीसे पढ़ता हुआ श्रावक जिन भगवान्का पूजन करे || ७१ || जिन भगवान्‌ के पूजनके सम्बन्ध में यदि कोई यह कहे कि – पुष्पमाल, धूप, प्रदीपादि सचित्त पदार्थसे कौन जिनदेवका पूजन करेगा ? क्योंकि चित्त पदार्थसे पूजन करनेसे तो सावद्य (आरम्भ) होता है ? जिन लोगोंकी ऐसी श्रद्धा है उन्हें इस तरह समझाना चाहिये ||७२ || “जिन भगवान्का पूजन करनेसे जन्म जन्ममें उपार्जन किये हुए पापकर्म क्षणमात्रमें नाश हो जाते हैं" तो क्या उसी पूजनसे – पूजन सम्बन्धी आचारसे उत्पन्न जीवोंका अत्यल्प सावद्य कर्म नाश नहीं होगा ? अवश्य होगा || ७३ || जिस प्रचण्ड पवनसे पर्वतके समान बड़े बड़े गजराज भी क्षणमात्रमें उड़ा दिये जाते हैं उसी प्रलयकालकी वायुसे बहुत थोड़ी शक्तिके धारक विचारे दंशमशकादि छोटे जन्तु क्या बचे रहेंगे ? ||७४ || यदि केवल विष खाया जाय तो नियमसे वह प्राणों का नाश करेगा। परन्तु वही विष यदि मरीचादि उत्तम उत्तम औषधियोंके साथ खाया जाय तो जीवोंके जीवनके लिये होता है || ७५|| जिस तरह हम ऊपर एक पदार्थको हानिकारक बता आये हैं परन्तु उपायान्तरसे उपयोगमें लाई हुई वही वस्तु गुणकारक हो जाती है । उसी तरह वह आरंभ यदि कुटुम्बके लिये किया हुआ हो तो पाप-कारक होता है । और धर्मके अर्थ किया हुआ हो तो वही आरंभ हिंसाका केवल लेशमात्र माना जाता है || ७६ || जिन भगवान्की पूजा करनेवाले भव्य जनोंके पुण्य बहुत होता है उस पुण्य समूह में सावद्य ( आरंभ ) का लव दोष (पाप) का कारण नहीं हो सकता । जिस तरह विषकी एक छोटी सी कणिका समुद्रके जलको नहीं बिगाड़ सकती ॥७७॥ 1 जिस तरह फोड़ा आदिके चीरने वाले बन्धु लोगोंका दुःख देना भी लाभ दायक होता है उसी तरह जिन धर्मकी प्रभावना करनेमें प्रयत्न तत्पर भव्य पुरुषोंके आरंभ भी पुण्योत्पत्तिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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