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धर्मसंग्रह श्रावकाचार
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रमणीयस्ततः कार्यः प्रासादो हि जिनेशिनाम् । हेमपाषाणमृत्काष्ठमयैः शक्त्याऽऽत्मनो भुवि ॥७९ प्रासादे जिनबिम्बं च बिम्बमानं यवोन्नतिम् । यः कारयति गीस्तेषां पुण्यं वक्तुमलं न हि ॥८० प्रासादेकारिते जैने कि कि पुण्यं कृतं न तैः । दानं पूजा तपः शीलं यात्रा तीर्थस्य च स्थितिः ॥८१ तस्मिन्सति जनैः कैश्चिदभिषेकैमहोत्सवः । घण्टाचामरसत्केतुदानैः पुण्यमुपाज्यंते ॥८२ देशान्तरात्समागत्य तस्मिन्प्रस्थाय पण्डिताः । व्याख्यायन्ति च सच्छास्त्रं धर्मतीर्थं प्रवर्त्तते ॥८३ शास्त्रं निशम्य मिथ्यात्वं भव्या मुञ्चन्ति हेलया । सम्यक्त्वं प्रतिपद्यन्ते पालयन्ति च सद्व्रतम् ॥८४ नामतः स्थापनाद्रव्यक्षेत्र कालैश्च भावतः । जिनपूजा मता षोढा पूजाशास्त्रे सुधीधनैः ||८५ नामोच्चार्य जिनादीनां स्वच्छदेशे क्वचिज्जनैः । पुष्पादीनि विकीर्यन्ते नामपूजा भवेदसौ ॥८६ सद्भावान्या त्वसद्भावा स्थापना द्विविधार्चना । क्रियते यद्गुणारोपः साऽऽद्या साकारवस्तुनि ॥८७ वराटकादौ सङ्कल्प्य जिनोऽयमिति बुद्धितः । यार्चा विधीयते प्राच्यैरसद्भावा मता त्वियम् ||८८ हुण्डावसप्पणीका लोके मिथ्यात्वसङ्कुले | असद्भावा न कर्त्तव्या जायते संशयो यतः ॥८९ ज्ञेयान्या स्थापना पूजा प्रतिष्ठाविधिरहर्ताम् । वसुनन्दोन्द्रनन्द्यादि सूरि सूत्रानुसारतः ||१०
कारण है ||७८ || “जिन धर्मकी वृद्धि के अर्थ किया हुआ आरंभ भी अच्छे कर्मबन्धका हेतु है" ऐसा समझकर भव्य पुरुषोंको अपनी सामथ्यंके अनुसार संसार में सुवर्ण, पाषाण, मृतिका तथा काष्ठादि निर्मित मनोहर जिन मन्दिर बनवाने चाहिये ||७९ || जो भव्यपुरुष – जिन मन्दिर, तथा जो बराबर भी जिनबिम्ब बनवाते हैं उन पुण्यशाली पुरुषोंके पुण्यका वर्णन करनेमें हमारी वाणी किसी प्रकार भी समर्थ नहीं है ||८०|| जिन पुरुष श्रेष्ठोंने जिन भवन बनवाया है संसारमें फिर ऐसा कोन पुण्य कर्म बाकी है जिसे उन्होंने न किया । अर्थात् उन लोगोंने दान, पूजन, तप, शील, यात्रा तथा तीर्थों की बहुत कालपर्यन्त स्थिति आदि सभी पुण्य कर्म किये हैं || ८१ ॥ | जिन चैत्यालयोंके होनेसे कितने भव्यात्मा अभिषकसे, कितने नाना प्रकारके महोत्सवादिसे, कितने घंटा, चामर, ध्वजा आदि सुन्दर वस्तुओं के दानसे, पुण्य कर्मका निरन्तर संचय करते रहते हैं ॥८२॥ देश-देशान्तरसे विद्वान् लोग आकर उन जिन चैत्यालयोंमें उत्तम जैनशास्त्रोंका व्याख्यान करते हैं और उसीसे धर्म तीर्थका विस्तार होता है ॥८३॥ शास्त्रोंको सुनकर धर्मात्मा पुरुष शीघ्र ही मिथ्यात्वंको छोड़ देते हैं और सम्यक्त्वको स्वीकार करके उत्तम व्रतों का पालन करने लगते हैं ॥ ८४ ॥ इस प्रकार पूजनका सामान्य वर्णन करके अब उसके भेदोंका वर्णन करते हैं - जिनके पास अपनी बुद्धि ही धन है, वे भव्यात्मा जिन पूजनके नामपूजन, स्थापनापूजन, द्रव्यपूजन, क्षेत्रपूजन, कालपूजन तथा भावपूजन ऐसे छह गेंद कहते हैं ||८५ ॥ जिनदेवादिका नामोच्चारण करके किसी शुद्ध प्रदेशमें पुष्पादि क्षेपण करनेको नाम पूजा कहते हैं ||८६ ॥ सद्भावस्थापना तथा असद्भावस्थापना इस तरह स्थापना पूजा के दो भेद हैं । साकारवस्तुमें जो गुणोंका आरोप किया जाता है उसे सद्भावस्थापनापूजा कहते हैं ||८७|| वराटक ( कमलगट्टा), पुष्प, अक्षतादिमें यह जिन भगवान् हैं ऐसी कल्पना करके जो पूजा की जाती है उसे असद्धावस्थापनापूजा कहते हैं ||८८|| इस हुण्डावसप्पिणीकालमेंलोकमें मिथ्यात्वका प्रचार प्रचुरतासे होनेसे असद्भाव (निराकार) स्थापना नहीं करना चाहिये । क्योंकि मिथ्यात्वी लोगोंने नाना प्रकारके देवी देवताओंकी स्थापना कर डाली है इसलिये उसमें सन्देह हो सकता है || ८९ || अर्हन्त भगवानको प्रतिष्ठादि विधिको वसुनन्दि इन्द्रनन्दि आदिके १. संवर्तिका नवदलं बीजकोशो बराटकः इति कोश: 1
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