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धर्मसंग्रह श्रावकाचार जीणं चाऽतिशयोपेतं तद्वयङ्गमपि पूज्यते । शिरोहीन न पूज्यं स्यात्प्रक्षेप्यं तन्नवादिषु ॥३७ अचेतनाच्चिता जैनी कि पुण्यं प्रतिमाऽङ्गिनाम् । करोत्येवं वदेत्कश्चिद्यस्तमित्थं प्रबोधयेत् ॥३८ शान्तां स्थिरासनां वीक्ष्य प्रतिमां मोक्षदेशिनीम् । जन्तोर्यः प्रशमो भावः स च पुण्याय जायते ॥३९ सिद्धाः सेत्स्यन्ति सिद्धयन्ति ये केचिन्नरपुङ्गवाः । ते सर्वेऽप्यनया स्थित्येति भावः पुण्यकृद्भवेत् ॥४० एतद्वद्ग्रन्थमुज्झित्वा कदा शान्तः स्थिरासन: । भविष्यामोह मोक्षाहः संकल्पोऽयं सुपुण्यकृत् ॥४१ भक्त्याहत्प्रतिमा पूज्याऽकृत्रिमा कृत्रिमा सदा । यतस्तद्गुणसंकल्पात्प्रत्यक्षं पूजितो जिनः ।।४२ सम्यक्त्वादिगुणः सिद्धः सूरिराचारपश्चकः । पाठको द्वादशाङ्गज्ञः साधुश्चाऽर्यः स्वसाधकः ॥४३ सर्वज्ञभाषितं यद्ग्रथितं गणधरादिभिः । स्थापितं पुस्तकादो तच्छ्रतं पूज्यं च भक्तितः ॥४४ यथैते धर्मिणः पूज्यास्तथा धर्मोऽपि तन्मतः । स च दृग्बोधचारित्रलक्षणश्च क्षामादिकः ॥४५ किये हुए जो जिनबिम्ब (जिन प्रतिमा) हैं वे पूजने योग्य हैं ॥३६॥ यदि कोई जिनबिम्ब खंडित अर्थात् किसी अंगसे रहित हो जाय परन्तु यदि वह अत्यन्त जीर्ण (प्राचीन) है अथवा किसी प्रकारके अतिशयसे युक्त है तो पूजनीय है। परन्तु जो प्रतिमा मस्तक-रहित है और वह प्राचीन तथा अतिशय युक्त भी है तो पूजनीय नहीं है । ऐसी प्रतिमाओंको मन्दिरादिमें न रखकर नदी, समुद्रादि जहां कहीं बहुत गहरा जल हो वहाँ निक्षेपित (प्रवाहित) कर देना चाहिये ॥३७॥ यदि यहाँ पर कोई यह कहे कि-अरे ! ये प्रतिमा तो अचेतन (जड़) हैं क्या इनके पूजनेसे जीवोंको पुण्यका बन्ध होगा? तो उन लोगोंको यों समझाना चाहिये ।।३८॥ शान्त (वीतरागस्वरूप), निश्चल विराजमान, तथा मोक्षके स्वरूपको बताने वाली जिन प्रतिमाको देखकर जीवोंका जो शान्तपरिणाम होता है वह परिणाम पुण्यके लिए कारण होता है ।।३९।। पूर्वकालमें कितने भव्यात्मा सिद्ध हुए हैं, आगामी सिद्ध होंगे तथा वर्तमानमें होनेवाले हैं वे सब इसी स्थितिसे हुए हैं, होंगे तथा होनेवाले हैं ऐसा जो आत्माका परिणाम होता है वही पुण्यका उत्पादक होता है ।।४०।। इस अपार संसारमें इन प्रतिमाओं के समान परिग्रह छोड़कर किस समय शान्त स्वभाव वाला, स्थिरासन तथा मोक्ष हो जाने योग्य में होऊँगा? यह जो आत्मामें संकल्प (भावना) होना है वही पुण्यको प्राप्तिका कारण है ।।४१॥ इन उपर्युक्त कारणोंसे प्रतिमाका पूजना पुण्यका हेतु है इसलिये श्रावक लोगोंको-भक्ति पूर्वक अकृत्रिम (अनादिकालसे चली आई) तथा कृत्रिम (शास्त्रानुसार शिल्पिकारोंसे निर्माण कराकर प्रतिष्ठा की हुई) प्रतिमाएं निरन्तर पूजनी चाहिये । क्योंकि इन प्रतिमाओंमें साक्षाज्जिन भगवान्के गुणोंका संकल्प (निक्षेप) होता है इसलिये जिसने जिन प्रतिमाओंकी पूजा की है समझना चाहिये कि-उसने साक्षाज्जिन भगवान्की हो पूजा की है ॥४२॥ सम्यक्त्वादि आठ गुणोंसे युक्त सिद्ध भगवान्, दर्शनाचार, ज्ञानाचार आदि पंचप्रकारके आचारसे युक्त सूरि (आचार्य), द्वादशांगशास्त्रको जानने वाले उपाध्याय तथा अपनी आत्माकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करनेवाले साधु (मुनि) ये सब पूजने योग्य हैं ॥४३॥ तीनों लोकके जानने वाले सर्वज्ञ भगवान्से प्रगट हुआ तथा गणधरादिसे गूंथा हुआ और वही इस समय पुस्तकादिमें स्थापित किया हुआ जो श्रुत है उसे भी भक्ति पूर्वक निरन्तर गृहस्थोंको पूजना चाहिये ॥४४॥ जैसे ये उपर्युक्त अर्हन्त, सिद्ध, आचार्यादि धर्मी पूजनीय हैं उसी तरह धर्म भी पूजने योग्य है। भावार्थ-इन अर्हन्तादिमें धर्म विद्यमान है इसीलिये ये पूजनीय समझे जाते हैं तो धर्म भी स्वतः स्वभाव पूजनीय है ही । वह धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र रूप है। तथा उत्तमक्षमा, उत्तममार्दव, उत्तमआर्जव, उत्तमसत्य, उत्तमशोच, उत्तमसंयम, उत्तम तप, उत्तमत्याग, उत्तमआकिञ्चन, तथा उत्तमब्रह्मचर्य इन दश लक्षण स्वरूप
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