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श्रावकाचार-संग्रह यो मित्रेऽस्तंगते रक्ते विदध्याद्भोजनं जनः । तद्रोही स भवेत्पापः शवस्योपरि चाशनम् ॥२६ रात्रिभोजनपापेन दुर्गति यान्ति जन्तवः । रोगा दरिद्रिणः क्रूरा दृश्यन्ते तेऽपि तेन वै ॥२७ स्ववधू लक्ष्मणः प्राह मुश्च मां वनमालिके । कार्ये त्वां लातुमेष्यामि देवादिशपथोऽस्तु मे ॥२८ पुनरुचे तयेतीशः कथमप्यप्रतोतया । ब्रूहि चेन्नैमि लिप्येऽहं रात्रिभुक्तेरघैस्तदा ॥२९ मातङ्गी चित्रकूटेऽभूद्रात्रिभुक्तिनिवृत्तितः । स्वभा मारितोत्पन्ना नागश्री सागरात्मभूः ॥३० पूर्वाह्ने भुज्यते देवैर्मध्याह्न ऋषिपुङ्गवैः । अधमैर्दानवैः सायं निशायां राक्षसादिभिः ॥३१ वर्या भुञ्जन्त्येकशोऽह्नि मध्या द्विः पशवोऽपरे । ब्रह्मोद्यास्तद्वतगुणा न जानाना अहर्निशम् ॥३२ समझना चाहिये। तथा उन लोगोंको मुर्दोके मृतक शरीरके ऊपर भोजन करनेवाला कहना चाहिये ॥२६॥ रात्रिमें भोजन करनेके पापसे जीव परभवमें दुर्गतिको जाते हैं। इस भवमें कितने रोगी, कितने दरिद्री, कितने महाभयंकर आकृतिको धारण करनेवाले क्रूर इत्यादि अनेक तरहके दुःखोंसे पीड़ित देखे जाते हैं ॥२७॥ जिस समय वनमाला नामकी कोई राजकुमारी लक्ष्मणके गुण तथा रूप सौन्दर्यादिके सुननेसे उनको मनमें पतिरूपसे अंगीकार कर लिया था। परन्तु जब उसे मालूम हुआ कि अब लक्ष्मणका दर्शन मुझे न होगा तो उसने सोचा कि फिर मेरा भी इस जगमें जीना निस्सार है। ऐसा विचार कर उसने अपने मनमें मरणका निश्चय किया। एक दिन घरके लोगोंकी वन-क्रीडाके बहानेसे आज्ञा लेकर वनमें गई। वहाँ रात्रिके समय और लोगोंको निद्रामें अचेत छोड़कर आप किसी वृक्षकी शाखा पर अपने अन्तरीय वस्त्रकी फाँसी लटका कर मरना चाहा। यह सब चरित्र वहाँ आये हुए लक्ष्मणने देखा और सोचा कि यह मेरे ही विरहमें अपने प्यारे प्राणोंको शरीरसे जुदा करना चाहती है। ऐसा समझकर करुणा बुद्धिसे उसके पास आकर कहा-वनमाले ! यह अनर्थ मत कर, देख यह में लक्ष्मण हूँ। वनमाला जैसा लक्ष्मणका कीर्तन सुना था उसीतरह उन्हें देख बहत प्रसन्न हई। क्रमसे यही बात उसके पिताको मालम हुई। पिताने लक्ष्मणका सादर शहरमें प्रवेश कराकर उसके साथमें वनमालाका विवाह कर दिया। विवाहके कितने दिनों बाद जब रामचन्द्र लक्ष्मणने उस नगरसे जाना चाहा उसी समय वनमाला लक्ष्मणसे कहती है-हे प्राणनाथ ! मुझ अनाथिनीको यहीं अकेली छोड़कर जो आप जानेका विचार करते हों तो मुझ विरहिणीका क्या हाल होगा? मैं आपको नहीं जाने दूंगी। तब लक्ष्मण ने कहा-हे वनमाले ! तुम मुझे छोड़ो, जाने दो, हमारे अभीष्ट कार्यके हो जानेपर मैं तुम्हें लेनेके लिये अवश्य आऊँगा । यदि मैं अपने वचनोंको पूरा न करूं तो जो दोष हिंसादिके करनेसे लगता है उसी दोषका मैं भागी होऊं। इस बातको सुनकर वनमाला लक्ष्मणसे बोली-मुझे आपके आनेमें कुछ सन्देह है इसलिये आप यह प्रतिज्ञा करें कि यदि मैं न आऊँ तो रात्रिभोजनके पापका भोगनेवाला होऊँ । इससे ज्ञात होता है कि रात्रि-भोजनमें कितना बड़ा पाप है ॥२८-२९।।
चित्रकूट पर्वत पर अपनी स्त्रोको किसी चंडालने रात्रिमें भोजनका त्याग कर देनेसे मार दिया, इसी रात्रि भोजनके त्यागके फलसे वह मातंगी सागरदत्त सेठको नागश्री नामकी पुत्री हुई थी ॥३०॥ देवता लोग तो प्रातःकालमें भोजन करते हैं, मध्याह्न कालमें साधुलोग आहार लेते हैं, नीचदानव लोग सायंकालमें भोजन करते हैं और राक्षसादि रात्रिमें भोजन करते हैं ।।३१।। उत्तम लोग तो दिनमें एक बार ही भोजन करते हैं, मध्यम श्रेणीके पुरुष दिनमें दो बार भोजन करते हैं और पशु तथा राक्षसादि लोग रात्रिभोजन त्याग व्रतके माहात्म्यको नहीं जानते हुए दिन
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