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धर्मसंग्रह श्रावकाचार
कालस्य यापनां कृत्वा स्वाध्यायं तं विसर्जयेत् । ततः प्रमृज्य भूभागं शयीत तृणसंस्तरे ॥६७ प्रवृद्धः पुनरुत्थाय लात्वा स्वाध्यायमुत्तमम् । कायोत्सर्गादिकं कुर्यात्स्मरन्द्वादश भावनाः ॥६८ स्वाध्यायं तं च निष्ठाप्य पश्चात्सूर्योदये सति । कायशुद्धयादिकं कृत्वा ततः सामायिकं भजेत् ॥६९ द्रव्यपूजामसौ कुर्याज्जिनस्य गुरुशास्त्रयोः । अन्ये चाहुदिने तस्मिस्तस्य भावाच्चैनं मतम् ॥७० स्नानमात्यादिनिर्विण्णो धर्मध्यानेन सन्मतिः । तद्दिनं रजनों तां च नयेत्पूर्वोक्तरात्रिवत् ॥७१ प्रातजनालयं गत्वा स्तुत्वा चेष्ट्वा जिनादिकान् । तत्र स्थित्वा कियत्कालं प्रगच्छेन्निजमन्दिरम् ॥७२ एवमुत्कृष्टभागेन मयोक्तं प्रोषधव्रतम् । षोडशप्रहरस्येदं यथोक्तं पूर्वसूरिभिः ॥७३ यदुत्कृष्टं मतं सर्वं मध्यमं च तथैव च । परं जलं विमुच्यान्यां भुक्ति च परिवर्जयेत् ॥७४ तद्दिने काञ्जिकाहारमेकभक्तं विधाय वा । धर्मध्यानेन संतिष्ठेद्भवेत्तद्धि जघन्यकम् ॥७५ भेदा अन्येऽपि विज्ञेयाः प्रोक्ताः सन्ति जिनागमे । मध्यमस्य जघन्यस्य प्रोषधस्य तपोधनैः । ७६ आरम्भसंभवं पापं क्षीयते किं तपो विना । तस्मात्पर्वणि तत्कर्तुं युक्तं श्रावकपुङ्गवैः ॥७७ आरम्भकम्र्मणा क्वापि न भवेत्प्रोषधव्रतम् । कुर्वतोऽप्युपवासादि फलायापथ्यभुक्तिवत् ॥७८
आल्हादित मन होकर सन्ध्या समयमें करने योग्य कर्म्म करे । फिर स्वाध्यायको स्वीकार करके पञ्च नमस्कार मन्त्रका भाव पूर्वक जप करे || ६६ || पञ्च नमस्कार रूप महामन्त्रका जप करता हुआ कुछ समय व्यतीत करके ग्रहण किये हुए स्वाध्यायका विसर्जन करे । इसके बाद पृथ्वीके किसी प्रदेशको मार्जन (झाड़) करके जन्तुरहित भूमिमें तृणशय्या पर शयन करे || ६७|| निद्राके खुलने पर उठकर उत्तम प्रकार स्वाध्यायको स्वीकार करके बारह प्रकार अनित्यादि भावनाओंका स्मरण करता हुआ कायोत्सर्ग आदि करे || ६८ || उस स्वाध्यायको पूर्ण करके जब सूर्योदय हो जाय तब शरीर शुद्धि आदि करनेके बाद फिर सामायिक करे ||६९|| प्रोषधोपवासका धारक श्रावक देव गुरु और जिनवाणीका जलादि आठ द्रव्योंसे पूजन करे । इस विषयमें कितने महर्षियोंकी यह भी सम्मति है कि प्रोषधोपवासी श्रावकको केवल भाव पूजन करना चाहिये || ७० ॥ स्नान, माल्य, भूषणादिसे विरक्त होकर उत्तम बुद्धिका धारक वह प्रोषधोपवासी श्रावक धर्मध्यानादिसे उस दिनको तथा रात्रिको पहिलेके समान व्यतीत करे ||७१ ॥ पुनः प्रातः काल जिनालय जाकर और वहाँ देव, गुरु तथा शास्त्रादिकी स्तुति करके तथा पूजन करके और कुछ समय तक वहीं पर रहकर इसके बाद फिर अपने मकान पर आवे ||७२|| इस प्रकार उत्कृष्ट विभागसे जो मैंने यह सोलह प्रहरका प्रोषव्रत कहा है यह प्राचीन मुनियोंके अनुसार कहा है ||७३ || जिस तरह उत्कृष्ट प्रोषधोपवास किया जाता है उसी तरह मध्यम प्रोषधोपवासको भी समझना चाहिये । परन्तु विशेष इतना है कि मध्यम प्रोषधोपवासमें जल रख कर और शेष भोजनका त्याग किया जाता है ||७४ || पर्वके दिन काञ्जिकाहार अथवा एक भुक्त करके जो धर्मध्यान सेवन करता है उसे जघन्य प्रोषधोपवास कहते हैं ||७५|| उत्कृष्ट, मध्यम तथा जघन्य प्रोषधोपवासके और भी कितने भेद मुनि लोगोंने जिन आगम में कहे हैं उन्हें शास्त्रावलोकन करके जानना चाहिये ||७६ | आरंभसे उत्पन्न होनेवाला पाप तपके विना कभी नाश नहीं हो सकता । इसलिये उस पापको नाश करनेके अर्थ अष्टमी तथा चतुर्द्दशी के दिन उत्तम श्रावकों को प्रोषधोपवास करना योग्य है ||७७ || आरंभ करनेसे कभी प्रोषधोपवास नहीं हो सकता, आरंभ करनेवाला कितने भी उपवासादि क्यों न करे उसके अपथ्य भोजनके समान वह फलके लिये समझना चाहिये ||७८ || अनवेक्षित प्रमार्जितोत्सर्ग -- बिना देखे अथवा
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