________________
१४०
श्रावकाचार-संग्रह भुक्तेः कायस्ततो धातुस्थितिस्तस्यां मनः स्थिरम् । तस्मिन्ध्यानं ततः कर्मक्षयो मोक्षः स एव हि ॥१०० दाता पात्रं स्थिरं कुर्वन्मोक्षाय स न कि स्थिरम् । शिल्पी प्रासादमुच्चायन्स्वयमुच्चैन जायते ॥१०१ श्रीषेणवज्रजङ्घाद्याः पात्रदानोत्थपुण्यतः । भोगभूस्वःसुखं भुक्त्वा तीर्थकृत्त्वं च लेभिरे ॥१०२ मेघेश्वरचरिोऽस्ति रत्यादिवरवेगिका । कपोतयुगलं यत्र पात्रदानानुमोदतः ॥१०३ हिरण्यवर्मणो नाम्ना प्रभावत्या युतस्य तु । विद्याधरपतेः सौख्यं प्राप्तवत्तत्रा किं न ना ॥१०४ कर्मोदयवशाज्जातरोगाय मुनये भृशम् । युक्तया सदोषधं दानं दीयतां रोगशान्तये ॥१०५ द्वारावत्यां मुनीन्द्राय ददौ विष्णुः सदौषधम् । तत्पुण्यतीर्थकृन्नाम सद्गोत्रेण बबन्ध सः ॥१०६ वासो मठादिकावासस्तद्दानमपि दीयताम् । मुनिभ्यो गृहिणा शुद्धधर्मतीर्थप्रवत्तंने ॥१०७ ज्ञानसंयमशौचोपकरणं दानमुत्तमम् । ज्ञानसंयमवृद्धयर्थ दद्यान्मुनिवराय सः ॥१०८ ज्ञानोपकरणं शास्त्र पिच्छः संयमसाधनम् । शौचोपकरणं कायमलहारि कमण्डलु ॥१०९
सदैव प्रयत्नतत्पर होना चाहिये ।।९९॥ भोजनसे शरीरकी स्थिति रहती है, शरीरको स्थितिसे धातुओंकी स्थिति होती है, धातुओंके स्थिर रहनेसे मनकी स्थिरता होती है, मनको स्थिरतासे ध्यान अच्छी तरह होता है, उसी ध्यानसे कर्मोंका नाश होता है और कर्मों का नाश ही मोक्ष कहलाता है। दान उत्तरोत्तर मोक्षका कारण है इसलिए गृहस्थोंको दानमें निरन्तर उद्यमशील होना चाहिये ।।१००। जो दाता दानादिसे मुनियोंको मोक्षमार्गादिमें स्थिर करता है क्या वह मोक्ष जानेका पात्र न होगा? अरे ! मकानका निर्माण करनेवाला शिल्पीकार मकानको ऊँचा बनाता हुआ क्या स्वयं ऊँचा न जाता? अवश्य ही ऊँचा जाता है। भावार्थ-जैसे शिल्पकार ज्यों ज्यों उन्नत प्रासादोंका विनिर्माण करता है त्यों त्यों वह भी ऊँचे चढ़ता जाता है उसी प्रकार जो दाता मुनियोंको आहारादिसे रत्नत्रयके साधनमें निश्चल करेगा वह भी नियमसे मोक्षका अधिकारी होगा इसलिए दान देने में प्रयत्न करना चाहिये ॥१०१॥ इसी पात्रदानसे उत्पन्न होनेवाले पुण्यकर्मके प्रभावसे प्राचीन समयमें श्रीषेण तथा वज्रजङ्घ आदि कितने महापुरुष भोगभूमि तथा स्वर्ग-जनित सुखोंको भोगकर इसके बाद जगत्पूजनीय तीर्थकर पदको प्राप्त हुए हैं ॥१०२।। मेघेश्वर ( जयकुमार ) के चरित्रमें रतिवर और रतिवेगा नाम कपोत युगलका वर्णन है । केवल पात्रदानके अनुमोदन मात्रसे यह कपोत युगल प्रभावती स्त्री सहित हिरण्य नाम विद्याधरपतिके सुखको प्राप्त हुआ था तो पात्रदानके फलसे मनुष्य क्या स्वर्गादि सुखोंको नहीं पावेगा ? अर्थात् अवश्य पावेगा। भावार्थ-पात्रदानके अनुमोदन (प्रशंसा ) मात्रसे कपोत युगलने विद्याधरोंकी पर्याय पाई थी तो दानके देनेसे मनुष्य स्वर्गादि सुख नहीं पा सकेगा क्या ? किन्तु अवश्य पा सकेगा इसलिये पात्रदानमें गृहस्थोंको अग्रसर होना चाहिये ।।१०३-१०४।। यदि कर्मोदयके वशसे मुनियोंको किसी प्रकार शरीरमें व्याधियाँ हो जावें तो उनकी शान्ति करनेके लिए उत्तम उत्तम औषधियोंका दान मुनियोंके अर्थ देना चाहिए ॥१०५।। द्वारका नगरीमें किसी मुनिराजके लिये विष्णु ( श्रीकृष्ण ) ने उत्तम औषध दान दिया था उस दानके पुण्यसे उन्होंने ती कर नाम कर्मका बन्ध किया ॥१०६|| वसतिका, मठ आदिका भो दान मुनियोंके लिये शुद्ध धर्म तीर्थकी वृद्धिके अर्थ गृहस्थोंको देना चाहिये ॥१०७।। ज्ञान, संयम तथा शौचोपकरण, शास्त्र, कमण्डलु, पिच्छी आदि वस्तुओंका दान मुनिराजोंके लिये ज्ञान तथा संयमकी वृद्धिके अर्थ देना चाहिए ॥१०८|| ज्ञानका उपकरण शास्त्र है, संयमका साधन करनेवाली पिच्छी है, और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org