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श्रावकाचार-संग्रह वन्दित्वा गुरुपादौ स प्रत्याख्यानं तदपितम् । गृहीत्वा विधिना सर्वमालोचेत प्रयत्नतः ॥६९ यस्त्वेकभिक्षो भुञ्जीत गत्वाऽसावनुमुन्यतः । तदलाभे विदध्यात्स उपवासमवश्यकम् ॥७० स्थेयान्मुनिवनेऽजस्रं सुश्रूषेत गुरूंस्तथा । तपश्चरेद्विधा वैयावृत्यं कुर्याद्विशेषतः ॥७१ तथा द्वितीयः किन्त्वार्थनामोत्पाटयेत्कचान् । रक्तकोपीनसंग्राही धत्ते पिच्छं तपस्विवत् ॥७२ संशोध्यान्येन निक्षिप्तं पाणिपात्रेऽत्ति युक्तितः । इच्छाकारं समाचारं सर्वेऽन्योन्यं प्रकुर्वते ॥७३ कल्पन्ते वीरचर्याहःप्रतिमातापनादयः। न श्रावकस्य सिद्धान्तरहस्याध्ययनादिकम् ॥७४ कदा मे मुनिवृत्तस्य साक्षाल्लाभो भविष्यति । निरवद्यस्य चित्तेऽसौ भावयेदिति भावनाम् ॥७५ यतो हि यतिधर्मस्याभिलाषी श्रावको मतः । तं विना न भवेत्तस्य धर्मश्च फलवान्क्वचित् ॥७६ दन्दना त्रितयं काले प्रतिक्रान्ते द्वयं तथा । स्वाध्यायानां चतुष्कं च योगभक्तिद्वयं पुनः ॥७७ उत्कृष्टश्रावकेनाऽमूः कर्तव्या यत्नतोऽन्वहम् । षडष्टौ द्वादश द्वे च क्रमशोऽमूषु भक्तयः ॥७८ अन्यैरपि दशधा श्राद्धयथाशक्त्या यथाविधि । पापशुद्धय विधातव्या भवभ्रमणभीरुभिः ॥७९ इत्येकादशधाऽख्यातो नैष्ठिकः श्रावकोऽधुना । अन्त्यस्य च यथासूत्रं साधकत्वं प्रवक्ष्यते ॥८० बनमें जाकर अपने गुरुके चरण कमलोंको नमस्कार करके और उसने दिया हुआ चार प्रकारके आहारका त्यागरूप प्रत्याख्यानको विधिपूर्वक ग्रहण करके दिन भरके अपने कर्त्तव्यको उनके आगे आलोचना करे ॥६९।। किन्तु जो श्रावक एक ही भिक्षाका नियमवाला है उसे चाहिये कि वह दोताके घर जाकर मुनियोंके भोजन किये बाद भोजन करे। यदि आहारका संयोग न मिले तो उस दिन उपवास करे ॥७०॥ उस श्रावकको निरन्तर मुनियोंके पास वनमें रहकर गुरुओंकी सेवा करनी चाहिये। तथा बाह्य और अभ्यन्तर इस तरह दो प्रकारका तप धारण करना चाहिये, उसमें भी वैयावृत्य विशेष करके करना चाहिए ॥७१।। और द्वितीय रक्त कोपीन ( लंगोट ) मात्र धारण करनेवाले भिक्षुकको चाहिये कि अपने केशोंको अपने हाथसे उखाड़े और मुनियोंके समान पिच्छी धारण करे ॥७२।। दूसरोंसे अपने हाथोंमें रखे हए भोजनको देख-शोधकर करना चाहिये। तथा इन सम्पूर्ण एकादश प्रतिमाधारी श्रावकोंको परस्पर "इच्छामि'' ऐसा करना चाहिए ॥७३।। वीरचर्यासे भोजन करना, दिन में प्रतिमा योग धारण करना, ग्रीष्मकालमें पर्वतोंके शिखरपर, शीतकालमें खुले हुए स्थानमें तथा वर्षा समयमें वृक्षोंके नीचे नग्न होकर ग्रीष्मबाधा शीतबाधादिका सहन करना तथा सिद्धान्त रहस्य अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्रोंका अध्ययन करना ये सब बात देशव्रती श्रावकके लिये मना है। अर्थात् गृहस्थोंको इन विषयोंमें प्रवृत्ति करनेका अधिकार नहीं है ।।७४|| अहो ! वह सुदिन कब होगा जिस दिन निर्दोष ( पवित्र ) मुनिवृत्तकी मुझे साक्षात्प्राप्ति होगी, इस प्रकार चित्तमें निरन्तर ऐसो भावना भाते रहना चाहिए। यही कारण है-जो मुनि धर्मका इच्छुक होता है उसे ही वास्तव में श्रावक कहते हैं क्योंकि यति धर्मकी भावनाके विना श्रावक धर्म कभी फल-दायक नहीं होता ॥७५-७६।। तीनों कालमें तीन वक्त सामायिक, दो प्रतिक्रमण, चार स्वाध्याय तथा दो योग भक्ति ये सब क्रियाएँ-उत्कृष्ट श्रावकको प्रयत्न पूर्वक प्रति दिन करना चाहिये। इनमें क्रमसे छह, आठ, बारह और दो भक्ति होती हैं ॥७७-७८॥ संसारके भ्रमणसे भयभीत शेष दशप्रतिमाधारी श्रावकोंको भी ये उपयुक्त क्रियाएं शास्त्रानुसार अपनी शक्तिके माफिक पापको शुद्धिके लिये अर्थात् पापके नाश करनेके अर्थ करनी चाहिए ॥७९|| इस प्रकार ग्यारह प्रकारके नैष्ठिक श्रावकका वर्णन किया । अब शास्त्रानुसार अन्तिम श्रावकके साधकपनेका वर्णन किया जाता है ।।८।।
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