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धर्मसंग्रह श्रावकाचार प्रत्यहं नियमात्किञ्चित्तपस्यन्दददत्र च । महीयसः पराँल्लोकॉल्लभते स ध्रवं सुदृक् ॥१२९ पन्नाणुव्रतपुष्टचथं पाति यः सप्तशीलकम् । व्यतीचारं सदृष्टिः स वतिकः श्रावको भवेत् ॥१३० यदाहोरात्रिकाचारं बिभाशाधरोदितम् । तदा सामायिकाद्यर्हः स महाश्रावको भवेत् ॥१३१
एवं द्वादशधा व्रतं गतमलं ये धारयन्त्यादरात्पञ्चाणुव्रतत्रिगुणवतचतुःशिक्षावताख्यं सदा । ते मेधाविन उत्तमार्थविधिना स्मृत्वा जिनेन्दोः पदं
प्राणान्स्वान्परिहृत्य सर्वसुखदा नाकश्रियो भुञ्जते ॥१३२ करे ॥१२८।। नियम पूर्वक प्रतिदिन कुछ तपश्चरण करता हुआ तथा कुछ दान देता हुआ सम्यग्दृष्टि पुरुष निश्चयसे स्वर्गादि उत्तम स्थानोंको प्राप्त होता है ।।१२९।। जो सम्यग्दृष्टि पुरुष अहिंसादि पञ्च अणुव्रतोंकी वृद्धिके लिये अतिचार-रहित तीन गुणव्रत और चार शिक्षावत इस तरह शीलसप्तकका पालन करता है वह व्रतप्रतिमाका धारक व्रतिक श्रावक कहा जाता है ।।१३०॥ जो पुरुष पण्डितवर्य आशाधरके कहे हुए दिन रात्रि सम्बन्धि आचारको जिस समय धारण करता है वह सामायिकादि प्रतिमाओंके धारण करने योग्य महा श्रावक समझा जाता है ।। १३१॥ ना भव्यपुरुष-अतोचार-रहित अहिंसादि पाँच अणुव्रत, दिग्विरतादि तीन गुणव्रत, देशावकाशिका चार शिक्षा व्रत इस तरह बारह व्रतोंको धारण करते हैं वे बुद्धिमान पुरुष-जिन भगवानक पादारविन्दोंका स्मरण करते हुए अपने प्राणोंको छोड़कर अनेक तरहके उत्तम सुखोंको सम्पादन करनेवाली स्वर्गकी लक्ष्मीके भोगनेके स्वामी होते हैं ॥१३२।। इति सूरिश्रीजिनचन्द्रान्तेवासिना पण्डितमेधाविना विरचिते श्रीधर्मसंग्रहे
व्रतप्रतिमास्वरूपवर्णनो नाम चतुर्थोऽधिकारः ।।४।।
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