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श्रावकाचार-संग्रह यतःप्राणमयो जीवः प्रमादात्प्राणनाशनम् । हिंसा तस्यां महद्दुःखं तस्य तद्वजनं ततः ॥९ सूखी दूःखी न हिस्योऽत्र न पापो न च पुण्यभाक् । क्वचित्तेन यतो दुःखं मरणान्न महत्परम् ॥१० जिनालयकृतौ तीर्थयात्रायां बिम्बपूजने । हिंसा चेत्तत्र दोषांशः पुण्यराशौ न पापभाक् ॥११ कायेन मनसा वाचा न सानां वधः क्वचित् । कार्यः कृतकारितानुमोदनै दुःखदायकः ॥१२ सन्तोषालम्बनाद्यः स्यादल्पारम्भपरिग्रहः । यत्नवान्निष्कषायोऽसावहिंसाणुवतं श्रयेत् ॥१३ बन्धनं ताडनं छेदोऽतिभारारोपणस्तथा । अन्नपाननिरोधश्च दुर्भावात्पञ्चव्यत्ययाः ॥१४ न हन्मीति वतं कुप्यन्निकृपत्वान्न पाति न । भनक्तयघ्नन्नशघातत्राणादतिचरत्यधीः ॥१५ हिहिंसकहिंसास्तत्फलं चालोच्य निश्चयात् । हिंसा त्यजेद्यथा नैव प्रतिज्ञाहानिमाप्नुयात् ॥१६ स्थावर जीवोंकी रक्षा करनेको अहिंसाणुव्रत माना गया है ॥८॥ यतः जीव प्राणमय है, अतः प्रमादसे प्राणोंका नाश होना वही हिंसा है। तथा हिंसाके होनेसे अत्यन्त दुःख होता है इसलिए हिंसाका त्याग करना चाहिए। कितने लोगोंका कहना है कि जो जीव दुःख पाता हो, पापी हो, दुष्ट हो, जिससे दूसरे जीवोंको दुःख पहुँचता हो ऐसे मनुष्य तथा सिंह, व्याघ्र, सर्प, बिच्छू आदि जीवोंको मार देना चाहिये। जिन लोगोंकी ऐसी श्रद्धा है उन लोगोंका समाधान करते हैं ॥९॥ इस संसारमें सुखी, दुःखी, पापी, अथवा पुण्यवान् कोई भी क्यों न हो किसीको नहीं मारना चाहिये। क्योंकि मरणको छोड़कर इस जीवको और कोई बड़ा दुःख नहीं है । भावार्थ-दुःख, सुखका होना अपने पूर्वोपाजित कर्मोके उदयसे है। जिस जीवने जो कर्म उपार्जन किया है वह उसे अवश्य भोगना ही पड़ेगा उसे मारो अथवा कुछ करो वह उस कर्मके बिना भोगे कभी नहीं छुटनेका है। फिर व्यर्थ उसके मारनेसे भी क्या होगा? उल्टा अपने ही लिये दुःखका कारण है। कदाचित् यहाँ कोई यह शंका करे कि यह अहिंसाणुव्रतका उपदेश तो बहुत ठीक है परन्तु तुम लोग जो जिनमन्दिर बनवाते हो, प्रतिष्ठा करवाते हो, उसमें बहुत हिंसा होती है वहाँ तुम्हारा अहिंसाणवत कहाँ चला जायगा? इसी प्रश्नके उत्तरमें ग्रन्थकार कहते हैं कि-॥१०॥ जिनमन्दिरके बनवानेमें, तीर्थोंकी यात्रा करने में, तथा प्रतिष्ठादि महोत्सवोंके करवाने में यदि हिंसा होती है तो वह दोषका अंश बहुत पुण्यके समूहमें पाप नहीं कहलाता है ।।११।। मन, वचन, कायसे तथा कृत, कारित, अनुमोदनासे, दुःखको देनेवाला त्रस ( द्वीन्द्रियादि ) जीवोंका वध कभी नहीं करना चाहिये ॥१२॥ संसारके यथार्थस्वरूपको जानकर सन्तोष वृत्तिको धारण करके जो पुरुष आरंभका करनेवाला, थोड़े परिग्रहको रखनेवाला, प्रयत्नशील ( उद्योगी ) और कषायसे रहित होता है. वही अहिंसाणुव्रतका पात्र होता है ।।१३।। दुर्भावसे जीवोंको बाँधना, ताड़न करना, उनके शरीरावयवोंका छेदना, बहुत भारका उनके ऊपर लादना तथा उनके अन्नपानका निरोध करना ये पाँच अहिंसाणुव्रतके अतीचार होते हैं ।।१४।। जिस समय यह जीव क्रोधसे युक्त होता है उस समय परिणामोंके निर्दय होनेसे अहिंसाणुव्रतका पालन नहीं करता है। क्योंकि अहिंसाणुव्रतीके लिये निर्दय वृत्ति होना ठीक नहीं है। तथा न उस व्रतका सर्वथा नाश ही कर देता है । क्योंकि व्रतका नाश उसी समय कह सकते हैं जब वह साक्षात् जीवोंकी हिंसा करता हो सो तो नहीं करता है। किन्तु उसने अपने खोटे अभिप्रायोंसे केवल कर्म-बन्ध ही किया है इसलिये उसने अहिंसावतका उल्लंघन किया है। इसो उल्लंघनको अतीचार कहते हैं ॥१५॥ हिंस्य, हिंसक, हिंसा तथा हिंसाका नरकादि दुर्गतिरूप फल इन सबका ठीक-ठीक
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