________________
१३४
श्रावकाचार-संग्रह विव्रताद वृतदेशस्य यत्संहारो घनस्य च । क्रियते सावधिः सोम्नां तत्स्यादेशावकाशिकम् ॥३४ अद्य रात्रिर्दिया बापि पक्षो मासस्तथा ऋतुः । अयनं वत्सरः कालावधिमाहुस्तपोधनाः ॥३५ मठहारिगृहक्षेत्रयोजनानां वनस्य च । सोम्नां स्मरन्ति देशावकाशिकस्यान्वहं बुधाः ॥३६ वेशावकाशिकेनासो सोमाबाह्ये निवृत्तितः । सूक्ष्मानामपि पापानां तदा महाव्रतीयते ॥३७ व्रतभङ्गोऽथवा यत्र देशे न जिनशासनम् । क्वचित्तत्र न गन्तव्यं तदपीदं व्रतं भवेत् ॥३८ तेन तद्गमनाभावे व्रतरक्षा कृता निजा। मिथ्यात्वाऽसङ्गतिश्चातः साध्वेतद्वतपालनम् ।।३९ यत्र देशे जिनावासः सदाचारा उपासकाः । भूरिवारीन्धनं तत्र स्थातव्यं व्रतधारिणा ॥४० तत्र त्याज्या आनयनप्रेष्यप्रयोगकाख्यकौ । शब्दरूपानुपातौ च पुद्गलक्षेपको मलाः ॥४१ सर्वभूतेषु यत्साम्यमातरौद्रविवर्जनम् । संयमेऽतीव भावश्च विद्धि सामायिकं हि तत् ॥४२ चंत्यादौ सन्मुखः प्राच्यामुदीच्यां वा क्वचित्स्थितः । शचिर्भत्वा विदध्यात्स वन्दनां प्राच्यमार्गतः ॥४३ प्रत्यहं क्रियते देववन्दना तत्र शुद्धयः । क्षेत्रकालासनान्तर्वाक्छरीरविनयाभिधाः ॥४४
हैं ॥३३॥ दिग्व्रतमें जो जीवन-पर्यन्तके लिए देशका प्रमाण किया है उसकी सीमाका, कालकी अवधिपर्यन्त संकोच करनेको देशावकाशिक शिक्षावत कहते हैं ॥३४|| आज, रात्रि, दिन, पक्ष, महीना, दो महोना, छह महीना तथा एक वर्ष इत्यादि भेदको मुनि लोग कालकी अवधि कहते हैं ॥३५॥ बुद्धिमान् लोग मठ, वीथिका ( गली), घर, क्षेत्र तथा योजन, वन पर्यन्त देशावकाशिक शिक्षाव्रतकी सीमा कहते हैं ॥३६॥ देशावकाशिकव्रतके धारण करनेसे सीमाके बाहर सूक्ष्म पापोंकी भी निवृत्ति होनेसे वह श्रावक महाव्रती मुनिके समान समझा जाता है ।।३७।। जहाँ अपना व्रतभङ्ग होता हो तथा जिस देशमें जिनधर्म न हो उस देशमें कभी नहीं जाना चाहिये । इसे भी देशावकाशिक शिक्षाव्रत कहते हैं ॥३८॥ देशावकाशिक व्रतमें की हुई मर्यादाके बाहर जानेका अभाव होजाने पर देशावकाशिक व्रतके धारण करनेवालोंने अपने धारण किये हुए व्रतकी रक्षा की तथा मिथ्यात्व भी छोड़ा इसलिए देशावकाशिक व्रतको पालन करना योग्य है ॥३९।। जिस देशमें जिनालय हो, उत्तम आचरणके धारक श्रावक लोग हों तथा जल ईन्धनकी जहाँ प्रचुरता हो उसी देशमें व्रतो पुरुषोंको रहना चाहिए ॥४०॥ आनयन-अपनी की हुई मर्यादाके बाहरसे कोई वस्तु किसीसे मँगाना, प्रेष्यप्रेयाग-स्वयं की हुई मर्यादाके भीतर रहकर किसी कामके लिये दूसरेको सीमाके बाहर भेजना, शब्दानुपात-अपनी मर्यादाके बाहर रहनेवाले पुरुषको अपने समीप बुलानेके लिये चुटकी अथवा ताली आदि बजाना, रूपानुपात मर्यादाके. बाहरसे बुलानेके लिये शब्दसे न बुलाकर अपना रूप शरीरावयव दिखाना और पुद्गल-क्षेपक-की हुई मर्यादाके बाहर किसी कामके करानेको सूचनाके लिये सीमा बाहरवाले पुरुषके पास, पत्थर वगैरह फेंकना ये पाँच देशावकाशिक व्रतके मल ( अतीचार ) हैं। देशावकाशिकव्रतके धारक पुरुषोंको त्यागने चाहिये ॥४१॥ सर्व जीवमात्रमें साम्य ( समता ) भावका होना, आर्त परिणामका छोड़ना तथा संयममें विशेष प्रवृत्तिका होना इसे सामायिक कहते हैं ।।४२।। जिनालय, वन, तथा और कोई बाधा रहित एकान्त स्थानमें पूर्व दिशा या उत्तर दिशामें मुख करके स्थिर होकर तथा पवित्र होकर प्राचीनमार्गके अनुसार वन्दना ( सामायिक ) करनी चाहिये ।।४३।। सामायिकके समयमें जो प्रतिदिन देववन्दना की जाती है उसमें क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि, आसनशुद्धि, मनशुद्धि, वचनशुद्धि, शरीरशुद्धि तथा विनय शुद्धि इस तरह सात प्रकार शुद्धि होनी चाहिये ॥४४॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org