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धर्मसंग्रह श्रावकाचार
देशकालात्मजात्याद्यपेक्षया परिमाणयेत् । वास्त्वाद्यामृति कृशयेत्तदपि स्वेच्छया पुनः ॥७४ अप्रत्ययतमोरात्रिर्लोभाग्निसमिधाहुतिः । सावद्यग्राहवाराशिस्तथापीष्टः परिग्रहः ॥७५ यः परिग्रहसंख्यं ना निर्मलं रक्षति व्रतम् । लोभजिज्जघवत्पूजातिशयं लभते त्वसौ ॥७६ परिग्रहाभिलाषाग्नि ज्वलन्तं चित्तकानने । विध्यापयेदसौ क्षिप्रं सन्तोषघनधारया ॥७७ प्रमाणातिक्रमो वास्तुक्षेत्रयोर्धनधान्ययोः । हिरण्यस्वर्णयोद्वर्यादिपादयोः कुप्यभाण्डयोः ॥७८ वास्तुक्षेत्रादियुग्मानां पञ्चानां प्रमिति क्रमात् ।
योगाद्बन्धनतो दानाद्गर्भाद्भावान्न लंघयेत् ॥७९
व्रतान्यमून्यस्मिन्विद्यन्ते चेत्यणुव्रती । याति मृत्वा सहस्रारपर्यंन्तममरालयम् ॥८० देवकमयं मुक्त्वा बद्धान्याऽयुष्क मानवः । प्राप्नोत्यणुव्रतं नैव नो महाव्रतमुत्तमम् ॥८१ बद्धाको निजां मुक्त्वा गति नान्यत्र गच्छति । द्विधा व्रतप्रभावेन दैवीमेव गति यतः ॥८२
आदि बाह्य परिग्रहको घीरे धीरे घटा करके - उत्पन्न होने वाले क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, वेद, राग, द्वेष, आदि चौदह प्रकारके अभ्यन्तर परिग्रहको भी क्षमादिकोंके द्वारा दूर करे ॥७३॥ धन-धान्य, वास्तु आदि बाह्य परिग्रहका स्वेच्छा से देश, काल, आत्मा तथा जाति आदिकी अपेक्षा आजन्म पर्यन्त परिमाण करे । पुनः वह परिमाण भी क्रमसे घटाते जाना चाहिये ||७४ || ग्रन्थकार कहते हैं कि यद्यपि यह परिग्रह अविश्वास रूप अन्धकारकी रात्रि हैं, लोभ रूप धग धग जलने वाली अग्निके लिये ईन्धन ( काष्ठ ) की आहुति है तथा सावद्य (पाप) ग्राह ( मगरमच्छादिक ) के लिये जलराशि (समुद्र) के समान है । तो भी संसारी लोगोंके लिये इष्ट (अभिलषित) है ||७५ || लोभको जीतने वाला जो पुरुष परिग्रह प्रमाण रूप पवित्र व्रतका पालन करता है वह जयकुमारके समान लोकमें पूजाके अतिशयका भागी होता है || ७६ ॥ परिग्रहप्रमाणव्रत धारण करनेवाले पुरुषोंको अपने चित्त रूप वनमें जलती हुई परिग्रहकी अभिलाषा रूप अग्निको सन्तोष रूप मेघकी धारासे बहुत जल्दी बुझाना चाहिये ॥७७॥ वास्तु क्षेत्र, धन-धान्य, चाँदी- सुवर्ण, द्विपद-चतुष्पद तथा कुप्य- भाण्ड इनके प्रमाणके उल्लंघन करनेको अतीचार कहते हैं ॥७८॥ | वास्तु और क्षेत्रका योगसे अपने परिमाण किये हुए वास्तु (घर) और क्षेत्रमें दूसरे स्थानको मिला लेना, धन और धान्यका बन्धन — बेचने के प्रतिबन्धसे, चाँदी और सोनेका दान- दूसरों को देनेसे, द्विपद और चतुष्पदका गर्भसे, कुप्य और भाण्डका भाव (परिणाम) अपनी की हुई परिमाण संख्या की अधिक वृद्धि करनेसे अतिक्रमण नहीं करना चाहिये । ये ही क्रमसे परिग्रह परिमाणव्रतके पाँच अतोचार कहे जाते हैं । इन्हीं छोड़नेका उपदेश है || ७९ || ऊपर कहे हुए अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, परिग्रहपरिमाणाणुव्रत ये पाँच अणुव्रत, जिस पुरुष में पाये जायें उसे ही अणुव्रतो कहना चाहिये । अणुव्रतका धारण करनेवाला पुरुष सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त जाता है । आगममें अच्युत स्वर्ग तक जानेका विधान है ||८०|| अणुव्रत धारण करनेके पहले देवायुको छोड़ कर जिसके दूसरी गतिकी आयुका बन्ध हो गया है वह पुरुष कभी अणुव्रत तथा उत्तम महाव्रतको प्राप्त नहीं हो सकता || ८१ || जिसके अणुव्रत धारण करनेके पहले दूसरी गतिका बन्ध हो गया है वह पुरुष उस गतिको छोड़ कर दूसरी गति में नहीं जाता । यही कारण है कि -अणुव्रत तथा महाव्रतके प्रभावसे देवगति ही को प्राप्त होता है ||८२|| जिन भगवान् की सभा में बैठे हुए
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