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श्रावकाचारसंग्रह
दोषाभावात्कुतोऽसत्यं ब्रूतेऽयं परमेश्वरः । अतस्तेनोदितो धर्मः प्रमाणं क्रियते बुधैः ॥१० दोषवल्लोकदेवानां ब्रह्मादीनामुदाहृतम् । हिंसाविलक्षणं धर्मं तेन यः कुरुते समम् ॥११ बब्बूलं कल्पवृक्षेण शूकरं मत्तदन्तिना । मूढः स तुलयेत्क्षिप्रं वल्मीकं च सुराद्रिणा ॥१२ कुतस्ते दोषवद्देवाः प्रत्यक्षावनुमानतः । कंकणं दृश्यते पाणी साध्यं सद्दर्पणेन किम् ॥१३ पितामहे समाचष्टे जपमालाऽन्यचिन्तनम् । कमंडलुजलापूर्ण तृषं विण्मूत्रजं मलम् ॥१४ आह स्त्रीजनसंसर्गो रतिरागो महेश्वरे । शूलाविश्च भयं द्वेषं मुकुटं मोहमूर्च्छनाम् ॥१५ विष्णौ चक्रगदा ब्रूते चापश्चारिगणाद्भयम् । पाञ्चजन्यश्च लोकानां विस्मयं वावदीति च ॥१६ बौद्धे रक्तपटीसंगः स्वापं रागं च जल्पति । साक्षासूत्रोद्धहस्तश्च चिन्ताखेद मदादिकान् ॥१७ यद्येत एव देवाः स्युः केऽन्ये भिल्लाश्च कामुकाः । देवत्वं भवतीत्थं चेत्तदा देवमयं जगत् ॥ १८ अतः संसारिणो जीवा यादृशास्तादृशा अमी । वाक्यं प्रमाणमेतेषां कुतः स्वपरवञ्चकम् ॥१९ मोहवशतः कश्वित्प्रमाणयति तद्वचः । विषकुंभादसौ मूढः सुधां पातुं समीहते ॥२० आप्तस्य वपुषः शान्ताद्बुध्यतेऽन्त र दोषता । धूमाभावात्कुतो वह्निर्हतः कोटरे तरोः ॥२१
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झूठी बात बोल भी नहीं सकता । इसीलिये बुद्धिमान् लोग निर्दोष देवके कहे हुए धर्मको स्वीकार करते हैं || १०|| ब्रह्मादि लौकिक देवोंने जो दोषयुक्त और जीवोंकी हिंसा करनेको धर्म बताया है उसे, और जो धर्म निर्दोष देवोंके द्वारा कहा गया है उन दोनोंको जो समान समझते हैं कहना चाहिये कि योग्यायोग्यके विचारसे रहित उन मूर्खोने बबूलकी कल्पवृक्षके साथ तुलना की है । शूकरकी बड़े भारी मत्तगजराजके साथ समानता की है और वल्मीकको सुमेरु पर्वत समझा है ।।११-१२। जो लोग दोषयुक्त ब्रह्मादि देवोंको देव कहते हैं उनका कहना प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे सर्वथा बाधित है। इस विषय में विशेष क्या कहा जाय जब हाथमें कंकण विद्यमान है तो वहाँ काचका उपयोग हो क्या होगा ? || १३ || ब्रह्मदेव हाथमें तो माला फेरते थे और अन्तरंग में स्वर्गकी उर्वशो नामकी देवांगनाको बसा रक्खी थी। और कमंडलुके जलसे जब तृषा पूर्ण नहीं हुई तब उन्हें अपवित्र पदार्थका सम्बन्ध रुचिकर हुआ था । यह तो ब्रह्मदेवकी जन्मपत्री है ॥ १४ ॥ इसी तरह महादेव भी स्त्रीके संगमें लीन हो रहे हैं इसीसे उन्हें भवानीको अपना आधा शरीर बनाना पड़ा है इस कर्मसे उनमें राग और प्रीति कितनी थी इसका अनुभव हो जाता है । और उनके हाथ में त्रिशूल भी है इससे जाना जाता है कि वे द्वेषको मूर्ति हैं। उनके मस्तक पर मुकुट भी है उससे उनके मोहका पता लगता है || १५ || यही दशा विष्णुकी भी है। मालूम होता है उन्हें शत्रु लोगों से बहुत भय रहता है इसीलिये तो चक्र, गदा और धनुष धारण करना पड़े हैं । और उनके हाथका शंख लोगोंको आश्चर्य उत्पन्न करता है ||१६|| बुद्धदेव भी अपने आत्माको इन्हीं लोगोंके सम्पत बनाते हैं । उनमें रक्तवस्त्रका संगम शयन और रागको बताता है तथा अक्षसूत्रसे युक्त ऊँचा उठा हुआ हाथ उनमें चिन्ता, दुःख, मद आदिका प्रादुर्भाव सूचन करता है ॥ १७॥ यदि यही लाग देवता गिने जाने लगें तो फिर भील कामी आदि कौन कहे जायेंगे । और यदि ऐसे ही लोग देवता हैं तो फिर सारे जगत्को देवमय कहना चाहिये || १८ || इस कारण जैसे संसारी जीव हैं उन्हीं के समान ये भी हैं फिर अपने दूसरे जीवोंके ठगने वाले इनके वचनोंको कौन प्रमाण मानेगा ? ॥ १९ ॥ यदि कोई दर्शन मोहके अधीन होकर कुदेवोंके वचनोंको प्रमाण मानता है तो समझना चाहिए वह मूर्खात्मा विषके घटसे अमृतके पीनेकी इच्छा करता है ||२०|| देवताओंके
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