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श्रावकाचार-संग्रह तरामि भववाराशि प्रसादात्ते नरेश्वर ! निरास्रवतपोवाहं समारुह्यातिदुस्तरम् ॥१०८ उक्त्वेति मौनमालम्ब्य यावत्तिष्ठति भिक्षुकः । तावन्नृपो जगादेति सस्नेहं भक्तितो मुनिम् ॥१०९ त्वं मे प्राणसमो मित्रः पात्रं माञ्च कृतार्थय । फलवत्स्याच्च राज्यं भुक्त्यर्थं गृहमाब्रज ॥११० मुनिराह पुनश्चारु यदुक्तं जिनशासने । उद्दिष्टं भोजनं नाहं महाव्रतभृतां प्रभो ॥१११ अलाभो मेऽद्य सञ्जात इति बुध्यन्मुनीश्वरः । क्षमयित्वा धरानाथं गच्छति स्म वनं लघु ॥११२ तदा पौरजनानाह राजेति शृणुत प्रजाः । अयं यतीश्वरः साधु पानं मे सज्जनस्तथा ॥११३ दत्ते योऽस्मै गृही भुक्ति तज्जन्म सफलं भवेत् । पारणाहेऽतएवाऽस्मै दाताऽस्म्यन्यो न कश्चन ॥११४ मासे गते पुनर्भुक्त्यै प्रविवेश पुरों यदि । तदा राज्ञा न दृष्टोऽसौ लोकैदृष्टोऽप्यनादृतः ॥११५ मन्यमानो महालाभं पापकर्मनिवहणम् । व्याघुटय स वनं गत्वा पुनर्मासतपोऽग्रहीत् ॥११६ एवं तृतीयवेलायां प्रमत्त राजवारणम् । उपद्रवन्तं लोकानां दृष्ट्वा व्याधुटितो मुनिः ॥११७ तरह इन विषयोंके सम्बन्धमें समझना चाहिये । हे राजेन्द्र ! सर्पके शरीरके समान विषयादिकोंको, चरणोंकी धूलके समान राज्यको और धनको बहुधा निधन ( मरण ) रूप समझकर कौन ऐसा मूर्ख होगा जो इन विषयादिमें मोह करेगा?॥१०७।। हे नरेश्वर ! मैं तेरे प्रसादसे छिद्र रहित तपरूपी नावमें बैठकर अत्यन्त दुल्लंघ्य इस संसार समुद्रके पारको प्राप्त होऊंगा ।।१०८।। इतना कहकर जब मुनिराज चुप हो रहे उसी समय महाराज सुमित्र स्नेह-पूर्वक मुनिराजसे इस तरह प्रार्थना करने लगे ॥१०९॥ हे मुनिराज ! आप मेरे प्राणोंके समान मित्र हैं इसलिये मुझ सरीखे दीन पात्रको कृतार्थ करो। और तब ही यह मेरा राज्य सफल होगा इस कारण भोजनार्थ मेरे घरको चलो ॥११०॥ सुमित्रके इस तरहके वचनोंको सुनकर मुनिराज फिर बोले-हे राजन् ! जिन भगवान्ने महाव्रतके धारण करनेवाले यतीश्वरोंके लिये उद्दिष्ट भोजन अयोग्य बताया है ॥१११।। इसी कारण आज हमारे लिये भोजनका अलाभ है, ऐसा जानकर राजाको क्षमा करके वे मुनि शीघ्रतासे वनको चले गये ॥११२।। जब राजाने देखा कि मुनिराज चले गये तब सम्पूर्ण पुरवासी लोगोंको राजाने कहा । हे प्रजाके लोगो ! मैं कुछ कहना चाहता हूँ उसे तुम सुनो । ये मुनिराज सुषेण अत्यन्त उत्कृष्ट पात्र हैं तथा मेरे प्राणोंके समान मित्र हैं ॥११३। इसलिये जो गृहस्थ इनके लिये आहार दान देता है उसका जन्म सफल होता है। इस कारण आपसे मैं प्रार्थना करता हूँ कि इनके पारणाके समय में ही दाता हूँ और कोई इन्हें दान न दें। अर्थात्-ये मेरे अत्यन्त प्राणप्रिय मित्र हैं इसलिये इन्हें आहार में ही देऊँगा आप लोग न दें ॥११४॥
जब मनिराज राजाके पाससे लौटकर वनमें चले गये वहाँ फिर एक महीनेके उपवासकी प्रतिज्ञा ले ली। जब मास पूर्ण हुआ तब फिर मुनिराज आहारके लिये नगर में आये । उस समय राजाने मुनिराजको नहीं देखे और पुरके लोगोंने देखे भी थे परन्तु उन्होंने आहार नहीं दिया क्योंकि राजाकी आज्ञा ही ऐसी थी ॥११५॥ यद्यपि मुनिराजको आहार नहीं मिला तो भी परिणामको किसी प्रकार विचलित न करके उल्टी पापकर्मोंकी निर्जरा होनेसे बड़ा भारी लाभ समझकर वे वनमें चले गये और फिर भी एक महीनेके उपवासकी प्रतिज्ञा ले ली ।।११६।। इसीतरह एक महीनेके पूर्ण होनेपर मुनिराज फिर भी आहारके लिये नगरमें आये। परन्तु अबकी बार उन्होंने देखा कि राजाका एक उन्मत्त हाथो पुरके लोगोंको त्रास दे रहा है इसे देखकर फिर भी मुनि वनको जाने लगे ॥११७|| जब लोगोंने देखा कि मुनिराज आहारके विना ही फिर बनको
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