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धर्मसंग्रह श्रावकाचार
११७ मक्षिका कुरुते यत्र विष्टां तत्स्याघृणास्पदम् । तन्मयं मधु यस्यात्र लेह्यं तच्चरितं महत् ॥१४० तदेकबिन्दुशः खादन्नघं बध्नाति यो नरः । सप्तग्रामीं वहन्पापं यत्ततोऽप्यधिकं हि तत् ॥१४१ यत्र सम्मूच्छिनः सूक्ष्मास्त्रसाः स्थावरका अपि । जायन्तेऽन्तर्मुहर्तेन नियन्ते तत्कथं हितम् ॥१४२ मधुभक्षणतो हिंसा हिंसातः पापसम्भवः । ततः श्वभ्रादिजं दुःखं हेतोस्तत्त्यजताद् गुणी ॥१४३ मधुवन्नवनीतं च वर्जनीयं जिनागमे । यत्राद्धप्रहरादूध्वं जायन्ते भूरिशस्त्रसाः ॥१४४ उदुम्बरबटप्लक्षफल्गुपिप्पलजानि च । फलानि पञ्चबोध्यान्युदुम्बराख्यानि धीमताम् ॥१४५ प्रत्यक्ष यत्र दृश्यन्ते वादरा बहवस्त्रसाः। स्थावराः सन्ति सूत्रोक्तास्तत्त्याज्यं फलपनकम् ॥१४६ पलभुक्षु दया नास्ति न शौचं मद्यपायिषु । उदुम्बराशिषु प्रोक्तो न धर्मः सौल्यवो नषु ॥१४७ मद्यत्यागवती सवं त्यजेत्सन्धान विधा । पुष्पितं काञ्जिकं चासो मथितावि द्वयहोषितम् ॥१४८ दृतिप्रायेषु भाण्डेषु गतं स्नेहजलादिकम् । हिंगुक्यथितमन्नादि दोषा मांसवते मताः ॥१४९ प्रायः पुष्पाणि नाश्नीयानाञ्जनाय मधु स्पृशेत् । मघत्यागनती सोऽयं प्रोक्तस्तु परमागमे ॥१५० हैं ॥१३९।। मक्खियाँ जहाँ विष्टा करती हैं वह जगह वास्तवमें ग्लानिके पैदा करनेका स्थान होती है तो उसी विष्टा स्वरूप मधुको जो लोग अच्छा और सेवनके योग्य बताते हैं उन पापी पुरुषोंका चरित्र हम कहाँ तक वर्णन करें ॥१४०।। ऐसे अपवित्र मधुकी एक बिन्दुमात्रका खाने वाला पुरुष जितना पाप उपार्जन करता है वह पाप सात ग्रामोंके जलाने वालेके पापसे भी अधिक पाप है ।।१४१।। जिस मधुमें सम्मूर्छन ( अपने आप उत्पन्न होने वाले ) सूक्ष्म, त्रस तथा स्थावर जीव उत्पन्न हो जाते हैं और अन्तर्मुहूर्तमें मर जाते हैं वह मधु कैसे उत्तम समझा जाय ? ॥१४२।। मधुके भक्षण करनेसे पहले तो जीवोंकी हिंसा होती है, हिंसासे पाप कर्मोका बन्ध होता है और पापके फलसे नरकोंमें घोर दुखोंकी वेदनाएँ सहन करनी पड़ती हैं। इसलिये इस मधुके भक्षणको उत्तरोत्तर दुखोंका कारण समझ कर उसके छोड़नेमें विलम्ब नहीं करना चाहिये ॥१४३॥ महर्षि लोगोंका उपदेश है कि जेन शास्त्रोंमें जिस तरह मधुके त्यागनेका उपदेश है उसी तरह नवनीत (मक्खन ) के भी छोड़नेका उपदेश है। क्योंकि नवनीतमें आधे प्रहरके ऊपर अनेक त्रस जीव पैदा हो जाते हैं ॥१४४॥ उदुम्बर वृक्ष, वटवृक्ष, प्लक्षवृक्ष, कठूमर वृक्ष और पिप्पल वृक्ष इनसे उत्पन्न होनेवाले पाँच उदुम्बर फल हैं। ऐसा बद्धिमानोंको जानना चाहिए ॥१४५॥ जिन पञ्च उदुम्बर फलोंमें आँखोंके सामने असंख्याते बादर और त्रस जोव देखे जाते हैं तथा स्थावर तो कितने हैं उनकी तो हम गणना ही नहीं कर सकते, उनका जिस तरह जिन भगवान्के शास्त्रों में वर्णन किया है उसी तरह श्रद्धान करना चाहिये । ये पञ्चोदुम्बर फल जीवोंकी राशि हैं इसलिये इन्हें छोड़ना चाहिये ॥१४६।। जो लोग मांसके खाने वाले हैं उनमें कभी दयाका लेश भी नहीं हो सकता। जो लोग मदिराके पीने वाले हैं उनमें शौच (पवित्रता) की कभी स्वप्नमें भी संभावना नहीं कर सकते । तथा जो लोग पञ्चोदुम्बर फालके खाने वाले हैं उन पुरुषोंमें सुखको देनेवाला धर्म कभी देखने में नहीं आवेगा ॥१४७॥ मदिराके त्यागी पुरुषोंको मन वचन कायसे सन्धानक ( सर्व प्रकारके अचार वगैरह ), पुष्पित ( जिन पदार्थों पर फूलन चढ़ गई हो), काजी, तथा दो दिनके बादका तक्र ( छाछ ) दही इत्यादि पदार्थों नहीं खाना चाहिये ॥१४८॥ जो लोग मांसके त्यागी हैं उन्हें चमड़ेके भाजनादिकोंमें रखे हुए तैल, जल, हींग, काढा, अन्न आदि पदार्थोंका सेवन नहीं करना चाहिये ॥१४९।। जो लोग मधुके त्यागी हैं उन्हें बहुधा करके पुष्प नहीं खाने चाहिये तथा अञ्जनके लिये मधुका स्पर्श तक भी नहीं करना चाहिये ।।१५०॥ जो लोग पञ्चो
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