________________
श्री पं० मेधावि-विरचित धर्मसंग्रह श्रावकाचार
प्रथमोऽधिकारः अथैकदा गणाधीशः श्रेणिकं चेत्यभाषत । देशनां शृणु सम्यक्त्वालङ्कारालङ्कतप्रभोः ॥१ पूर्वापरसमुद्राप्तसमिलायूपरंध्रयोः । संयोगो दुर्लभो यद्वत्तदात्मनजन्मनोः ॥२ नरत्वं दुर्लभं जन्तोभ्रंमतोऽस्य भवार्णवे। सिकताजलधौ भ्रष्टं वज्रवत्पारवर्जिते ॥३ बहूनां कर्मणां राजन् क्षयोपशमभावतः। मनुष्यकर्मणः पाके यदि प्राप्तं कथञ्चन ॥४ धर्मेण सफलं कार्य तत्तदा दुःखहारिणा । सुखाभिलाषिणा स्वस्य जलसेकेन सस्यवत् ।।५ आप्तेन भाषितो धर्म आप्तो दोषविवर्जितः । ते चाष्टादश विज्ञेया बुद्धिमद्धिः क्षुधादयः॥६ क्षुत्पिपासे भयद्वेषो मोहरागो स्मृतिर्जरा । रुग्मृती स्वेदखेदौ च मदः स्वापो रतिर्जनिः ॥७ विषादविस्मयावेतो दोषा अष्टादशेरिताः । एभिर्मुक्तो भवेदाप्तो निरञ्जनपदाश्रितः ॥८ आप्तोऽर्हन्वीतरागश्च केवली जिनपुङ्गवः । देवदेवो जगन्नाथो वृषभादिश्च नामतः॥९
किसी समय श्री गौतम गणधरने महाराज श्रणिकसे कहा-राजन् ! सम्यक्त्वरूप पवित्र भूषणसे विभूषित श्री वीर जिनेन्द्रके उपदेशको सुनो ॥१॥ यदि पूर्व समुद्रमें समिला डाल दी जाय और पश्चिमके समुद्रमें यूप डाल दिया जाय तो यूपके छिद्रका और मिलाका सम्बन्ध जितना दुर्लभ है उतना ही दुर्लभ आत्मा और मानव पर्यायका सम्बन्ध है ॥२॥ अति गहन इस भव समुद्रमें अनादिकालसे भ्रमण करते हुए जीवोंको मानव जन्मकी प्राप्ति अत्यन्त दुष्कर है । जिस तरह अपार बालूके समुद्रमें गिरे हुए वज्ररत्नका पाना दुर्लभ है ।।३।। हे राजन् ! अनेक जन्ममें उपार्जन किये हुए पापकर्मोंका किसी तरह क्षयोपशम होनेसे और मनुष्य नाम कर्म के उदय आनेसे किसी तरह यह दुष्कर मानव जन्म मिला है। यदि तुम्हें दुःखोंके नाश करनेकी तथा सूखोंके प्राप्त करनेकी अभिलाषा है तो उसे धर्मका सेवन करके सफल करना चाहिये । क्योंकि किसान लोग धान्यादिकोंकी प्राप्ति होनेसे तब ही सुखी होते हैं जब पहले उनका जलसे सिंचन करते रहते हैं ।।४-५॥ जो सर्वज्ञका कहा हुआ है वही धर्म कहा जाता है। वह देव दोषोंसे रहित होता है । वे दोष क्षुधादि अठारह प्रकारके हैं ॥६॥ क्षुधा, पिपासा, भय, द्वेष, मोह, राग, स्मृति, वृद्धावस्था, रोग, मृत्यु, पसेव, खेद, मद, निद्रा, प्रीति, जन्म, विषाद और आश्चर्य इस प्रकार ये अठारह दोष हैं । जो इन दोषोंसे अछूता होगा वही संसारका उपकारी आप्त (देव) कहलानेका भाजन कहा जा सकता है । और उसे ही निरंजन कहना चाहिए ॥७-८॥ उक्त स्वरूपवाले निर्दोष देवको आप्त कहो, वोतराग कहो, केवली कहो, जिन श्रेष्ठ कहो, अथवा 'देवोंका देव कहो, चाहे जगन्नाथ कहो, चाहे वृषभ, अजित, संभव आदि नामसे स्मरण करो। क्योंकि ये सब उसीके पर्यायवाची नाम हैं ॥९॥ जब परमेश्वरमें दोषोंका लेश भी नहीं है तो वह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org