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धर्मसंग्रह प्रावकाचार आप्तेन विशदो धर्मः परोपकृतये सताम् । गम्भीरध्वनिनाऽभाषि वर्णमुक्तेन निःस्पृहम् ॥२२ अनागारश्च सागारो मूलोत्तरगुणैर्युतः। अनागारो मुनेधर्मस्तावदास्तां परं शृणु ॥२३ भव्यपर्याप्तिवान्संज्ञो लब्धकालादिलब्धिकः । सद्धर्मग्रहणे सोर्हो नान्यो जीवः कदाचन ॥२४ आसन्नभव्यता कर्महानिः संशित्वशुद्धिभाक् । देशनाखस्तमिथ्यात्वो जीवः सम्यक्त्वमश्नुते ॥२५ दृष्टिवतसामायिकप्रोषधसचित्तरात्रिभुक्तपाख्याः। ब्रह्मारंभपरिग्रहमनुमतिरुद्दिष्ट इति धर्मः ॥२६ वर्शनेन समं मूलगुणाष्टकं व्रतवजम् । सामायिकं प्रोषधं च सचित्ताहारवर्जनम् ॥२७ दिवामैथुननायंगारंगसंगेभ्य उज्ानम् । अनुमतोद्दष्टाम्यां च प्राप्तास्ते प्राग्गुणप्रौढया ॥२८ आतात्परो न देवोऽस्ति धर्मात्तद्धाषितान्न हि । निर्ग्रन्थाद्गुरुरन्यो न सम्यक्त्वमिति रोचनम् ॥२९ जोवाऽजीवात्र वा बन्धः संवरो निर्जरा तथा । मोक्षश्च सप्त तत्त्वानि श्रद्धोयन्तेर्हदाज्ञया ॥३०
बाहर शरीर मात्रसे यह वात जानी जा सकती है कि ये देवता शान्त स्वरूप हैं या नहीं? जो देवता बाहर शस्त्रादि रहित होंगे वे स्वयं शान्त स्वरूप होंगे। शस्त्र, अलंकार, वस्त्रादिकोंकी उनके लिये आवश्यकता हो क्या है ? ये तो जिन लोगोंको किसीसे भय होता है अथवा जिनका संसारके साथ सम्बन्ध है उन्होंके पास देखे जाते हैं । परमात्मामें तो इनका अंश मात्र भी सम्भव नहीं है क्योंकि उनका स्वरूप कृतकृत्य कहा जाता है। यह बात ठीक भी है कि जब धूमका अभाव है तो वृक्षके कोटरमें अग्निका भी सम्भव नहीं होता ॥२१॥
उपर्युक्त स्वरूप वाले आप्तने अपनी गम्भीर वर्णमुक्त ( निरक्षरी ) वाणीसे निर्मल और जीवोंके कल्याणके करनेवाले धर्मका स्वरूप वर्णन किया है। इससे उस परमात्माको कुछ प्रयोजन नहीं है किन्तु केवल भव्यपुरुषोंके उपकारके लिए किया है ।।२२।। मूल गुण और उत्तर गुणसे युक्त मुनि धर्म तथा गृहस्थ धर्म है। ये धर्मके दो भेद हैं। अनगार ( मुनि धर्म ) तो इस समय रहे किन्तु गृहस्थ धर्मका हम वर्णन करते हैं उसे सुनो ॥२३॥ धर्मके ग्रहण करनेके योग्य वही जीव हो सकता है जो भव्य, पर्याप्तिवान्, संज्ञी और जिसे कालादि लब्धियां प्राप्त हो गई हैं। इनसे रहित जीव धर्मके ग्रहण योग्य कभी नहीं हो सकता ॥२४॥ निकट भव्यता, कर्महानि, संज्ञित्व और शुद्धि और जिसका उपदेशादिसे मिथ्यात्वका नाश हो गया है वही जीव सम्यक्त्वको प्राप्त करता है ।।२५।। दर्शन प्रतिमा, व्रत प्रतिमा, सामायिक प्रतिमा, प्रोषधोपवास प्रतिमा, सचित्त त्याग प्रतिमा, रात्रिभुक्ति त्याग प्रतिमा, ब्रह्मचर्य प्रतिमा, आरम्भ त्याग प्रतिमा, परिग्रह त्याग प्रतिमा, अनुमति त्याग प्रतिमा और उद्दिष्ट व्रत प्रतिमा, इस तरह ये ग्यारह प्रतिमायें गृहस्थोंका धम है ॥२६॥ सम्यग्दर्शनके साथ आठ मूल गुणोंका धारण करना, बारह व्रतोंका पालना, सामायिक, प्रोषध, सचित्त आहारका त्याग, दिनमें मैथुनका त्याग, स्त्रियोंके शरीरका त्याग, आरम्भका त्याग, तथा परिग्रहका त्याग, अनुमति त्याग और उद्दिष्ट त्याग, ये क्रमसे उत्तरोत्तर एक एक करके धारण की जाती हैं। ये प्रकारान्तरसे ग्यारह प्रतिमाओंके नाम कहे हैं ॥२७-२८। जिस देवका ऊपर यथार्थ लक्षण कहा गया है उससे अन्य तो कोई देव नहीं है। इन्हीं आप्तसे कहे हुए धर्मको छोड़कर और दूसरा धर्म जीवोंके कल्याणका करनेवाला नहीं है। और सर्व तरहके परिग्रहसे रहित गुरुओंको छोड़कर कोई गुरु नहीं है। इन तीनोंके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं ॥२९॥ जिसप्रकार श्री अर्हन्त भगवान्ने जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सप्त तत्त्वोंका वर्णन किया है उसी तरह उनका श्रद्धान करना चाहिये ॥३०॥ जिन भगवान्की आज्ञाके
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