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धर्मसंग्रह. श्रावकाचार
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इहाऽमुत्रेति तन्मत्वा दुःखदं यस्त्यजेत्रिधा । सत्सम्बन्धमकुर्वाणः स स्यान्मद्यव्रती जनः ॥३२ वीभत्सु प्राणिघातोत्थं कृमिमूत्रमलाविलम् । स्प्रष्टुं द्रष्टुं सतां नाहं तन्मांसं भक्ष्यते कथम् ॥३३ पाषाणाज्जायते नैवं न काष्ठान्न मृदादितः । पशुधातोद्भवं सद्भिस्तन्मांसं कथमश्यते ॥३४ यस्याऽहं मांसमदम्यत्र प्रेत्य मां स समत्स्यति । एतां मांसस्य नियुक्तिमाहुः सूरिमतल्लिकाः ॥३५ फलसस्यादिवद्भक्ष्यं मांसं नो दोषवद्वदेत् । कश्चिदेवं तमाहार्यो नेत्थं भेदं निशामय ॥३६ द्विधा जोवा विनिर्दिष्टा जङ्गमस्थावरा बुधैः । जङ्गमेष्वस्ति मांसत्वं फलत्वमितरेषु च ॥३७ यद्यमांसमिह प्रोक्तं स स जीवोऽस्त्यसंशयम् । यो यो जीवो न तत्तद्धि मांस सर्व इति श्रुतम् ॥३८ यद्वत्पितास्ति गोधोऽत्र स सर्व: पितृको न हि । आम्रवृक्षोऽस्ति वृक्षो न सर्वोऽप्याम्रमयः किल ॥३९ पेश्यां मांसस्य पक्कायामपक्वायां निगोतजाः । उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते सद्यः सम्मूच्छिनो नराः ॥४० उत्पत्तिस्थानसाम्यत्वाद्भक्ष्यं मांसं तु दुग्धवत् । यो वक्तोत्थं संसोध्य एभिर्वाक्यजिनोदितैः ॥४१
पुरुष चित्तकी भ्रान्तिसे किन-किन अनर्थोंको नहीं करते हैं ? अर्थात् सभो अनर्थोंको करते हैं ॥३१॥ इस तरह मद्यको दोनों लोकोंमें दुःखका देनेवाला समझ कर जो मद्यको छोड़ते हैं अथवा मन, वचन और कायसे मद्यका सम्बन्ध तक भी नहीं होने देते हैं वे हो मद्य व्रती (मदिराके छोड़ने वाले) कहे जाते हैं ॥३२॥ जिसके देखने मात्रसे।आत्मामें ग्लानि पैदा होती है, जो जीवोंके मारनेके बिना उत्पन्न ही नहीं होता तथा कीड़े, मूत, पुरीष (विष्टा) इत्यादि महा अपवित्र पदार्थोंसे युक्त होता है, जिसे सज्जन पुरुष देखना तक अच्छा नहीं समझते उसका स्पर्श तो दूर रहे, वही मांस खानेके योग्य कैसे हो सकता है ? दुष्ट लोग उसे भी खा जाते हैं यह बड़े आश्चर्यकी बात है ॥३३।। मांस न तो पाषाणसे उत्पन्न होता है और न काष्ठसे तथा मिट्टी आदिसे पैदा होता है, जिससे वह पवित्र और खानेके योग्य समझा जाय ? किन्तु बिचारे निरपराध जीवोंके वध करनेसे होता है। इसलिये सज्जन पुरुष उसके भक्षण करनेको कैसे उत्तम समझ सकते हैं ॥३४॥ इस लोकमें जिन जीवोंका मैं मांस खाता हूँ पर लोकमें वे भी मेरे मांसको खावेंगे, बड़े बड़े महर्षि लोग मांस शब्दकी इस तरह नियुक्ति करते हैं ॥३५।। कदाचित् कोई मांसके विषयमें यों कहने लगे कि फल तथा धान्य वगैरह जिस तरह खानेके योग्य है उसी तरह मांस भी खानेके योग्य है । उसमें किसी तरहका दोष नहीं। ऐसे लोगोंके प्रति बुद्धिमान् पुरुषोंको उत्तर देना चाहिये कि यह कहना तुम्हारा ठीक नहीं है उसे सुनो ॥३६॥ बुद्धिमान् लोगोंका कहना है कि जंगम (चलने फिरने वाले)
और स्थावर इस तरह जीवोंके दो भेद हैं। उनमें जंगम जीवोंका मांस होता है और स्थावरोंमें फल होते हैं ॥३७|| इस संसारमें जो मांस कहा जाता है वह निश्चयसे जीव है और जो जीव है वह मांस नहीं है । ऐसा सर्व जगह सुना जाता है ॥३८॥ जिस तरह पिता गोत्र हो सकता है परन्तु गोत्र मात्र पिता नहीं हो सकता। उसी तरह आम्रके वृक्षको तो वृक्ष कह सकते हैं परन्तु वृक्ष मात्रको आम्र वृक्ष नहीं कह सकते। इसी तरह मांसको जीव कह सकते हैं परन्तु जीव मात्रको मांस नहीं कह सकते। यही कारण है कि स्थावर यद्यपि जीव कहे जाते हैं परन्तु उनमें मांसका व्यवहार नहीं होता ॥३९॥ मांस पिंड चाहे पका हुआ हो अथवा अपका, उसमें निरन्तर निगोदिये जीव तथा सम्मूर्छन (अपने आप पैदा होने वाले) जीव उत्पन्न होते हैं और मृत्युको प्राप्त होते रहते हैं। इससे मांस सत्पुरुषोंके खाने योग्य नहीं है ।।४०|| कदाचित् मांसके सम्बन्ध में कोई यों कहने लगे कि जिस तरह दुग्ध जीवसे उत्पन्न होता है उसी तरह मांसकी भी उत्पत्ति है। ऐसे
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