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श्रावकाचार-संग्रह
तपोधनसमीपे यद्गृहीतं तद्व्रतं मया । प्राणान्तेऽपि न तत्त्याज्यं त्यागे पुरुषता कुतः ॥६२ श्रुत्वेति तैः कृतो मन्त्रः कथमप्यस्य सौ पलम् । विना मित्रोपदेशेन किं भक्षति कृतव्रतः ॥६३ तदा तत्स्वसृनाथाय श्रीसौरपुरवासिने । सूरवीराय तैर्लेखोऽदाय्यैतव्यं लघु त्वया ॥ ६४ लेखनदर्शनमात्रेण स चचाल निजात्पुरात् । पयायान्दृष्टवान्यक्षों रुदन्तों वटपादपे ॥६५ तेन पृष्टा तदा का त्वं कथं रोदिषि सुन्दरि । अहं यक्षी स ते श्यालो भर्त्ता मे भविता व्रतात् ॥६६ गत्वाऽघुना तकं मांसं भोजयित्वा नयिष्यसि । नरकं रोदिमीत्येवं श्रुत्वेति निजगाद सः ॥६७ श्रद्धेहि यक्षि ! नो तस्य भोजयामीति मे वचः ।
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तामाश्वास्य क्रमेणाऽयाद भिल्लपल्लों च तद्गृहम् ॥६८
प्रियश्लायक ! काकस्य मांसं भुङ्क्ष्वाऽऽमयापहम् । तत्परीक्षार्थमेतत्स उक्तवान् तं वचो मुहुः ॥ ६९ ॥ उवाच तं गदी मे त्वं सुहृत्प्राणसमोऽसमः । निन्द्यवाक्यन्तु वा वक्तुं युक्तं स्यादिति किं तव ॥७० ज्ञात्वा दृढतरं मार्गवृत्तान्तं स तदाऽऽह तम् । श्रुत्वा जग्राह सर्व स श्रावकव्रतमुत्तमम् ॥७१ जीवितान्ते स सौधर्मे देवोऽभूत्सुरसत्तमः । व्रतप्रभावतः किं किं प्राणिनां नोपजायते ॥७२ सूरवीरः क्रियाप्रान्ते परलोकस्य तस्य तु । व्याघुटन्तेन मार्गेण तद्यक्षीमूचिषामिति ॥७३
उसे प्राणोंके चले जानेपर भी नहीं छोडूंगा । अरे, ग्रहण किये व्रतको छोड़ देने में क्या पुरुषत्व कहा जा सकता है ? || ६२|| घर वालोंने समझा कि यह किसी तरह काकका मांस नहीं खायगा, इसलिये उन्होंने विचार किया कि यह किसी मित्रके कहे विना काकका मांस नहीं खायगा. इसलिये इसके मित्रको बुलाना चाहिये || ६३ | | उस समय घरवालोंने श्रीसौरपुरके रहनेवाले उसकी बहनके पति सूरवीरके बुलाने के लिये पत्र भेजा और उसमें लिखा कि तुम जल्दी आओ || ६४ || सूरवीर भी पत्रके देखने मात्र से अपने नगरसे चला । मार्ग में आते समय उसने किसी वट वृक्षके नीचे किसी यक्षीको रोती हुई देखा || ६५ || उसने उस रोती हुई यक्षीसे पूछा कि हे सुन्दरि ! तू कौन है और यहां क्यों रोती है ? सूरवीरके वचनों को सुनकर यक्षी बोली कि मैं तो यक्षी हूँ और वह तुम्हारा साला खदिर व्रतके प्रभाव से मेरा स्वामी होगा || ६६ || तुम वहाँ जाकर और उसे काकका मांस खिला दोगे तो उसके व्रतभंग के पापसे वह नरक चला जायगा फिर मेरा पति नहीं होने पावेगा । इसलिये रोती हूँ । इस प्रकार उस यक्षीके वचनको सुनकर सूरवीरने कहा ||६७|| हे यक्षि ! तुम हमारे वचनों पर विश्वास करो, मैं कभी उसे काकका मांस नहीं खिलाऊँगा । इस तरह उस यक्षीको विश्वास दिलाकर वह सूरवीर क्रमसे उस भीलके ग्राममें जाकर उसके घर पर पहुँचा || ६८ ॥ हे प्रियश्याल ! अनेक तरहके रोगोंको दूर करनेवाले काकके मांसको क्यों नहीं खाते हो ? तुम्हें अवश्य खाना चाहिये । इसके बाद सूरवीरने फिर उसकी परीक्षा करने के लिए बराबर काक के मांसको खानेके लिये आग्रह किया || ६९ || इस तरह सूरवीरके वचनोंको सुनकर वह भील बोलातुम मेरे प्राणोंके समान अत्यन्त प्रिय मित्र हो, तुम्हें ऐसे निन्द्य वचन कहना क्या योग्य है ? || ७० ॥
जब सूरवीरने समझा कि यह अपने धारण किये हुए व्रतसे कभी च्युत नहीं होगा तो मार्ग में यक्षी सम्बन्धी जो वृत्तान्त बीता था उसे कह सुनाया । उस वृत्तान्तको सुनकर भीलको और दृढ़ श्रद्धान हो गया । उसीसे उसने शेष सब श्रावकके व्रतको ग्रहण कर लिये ॥ ७१ ॥ मरणके अन्तमें वह भील सोघमं स्वर्ग में उत्तम देव हुआ । इस संसारमें और कौन ऐसा पदार्थ है जो व्रतके प्रभावसे प्राप्त नहीं होता है || ७२ ॥ | वह सूरवीर भी अपने साले की पारलौकिक सम्बन्धी
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