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श्रावकाचार-संग्रह
सम्यक्त्वं समलं चेत्स्थाम्न तदा कर्मशान्तये । सामर्थ्यानि रोगाणां सवमिवाङ्गिनाम् ॥५४ दोषा शङ्कादयो ध्वस्तास्तदङ्गानि भवन्ति ते । विषश्चेन्मारित उच्चा त किन सुधायते ॥५५ स्तनो राजगृहे जातो निःशङ्कोऽञ्जनसंज्ञकः । निःकांक्षाऽनन्तमत्याख्या च
राजा निर्विचिकित्सोऽभूदुद्दायनोऽत्र रोरवे । अमूढदृष्टिका राज्ञो रेवती मथुरापु णिजः सुतः ॥५६ जिनदत्तस्ताम्रलिप्ते श्रेष्ठयभूत्सोपगूहनः । सस्थितीकरणो वारिषेणो राजगृहे मतः ॥१ हस्तिनानगरे चक्रे वात्सल्यं विष्णुना हितम् । कृता वज्रकुमारेण मथुरायां प्रभावना ॥५९ दर्शनं नाङ्गहीनं स्यादलं छेत्तं भवावलिम् । मात्राहोनस्तु कि मंत्रो विषमूच्छ निरस्यति ॥ ६० सम्यक्त्वसममात्मीनं किमन्यद्भुवनोदरे । न मिथ्यात्वसमं किचिदनात्मीनमिहात्मनाम् ॥६१ श्वाभ्रत्वेऽपि नरायन्ते सम्यक्त्वेन हि मण्डिताः । सुरत्वे नरकायन्ते मिथ्यात्वेन च दण्डिताः ॥६२ तिर्यक्त्वेऽपि नरायन्ते सम्यक्त्वेन समायुताः । नृत्वेऽपि तिर्यगायन्ते मिथ्यात्वेन हि वासिताः ॥ ६३ मुहूतं येन सम्यक्त्वं संप्राप्य पुनरुज्झितम् । भ्रान्त्वाऽपि दीर्घकालेन स सेत्स्यति मरीचिवत् ॥६४
रोगोंके दूर करने में समर्थ होती है उसी तरह दुर्निवार कर्म रूप रोगोंके शान्त करने के लिए दोष रहित सम्यक्त्व जैसा उपकारक है वैसा दूसरा कोई हितकारी उपाय नहीं है ||५४ || ऊपर कहे हुए शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़ दृष्टि, अनुपगूहन, अस्थितीकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना इन दोषोंके नाश कर देनेसे ये ही सम्यक्त्वके आठ गुण हो जाते हैं । यह बात ठीक भी है कि जो विष प्राणोंका क्षण मात्रमें नाश कर देता है वही विष यदि शुद्ध किया हुआ हो तो अमृतके समान हो जाता है और अनेक प्रकारके रोगोंको दूर कर देता है ॥५५॥ अब क्रमसे आठों अङ्गोंमें प्रसिद्ध होने वालोंके नाम कहते हैं । राजगृह नगरमें अंजन चौरने निःशङ्क अङ्गका पालन किया था । किसी वैश्य श्रेष्ठीको अनन्तमती बालिकाने चम्पापुरीमें निःकांक्षित अङ्गका पालन किया था । रोरव देशमें उद्दायन राजाने निर्विचिकित्सा अङ्गको धारण किया था । रेवती नामकी रानीने मथुरा में अमूढदृष्टि अंगका यथोक्त पालन किया था । उपगूहन अंग में श्रीजिनदत्त सेठ प्रसिद्ध हुए हैं। स्थितीकरण अंगके पालन करनेवाले श्रीवारिषेण मुनि राजगृह नगरमें प्रसिद्ध हुए हैं । हस्तिनापुर में श्रीविष्णुकुमार मुनिने वात्सल्य अंगका पालन किया है । और प्रभावना अंग में श्रीवज्रकुमार मथुरा नगरीमें प्रसिद्ध हुए हैं । इस कहनेका यह तात्पर्य समझना चाहिये कि यद्यपि ये पुरुष रत्न प्राचीन कालमें हुए हैं तथापि केवल एक एक अंगके धारण करनेसे आज तक उनका यशोगान होता चला आता है । इसी तरह जो भव्य जीव शुद्ध सम्यक्त्व सहित इन अंगोंको धारण करेंगे वे भी इसी प्रकार संसारमें प्रसिद्ध होंगे ।।५६-५९ ।। जिस तरह अक्षर अथवा मात्रासे होन मंत्र विषसे उत्पन्न होने वाली मूर्छा को दूर नहीं कर सकता, उसी तरह अंगहीन सम्यग्दर्शन भी इस अपार भवावलोके नाश करनेको समर्थ नहीं हो सकता ॥ ६०|| इस जीवका तीनों लोकमें सम्यक्त्वके समान कोई आत्मबन्धु नहीं है और मिथ्यात्वके समान दूसरा दुःखोंका देनेवाला शत्रु नहीं है । इसलिये मिथ्यात्व का त्याग करके सम्यक्त्वको अंगीकार करो । यही आत्माको कुमार्ग से बचाने वाला है || ६१|| यदि यह जीव नरकमें भी गया हो और वहाँ सम्यक्त्वसे भूषित हो तो समझना चाहिये कि वह देव ही है । और यदि सम्यक्त्व-रहित देव भी हुआ हो तो समझना चाहिये वह नरक ही में गया है ||६२|| पशु होकर भी यदि सम्यक्त्व युक्त है तो वह मनुष्य ही है और मनुष्य होकर यदि मिथ्यात्वसे युक्त है तो उसे पशु कहना चाहिये || ६३ || जो पुरुष एक मुहूर्त
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