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धर्मसंग्रह श्रावकाचार निसर्गात्तद्भवेज्जन्तोः स्वयं तीर्थकृतादिवत् । तच्चाधिगमतोऽन्येषां कृष्णादीनां निमित्ततः ॥६५ मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वं प्राक्कषायचतुष्टयम् । तेषामुपशमाज्जातं तदोपशमिकं मतम् ॥६६ षण्णामनुदयादेकसम्यक्त्वस्योदयाच्च यत् । क्षायोपशमिकं नाम सम्यक्त्वं तन्निगद्यते ॥६७ सप्तानां प्रकृतीनां तत्क्षयात्क्षायिकमुच्यते । आदौ केवलिमूले स्यानत्वे तदनुसर्वतः ॥६८ चञ्चलं निर्मलं गाढं शान्तमोहान्तमादिमम् । सप्तमान्तं चलागाढं समलं वेदकं मतम् ॥६९ क्षायिकं निर्मलं गाढमचलं स्यादनन्तकम् । चतुर्थ गुणमारभ्य दर्शनानीह त्रीण्यपि ॥७० सम्यक्त्वसंयुतो जीवो मृत्वा देवति व्रजेत् । बद्धायुष्कस्त्वतः कश्चिच्छुभं भोगभुवं परः ॥७१ असंज्ञो स्थावराः पञ्च पर्याप्तेतरभेदतः । तिस्रः स्त्रियस्त्रयो देवा. षट्श्वभ्राण्येषु नैति सः ॥७२ द्वे सम्यक्त्वेऽसंख्यातान्वारानगृह्णाति मुञ्चति । भवे भ्रमन्नयं जोवः क्षायिकं तु न मुञ्चति ॥७३ - क्षायिको तद्भवे सिघ्येत्कश्चित्कश्चित्तृतीयके । नपश्वोः पतितायुष्कः कश्चित्तुर्ये न संशयः ॥७४
मात्रभ
पक्षपारे प्राप्त होकर फिर उसे छोड़ देते हैं वे बहत काल पर्यन्त संसारमें भ्रमण करनक बाद भी मरोचिके समान मक्तिको प्राप्त होते हैं॥६४|| उस सम्यक्त्वक निसगज ( स्वतः स्वभावसे होने वाला ) और अधिगमण ( दसरोंके निमित्तसे होने वाला ) इस तरह दो भेद है। निसर्गज सम्यग्दर्शन जिस तरह तीपंकरादिकोंक होना है उसी तरह संसारी जीवोंके भी होता है और कृष्ण आदिके समान अधिगमसे होने वाला सम्यग्दर जातिस्मरण. जिनबिम्बके दर्शनादिसे होता है ॥६५॥ मिथ्यात्व, सम्यक्त्वमिथ्यात्व, और सम्यक्त्व तथा जातानुबन्धि क्रोध, मान, माया, और लोभ इन सातों प्रकृतिके उपशम होनेसे उपशम सम्यक्त्व होता है ।।१६।। मिथ्यात्व, सम्यक्त्वमिथ्यात्व, तथा अनन्तानुबन्धि क्रोध, मान, माया, लोभ, इन छह प्रकृतियोंका उदय न होनेसे और सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होनेसे होनेवाले सम्यक्त्वको क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं ॥६७।। ऊपर कही हुई सातों प्रकृतियोंके क्षयसे क्षायिक सम्यक्त्व होता है। क्षायिक सम्यक्त्व जब होता है तब तो वह श्रीकेवली भगवान्के समीपमें और मनुष्य पर्यायके होने पर ही होता है । और होनेके बाद दूसरी गतियोंमें भी साथ रहता है ॥६८॥ उपशम सम्यक्त्व चञ्चल, निर्मल, गाढ़, तथा उपशान्त मोह गुणस्थान पर्यन्त रहता है। और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व सप्तमगुणस्थान पर्यन्त होता है तथा चलायमान, अगाढ़ और मल-सहित होता है। इसीका दूसरा नाम वेदक भी है ॥६९॥ क्षायिक सम्यक्त्व निर्मल, गाढ, अचल, और अनंत होता है। इन तीनों सम्यक्त्वका चतुर्थ गुणस्थानसे आरंभ होता है॥७०॥ सम्यग्दृष्टि जीव नियमसे देवगतिमें जाता है। परन्तु यदि पहले आयुका बन्ध हो गया हो तो कोई नरकमें अथवा भोगभूमिमें जाता है ॥७१॥ सम्यक्त्वसे जो जीव विभूषित होता है उसे असंज्ञी पाँच प्रकारके स्थावर, अपर्याप्त, स्त्रोपर्याय, तीन प्रकारकी देव पर्याय और छह नरक इतनी गतियों में जन्म धारण नहीं करना पड़ता है ॥७२॥ इस संसारमें भ्रमण करते हुए इस जीवने उपशम सम्यक्त्व और क्षयोपशम सम्यक्त्वको असंख्यात वार ग्रहण किये और छोड़े हैं। अर्थात् ये दोनों सम्यक्त्व होकर भी छूट जाते हैं और क्षायिक सम्यक्त्व हुए बाद नहीं छूटता है । अर्थात् मोक्षमें भी बना रहता है ॥७३॥ जिसे क्षायिक सम्यक्त्व हो गया है वह उसी भवमें अथवा तृतीय भवमें नियमसे मोक्षमें जाता है। परन्तु यदि मनुष्य और पशु पर्यायमें जिसकी आयुका बन्ध हो गया है तो वह चौथे भवमें नियमसे मोक्षमें जायगा । इसमें किसी तरहका सन्देह नहीं समझना चाहिये ॥७४॥ जिन भगवानके कहे हुए तत्त्वोंमें संशयका करना,
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