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सामारवर्मामृत श्रद्धा स्वात्मैव शुद्धः प्रमदवपुरुपादेय इत्याञ्जसी हक, तस्यैव स्वानुभूत्या पृथगनुभवनं विग्रहादेश्च संवित् । तत्रैवात्यन्ततृप्त्या मनसि लयमितेऽवस्थितिः स्वस्य चर्या, स्वात्मानं भेदरत्न-त्रयपर परमं तन्मयं विद्धि शुद्धम् ॥१०७ मुहुरिच्छामणुशोऽपि प्रणिहत्य श्रुतपरः परद्रव्ये।
स्वात्मनि यदि निर्विघ्नं प्रतपसि तपसि ध्र वं तपसि ॥१०८ नैराश्यारब्धनःसङ्गयसिद्धसाम्यपरिग्रहः । निरुपाधिसमाधिस्थ ः पिबानन्दसुधारसम् ॥१०९
संलिख्येति वपुः कषायवदलङ्कर्मोणनिर्यापकन्यस्तात्मा श्रमणस्तदेव कलयल्लिङ्गं तदीयं परः। सद्रत्नत्रयभावनापरिणतः प्राणान् शिवाशाधर
स्त्यक्त्वा पञ्चनमस्क्रियास्मृति शिवी स्यादष्टजन्मान्तरे ॥११० शरीरको छोड़, सङ्क्लेशावेशसे शरीरका परित्याग करनेपर सांसारिक विशाल दुःखोंसे अपने आत्माको आकुलित करेगा । भावाथ-भो क्षपक ! तूं भी उन शिवभूति आदिक मुमुक्षुओंके समान अपने शुद्ध आत्मामें उपयुक्त होकर परीषह और उपसर्गोको जीतके शरीरका परित्याग कर मोक्षका साधन कर। यदि इस समय तूने अपने परिणामोंमें संक्लेशको स्थान दिया तो तुझे संसारके प्रचुर दुःखोंसे दुखी होना पड़ेगा ॥१०६।। हे भेदरत्नत्रयमें तत्पर आराधकराज, आनन्दमय द्रव्य
और भाव कर्मोंसे रहित केवल निज आत्मा ही उपादेय है इस प्रकार शद्धात्मरूप अभिनिवेश निश्चय सम्यग्दर्शन कहलाता है । स्वानुभूतिके द्वारा त्रियोगसे उस शुद्ध स्वात्माका पृथक् चिन्तवन करना परमार्थ सम्यग्ज्ञान कहलाता है तथा उस शुद्ध निजस्वरूपमें अतिशय वेतृष्ण्यभावसे मनके तन्मयीभावको प्राप्त होने पर आत्माका अवस्थान करना निश्चय सम्यक्चारित्र कहलाता है। अतएव तूं अतिशय शुद्ध अपने आत्माको सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमय समझ । भावार्थ-हे क्षपकराज ! आनन्दमय शुद्ध आत्मा ही उपादेय है इस प्रकार परमार्थ श्रद्धा निश्चयसम्यक्त्व है । शुद्ध आत्माका त्रियोगसे पृथक् चिन्तवन करना निश्चय सम्यग्ज्ञान है और आत्मामें अतिशय तृप्तिपूर्वक लीन होना निश्चय सम्यक्चारित्र है। इसलिये तूं अपने आत्माको निश्चय सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमय समझ ।।१०७॥ हे क्षपक, वार वार श्रुतज्ञानकी भावनामें तत्पर होता हुआ तूं परद्रव्यमें अणु बराबर थोड़ी भी इच्छाको नाश करके यदि निर्विघ्न रूपसे अपने आत्मामें देदीप्यमान होगा तो अवश्य ही तप आराधनाके विषयमें स्फुरायमान होगा ॥१०८|| भो क्षपक! परद्रव्यको आशाके परित्यागसे आरब्ध बहिरंग अन्तरंग परिग्रहके त्यागसे सिद्ध परमेष्ठीके समान और ध्यान, ध्याता और ध्येयके विकल्पसे रहित निर्विकल्प समाधिमें लीन होता हआ तूं आनन्दरूपी सुधारसका पान कर। भावार्थ है क्षपकराज, अब तुम जीवन और धनादिककी आकांक्षाओंके त्यागसे प्रारब्ध अपरिग्रहपनेसे सिद्ध के समान और ध्यान, ध्याता तथा ध्येयके विकल्पसे रहित निर्विकल्प समाधिमें स्थिर होकर चिदानन्दमय सुधारसके पानकर्ता होओ ॥१०९।। मोक्षाभिलाषी क्षपक मुनि निश्चयमयसे संसारसमुद्रसे पार उतारने में समर्थ और शुद्ध स्वात्मानुभूतिरूप परिणाममें संमुख अपने आत्माके प्रति अर्पण किया है अपने आत्माको जिसने अर्थात् स्वयं निर्यापकाचार्यरूप तथा व्यवहारनयसेसंसारसमुद्रसे पार उतारनेमें समर्थ निर्यापकाचार्यके लिये सौंप दिया है अपना आत्मा जिसने ऐसा होता हुआ पूर्वोक्त प्रकारसे कषायके समान शरीरको कृश करके उस पूर्वगृहीत औत्सर्गिक मुनिलिंग
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