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सागारधर्मामृत
भो निर्जिताक्ष ! विज्ञात-परमार्थं ! महायशः । किमद्य प्रतिभ्रान्तीमे पुद्गलाः स्वहितास्तव ॥४८ fe कोऽपि पुद्गलः सोऽस्ति यो भुक्त्वा नोज्झितस्त्वया । न चैष मूर्तोऽमूर्तेस्ते कथमप्युपयुज्यते ॥४९ केवलं करणैरेनमलं ह्यनुभवन्भवान् । स्वभावमेवेष्टमिदं भुञ्जेऽहमिति मन्यते ॥५० तदिदानीमिमां भ्रान्तिमभ्याजोन्मिषतीं हृदि । स एष समयो यत्र जाग्रति स्वहिते बुधाः ॥५१ अन्योऽहं पुद्गलश्चान्यः इत्येकान्तेन चिन्तय । येनापास्य परद्रव्यग्रहवेशं स्वमाविशेः ॥५२ क्वापि चेत्पुद्गले सक्तो म्रियेथास्तद् ध्रुवं चरेः । तं कृमीभूय सुस्वादुचिर्भटिकासक्तभिक्षुवत् ॥५३ किञ्चाङ्गस्योपकार्यन्नं न चैतत्तत्प्रतीच्छति । तच्छिन्धि तृष्णां भिन्धि त्वं देहाद्रुन्धि दुरास्रवम् ॥५४ इत्थं पथ्यप्रथासारैवितृष्णीकृत्य तं क्रमात् । त्याजयित्वाऽशनं सूरिः स्निग्धपानं विवर्धयेत् ॥५५
भोजनको दिखाकर क्षपकके प्रिय भोजनको जिमावे और अज्ञानसे उस इष्ट भोजनमें आसक्त होने वाले क्षपकको बोधप्रद कथानकों द्वारा व्यावृत्त करे । भावार्थ - निर्यापकाचार्य क्षपकको योग्य और नानाप्रकारके आहार दिखा कर उसके इच्छित पदार्थ उसे खिलावे । कोई विवेकी क्षपक तो उन भोज्य पदार्थोंको देखकर इस प्रकार वैराग्य और संवेग भावना भाता है कि में भवसमुद्रके किनारे आ चुका हूँ। अब मुझे इन भोज्योंसे क्या प्रयोजन है । कोई क्षपक उन इष्ट भोज्य पदार्थोंमें से कुछको ग्रहण कर शेषका परित्याग कर देता है । और कोई क्षपक उनका आस्वादन करके आसक्त भी हो जाता है । क्योंकि मोहकी लीला विचित्र है । इसलिये निर्यापकाचार्य इष्ट भोजनमें तत्त्वज्ञानके अभावसे आसक्ति रखने वाले क्षपकको समाधिपूर्वक मरने वालोंके बोधप्रद आख्यानों द्वारा विरक्त करे ||४७|| हे जितेन्द्रिय, परमार्थ तत्त्वके जानकार, यशस्विन् क्षपक, ये भोजन-शयनआसन आदिक पुद्गल तुझे आज क्या आत्माके उपकारक मालूम होते हैं || ४८|| वह कोई भी पुद्गल है क्या ? जो तूने भोग कर नहीं छोड़ दिया है, यह मूर्तिक पुद्गल अमूर्तिक तेरे किसी भी प्रकार उपयोगी नहीं है । भावार्थ - अनादिकाल से संसारमें बसने वाले जीवके ऐसा कोई भी पुद्गल बाकी नहीं है जिसको जीवने इन्द्रियों द्वारा भोग कर छोड़ नहीं दिया हो । अतएव हे क्षपक, तुझे इन पुद्गलोंमें आसक्ति नहीं करना चाहिये । क्योंकि तू अमूर्तिक है और पुद्गल मूर्तिक । इसलिये आत्मासे सर्वथा भिन्नस्वभाव पुद्गल अमूर्तिक आत्माके लिये किसी भी प्रकारसे उपकारक नहीं हो सकता ||४९|| इन्द्रियोंके द्वारा इस पुद्गलको विषय करके निश्चयसे स्वभावको ही अनुभव करने वाला हूँ इस इष्ट वस्तुको मैं भोग कर रहा हूँ इस प्रकार केवल मानता है, यह तेरा अज्ञान है ॥२०॥ इसलिये इस समय हृदयमें उठती हुई इस अभोग्य पुद्गलमें भोग्यताके भ्रमको छोड़ क्योंकि प्रसिद्ध यह वह समय है जिसमें तत्त्वज्ञानी अपने हितके विषय में सावधान होते हैं || ५१|| मैं भिन्न हूँ और पुद्गल भिन्न हैं, इस प्रकार सर्वथा अटलरूपसे भावना कर जिस भेदज्ञानसे परद्रव्यमें आसक्तिको छोड़ कर अपने आत्मद्रव्य के उपयोग में तत्पर हो सको ॥५२॥ यदि तँ किसी पुद्गलमें आसक्त होता हुआ मरेगा तो निश्चय से स्वादिष्ट कचरिया में आसक्त हुए भिक्षुकके समान उसी पुद्गलका कीड़ा होकर उस पुद्गलको खावेगा । अर्थात् मरकर उसीमें क्रीड़ा रूपसे पैदा हो जायगा ॥ ५३ ॥ तथा अन्न शरीरका उपकारक है और यह शरीर उस अन्नको अपने उपकार रूपसे नहीं चाहता है । इसलिये तू अन्नकी तृष्णाको छोड़ और अपनेको शरीरसे भिन्न समझ । तथा अशुभास्रवको रोक ॥५४॥
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निर्यापकाचार्य पूर्वोक्त प्रकारसे हितोपदेशरूपी धाराप्रवाही मेघ-वृष्टिसे उस क्षपकको तृष्णारहित करके क्रमसे कवलाहारको त्याग कराकर दुग्धादि स्निग्ध पेय पदार्थके आहारको
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