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सागारधर्मामृत
व्याध्याद्यपेक्षयाम्भो वा समाध्यथं विकल्पयेत् । भृशं शक्तिक्षये जह्यात् तदप्यासन्नमृत्युकः ॥६५ तदाखिलो वणिमुखग्राहितक्षमणो गणः । तस्याविघ्नसमाधान-सिद्ध्यै तद्यात्तनुत्सृतिम् ॥६६ ततो निर्यापकाः कर्णे जपं प्रायोपवेशिनः । दद्युः संसारभयदं प्रीणयन्तो वचोऽमृतैः ॥६७ मिथ्यात्वं वम सम्यक्त्वं भजोर्जय जिनादिषु । भक्ति भावनमस्कारे रमस्व ज्ञानमाविश ॥ ६८ महाव्रतानि रक्षोच्चैः कषायाञ्जय यन्त्रय । अक्षाणि पश्य चात्मानमात्मनात्मनि मुक्तये ॥६९ अधोसध्योर्ध्वलोकेषु नाभून्नास्ति न भावि वा । तदुःखं यन्न दीयेत मिध्यात्वेन महारिणा ॥७० सङ्घ श्रीर्भावयन्भूयो मिथ्यात्वं वन्दकाहितम् । धनदत्तसभायां द्राक् स्फुटिताक्षोऽभ्रमद् भवम् ॥७१ अयोध्योर्ध्वलोकेषु नाभून्नास्ति न भावि वा । तत्सुखं यन्न दीयेत सम्यक्त्वेन सुबन्धुना ॥७२
चतुविधाहारको जीवनपर्यन्तके हेतु छोड़ देवे ॥ ६३-६४ ॥ अथवा व्याधि आदिककी अपेक्षासे समाधिकी सिद्धिके लिये जलको गुरुकी सम्मति से ग्रहण करे तथा अत्यन्त शक्तिके क्षीण होनेपर निकट मृत्युवाला होता हुआ क्षपक उस पानी को भी छोड़े । भावार्थ - पैत्तिकव्याधि, ग्रीष्मकाल, मरुस्थलादिकदेश; पित्तप्रकृति आदिक कारणोंसे जो क्षपक परीषहोंके वेगको नहीं सह सकता वह समाधिके लिये गुरुकी आज्ञासे जलमात्रका ग्रहण करे, शेष तीन प्रकारके भोजनोंका सर्वथा त्याग कर देवे । किन्तु जिस समय शक्ति अत्यन्त क्षीण हो जावे तथा मृत्यु अतिशय निकट आ जावे उस समय पानीका भी त्याग अवश्य कर देवे ॥ ६५ ॥ क्षपककी मृत्युका समय उपस्थित होनेपर किसी ब्रह्मचारीके द्वारा बुलाई है क्षपकके प्रति क्षमा जिसने ऐसा समस्त संघ उस क्षपककी निर्विघ्न समाधिकी सिद्धिके लिए कायोत्सर्गको करे ||६६ ||
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इस विधिके बाद समाधिकी सिद्धि करानेंमें तत्पर आचार्य अपने वचनरूपी अमृतसे क्षपकको सन्तुष्ट करते हुए क्षपकके कानमें संसारसे भयोत्पादक उपदेशको देवें ||६७|| हे क्षेपक ! मिथ्यात्वको निकाल दे, सम्यक्त्वको सेवन कर, अरिहन्त आदिकमें भक्तिको बढ़ा, अरिहन्तादिकके गुणानुरागमें रमण चिन्तवन कर, तथा अन्तरंग तत्त्वावबोधमें लवलीन हो || ६८ || हे क्षपक ! मुक्ति के लिये अपने महाव्रतोंको रक्षा कर, कषायोंको भली प्रकार जीत, इन्द्रियोंको वशमें कर, और आत्मामें आत्माके द्वारा आत्माको देख ||६२ || अधोलोक, मध्य-लोक और ऊर्ध्वलोकमें वह दुःख न था न है और न होगा जो दुःख महान् शत्रु मिथ्यात्व के द्वारा नहीं दिया जाता है ॥ ७० ॥ वन्द निमित्तसे प्राप्त मिथ्यात्वको पुनः भाता हुआ धनदत्त राजाका मंत्री संघश्री धनदत्तकी सभामें जल्दी फूट गई हैं आँखें जिसकी ऐसा होता हुआ मरकर संसारमें भटका । भावार्थ - धनदत्त राजाका मंत्री संघश्री पहले सम्यग्दृष्टि था परन्तु उसने धनदत्त राजाकी सभामें वन्दकके निमित्तसे अन्तरंगमें पुनः मिथ्यात्वकी प्राप्ति की । उसके प्रभावसे उसकी आँखें फूटीं और वह संसारचक्रमें भटक गया ||७१|| लोकत्रयमें वह सुख न था न है और न होगा जो सुख सच्चे बन्धु सम्यक्त्वके द्वारा न दिया जाता हो ॥७२॥ हे क्षपक ! देखो केवल एक दर्शनविशुद्धिके प्रभावसे महाराज - श्रेणिक मिथ्यात्वकी अवस्था में बाँधी हुई तेतीस सागरकी उत्कृष्ट आयुकी स्थितिको कम करके रत्नप्रभा पृथिवीकी चौरासी हजार वर्षकी की है जिसने ऐसा होता हुआ आगेके भवमें तीर्थङ्कर होगा ॥७३॥ एक ही जिनदेवमें आन्तरिक अनुराग हो इष्टसिद्धि साधक और पुरुषार्थसि क्या प्रयोजन है जो जिनभक्ति समस्त अभ्युदय घातक विघ्नोंको नष्ट कर मनोरथोंको पूर्ण करती
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