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आठवां अध्याय देहाहारेहितत्यागाद ध्यानशुद्ध्यात्मशोधनम् । जीवितान्ते सुसम्प्रीतः साधयत्येष साधकः ॥१ सामग्रीविधुरस्यैव श्रावकस्यायमिष्यते। विधिः सत्यां तु सामग्र्यां श्रेयसी जिनरूपता ॥२ । किञ्चित्कारणमासाद्य विरक्ताः कामभोगतः । त्यक्त्वा सर्वोपधि धीराः श्रयन्ति जिनरूपताम् ॥३ अनादिमिथ्यागपि श्रित्वाद्रूपतां पुमान् । साम्यं प्रपन्नः स्वं ध्यायन मुच्यतेऽन्तर्मुहूर्ततः ॥४ न धर्मसाधनमिति स्थास्नु नाश्यं वपुर्बुधैः । न च केनापि रक्ष्यमिति शोच्यं विनश्वरम् ॥५ कायः स्वस्थोऽनुवयः स्यात प्रतिकार्यश्च रोगितः। उपकारं विपर्यस्यसत्याज्यः सद्धिः खलो यथा॥ नावश्यं नाशिने हिस्यो धर्मो देहाय कामदः । देहो नष्टः पुनर्लभ्यो धर्मस्त्वत्यन्तदुर्लभः ॥७ न चात्मघातोऽस्ति वृषक्षातौ वपुरुपेक्षितुः । कषायावेशतः प्राणान् विषाद्यैहिसतः स हि ॥८
जो श्रावक आनन्दित होता हुआ जीवनके अन्तमें अर्थात् मृत्युसमय शरीर, भोजन और मन वचन कायके व्यापारके त्यागसे पवित्रध्यानके द्वारा आत्माकी शुद्धिको साधन करता है वह साधक कहा जाता है ॥१॥ यह वक्ष्यमाण सल्लेखनाकी विधि जिनलिङ्गग्रहण करने के अयोग्य श्रावकके ही करने योग्य है किन्तु जिनलिङ्गग्रहण करने योग्य सामग्रीके विद्यमान रहने पर मुनिदीक्षा लेना ही श्रेष्ठ है। भावार्थ-दोनों अण्डकोष और लिंग इन तीनोंसे सम्बन्ध रखने वाले दोषोंसे जो श्रावक युक्त है. वह जिनदीक्षा लेनेका अधिकारी नहीं। ऐसे श्रावकके लिये ही वक्ष्यमाण सल्लेखनाका वर्णन है किन्तु जिसमें जिनरूपग्रहणको योग्यता है उसे तो जिनरूप ही धारण करना चाहिये ॥२।। परीषह और उपसर्गके सहनमें समर्थ श्रावक किसी हेतुको प्राप्त कर काम और भोगसे विरक्त होते हुए समस्त परिग्रहको छोड़ कर जिनलिंगको धारण करते हैं ॥३॥ अनादिमिथ्यादृष्टि भी पुरुष जिनलिंगको धारण करके अपने आत्माको ध्यान करता हुआ अन्तमुहूर्तमें मुक्त हो जाता है ॥४॥ स्थायी शरीर रत्नत्रयस्वरूप धर्मकी सिद्धिका उपाय है इस कारण तत्त्वज्ञ पुरुषोंके द्वारा नष्ट नहीं किया जाना चाहिये तथा मरणासन्न शरीर देवेन्द्र आदि किसीके द्वारा भी नहीं बचाया जा सकता इस प्रकार शोक भी नहीं करना चाहिये। भावार्थ-शरीर रत्नत्रयकी सिद्धिका उपाय है, इसलिये धर्मका साधन है । अतएव यदि वह स्थिर हो तो विवेकी जनोंको प्रयत्न कर उसका नाश नहीं करना चाहिये । और यदि वह पातोन्मुख हो तो उसे योगीन्द्र, देवेन्द्र तथा दानवेन्द्र आदि कोई भी नहीं बचा सकता, इसलिये शोक नहीं करना चाहिये ।।५।। विवेकियोंके द्वारा स्वस्थ शरीर पोषण करने योग्य है, रोगी शरीर उपचारके योग्य है और उपकारको विफल करनेवाला शरीर दुष्ट पुरुषके समान त्यागने योग्य है। भावार्थ-नीरोग शरीरकी रक्षाके लिये नियमित रूपसे योग्य आहार और विहार करना चाहिये । यदि रोगकी उत्पत्ति हो जावे तो उसकी निवृत्तिके लिये औषधोपचार भी करना चाहिये । परन्तु योग्य आहार विहार और औषधोपचार करते हुए भी यदि शरीर पर उसका असर नहीं हो; तथा व्याधि ही बढ़े, ऐसी हालतमें शरीर का दुष्टके समान त्याग कर देना उचित है ॥क्षा निश्चयसे नष्ट होनेवाले शरीरके लिये इच्छित अर्थका दाता धर्म नष्ट करने योग्य नहीं, क्योंकि नष्ट हुआ शरीर फिर मिल सकता है किन्तु धर्म अतिदुर्लभ है ।।७।। गृहीत व्रतके विनाशका कारण उपस्थित होने पर शरीरकी उपेक्षा
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