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सागारधर्मामृत
सहगामि कृतं तेन धर्मसर्वस्वमात्मनः । समाधिमरणं येन भवविध्वंसि साधितम् ॥५८ यत्प्रागुक्तं मुनीन्द्राणां वृत्तं तदपि सेव्यताम् । सम्यङ् निरूप्य पदवीं शक्ति च स्वामुपासकैः ॥५९ इत्यापवादिकों चित्रां स्वभ्यस्यन् विरति सुधीः । कालादिलब्धौ क्रमतां नवौत्सगिकों प्रति ॥६० इत्येकादशधाऽऽम्नातो नैष्ठिकः श्रावकोऽधुना । सूत्रानुसारतोऽन्त्यस्य साधकत्वं प्रवक्ष्यते ॥ ६१
करनेको सल्लेखना कहते हैं । मरणसमय में अर्थात् तद्भवमरणके अन्तमें होनेवाली सल्लखनाको मारणान्तिकी सल्लेखना कहते हैं । मरण दो प्रकारका है - प्रतिक्षणमरण और तद्भवमरण । सल्ले- . खनामें जो मरण होता है, वह तद्भवमरण माना जाता है । गुणव्रतों और शिक्षाव्रतोंकी तरह सल्लेखनाको भी शील माना है ||५७|| जिसने संसारपरिभ्रमणका नाशक समाधिमरण साध लिया उसने अपने धर्मके सर्वस्व रत्नत्रयको परभवके लिए सहचर बनाया || ५८|| पहले अनगारधर्मामृत में मुनियाँका जो चारित्र कहा गया है उसे भी अपनी शक्तिको और पदको भलीभाँति समझकर श्रावकों को करना चाहिए || ५९ || इस प्रकार अनेक भेदवाली अपवादमार्गस्वरूप श्रावकीय संयमको अभ्यास करनेवाला बुद्धिमान् गृहस्थ योग्य समय आदि साधन सामग्री के प्राप्त होनेपर मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना रूप नव प्रकारसे महाव्रतरूप संयमके प्रति उत्साहित होता है ||६० || नैष्ठिक श्रावक पूर्वोक्त व्याख्यानके अनुसार ग्यारह प्रतिमावाला आचार्य परम्परासे बतलाया गया है । अब जैनागमके अनुसार एकादशम प्रतिमाधारीके साधकपना कहा जाता है । भावार्थ — इस प्रकार आगम परम्परा के अनुसार ग्यारह प्रतिमारूप नैष्ठिक श्रावकका वर्णन करके अब अष्टमाध्यायमें ग्यारहवीं प्रतिमाधारीके साधकत्वपनेका वर्णन किया जायगा ॥ ६१ ॥
इति सप्तमोऽध्यायः ।
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