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सागारधर्मामृत
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faceजोवचिते लोके क्व चरन् कोऽप्यमोक्ष्यत । भावैकसाधनौ बन्धमोक्षौ चेन्नाभविष्यताम् । २३ अहिंसाव्रतरक्षार्थं मूलव्रतविशुद्धये । नक्तं भुक्तिं चतुर्धाऽपि सदा धोरस्त्रिधा त्यजेत् ॥ २४ जलोदरादिकृद्यू काद्यङ्कमप्रेक्ष्यजन्तुकम् । प्रेताद्युच्छिष्टमुत्सृष्ट मप्यश्नन्निश्य हो सुखी ॥२५
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कथाको भोजन (भक्त) कथा कहते हैं । कर्नाटक देशको स्त्रियां भोगविलासके समय उपचार करने में चतुर होती हैं, लाट देशकी स्त्रियाँ चतुर और प्यारी होती हैं। काश्मीर और कामरूप देशकी स्त्रियाँ बहुत ही सुन्दर होती हैं । अमुक स्त्रियोंके हाव-भाव पहनाव या कटाक्ष बहुत बढ़िया होते हैं । इत्यादि स्त्रियोंकी कथाको 'स्त्रोकथा' कहते हैं । दक्षिणदेश बढ़िया भोजन और बढ़िया भोगविलासकी सामग्री से युक्त है । पूर्व देशमें गुड़, खांड़, धान और नाना प्रकारके मद्य तैयार होते हैं । उत्तरदेश के मनुष्य शूरवीर, घोड़े घौड़ लगाने वाले, गेहुँओं की अधिकता और मेवा वगैरह से भरपूर हैं । पश्चिमदेश में कोमल कपड़े, ईखों को सुलभता आदि है । इस प्रकार देशकी कथाको राष्ट्रकथा कहते हैं । हमारे राजा शूर और दानी हैं, इनके ज्यादह घोड़े और हाथी हैं - इत्यादि राजाकी कथाको राजकथा कहते हैं । ये भोजन खराब हैं, अमुक स्त्रियाँ खूबसूरत नहीं हैं, अमुक देश खराब है और अमुक राजा खराब है । इस प्रकार विकथाओंका निन्दाके रूपमें भो प्रतिपादन किया जा सकता है ||२२|| यदि बन्ध और मोक्ष परिणाम ही हैं प्रधान कारण जिनका ऐसे अर्थात् भावोंके अधीन नहीं होंवें तो सर्ब ओरसे जीवोंके द्वारा भरे हुए संसार में कहाँ पर चेष्टा करनेवाला कौन मुमुक्षु पुरुष मोक्षको प्राप्त कर सकेगा अर्थात् कोई भी नहीं । भावार्थ - लोक जीवोंसे ठसाठस भरा है । ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ सम्मूर्च्छन जीव नहीं हों, ऐसी हालत में प्राण से हंस हुए बिना रह नहीं सकती । परन्तु यदि बन्ध और मोक्ष भावके अधीन नहीं माने होते तो कहाँ रहकर कौन मुक्ति प्राप्त कर सकता था । किन्तु जैन शासन में बन्ध और मोक्ष भावों पर आश्रित हैं, अतः प्रमतजीव बन्वता है । और अप्रमत्त जाव मुक्तिको प्राप्त करता है ||२३|| व्रतोंका पालक श्रावक अहिंसाणुव्रतको रक्षाके लिये धैर्य से युक्त होता हुआ रात्रिमें मन, वचन, कायसे चारों ही प्रकारके भी आहारको जीवन पर्यन्तके लिये छोड़े । विशेषार्थ – अन्न, पान, लेह्य और खाद्य ये चार प्रकारके आहार हैं। अहिंसाव्रतको रक्षा और मूलगणोंको विशुद्धिके लिये श्रावक साहसी बनकर मन वचन कायसे रात्रि में चारों प्रकारके आहारोंका परित्याग करे ||२४|| आश्चर्य है कि जलोदर आदिक रोगांका करनेवाले जू वगैरह हैं मध्य में जिसके ऐसे, नहीं दिखाई देते हैं जन्तु जिसमें ऐसे, और प्रेतादिकके द्वारा उच्छिष्ट भोजनको और त्यागी हुई वस्तुको भी रात्रिमें खाने वाला पुरुष अपनेका सुखी मानता है । विशेषार्थ - ( १ ) सूर्यका प्रकाश नहीं होने से भोजनके ग्रासमें जलोदर आदि रोगोत्पादक जूँ आदि देखे नहीं जा सकने के कारण खाने में आ सकते हैं । ( २ ) जल घो आदिमें मिले हुए छोटे छोटे कीड़े देखे नहीं जा सकते । ( ३ ) खजूर आदिमें लिपटे हुए छोटे छोटे कोड़े नहीं दिखते । ( ४ ) परोसने आदिके लिये चलने फिरनेमें जीवांका घात सम्भव है । ( ५ ) क्षुद्र व्यन्तरादिकों द्वारा भो भोजन उच्छिष्ट पाया जा सकता है । ( ६ ) त्यागी हुई वस्तु मिश्रित होने पर पहचानी नहीं जा सकती । इसलिये रात्रि में भोजन करना कल्याणकारक नहीं हो सकता । इसके सिवाय पेटमें गया जूं जलोदर रोग, मकड़ो कुष्ट रोग, मक्खी वमन, विच्छू तालुगत रोग, कुण्टक नामका कोड़ा और एक विशेष प्रकारका काष्ठका टुकड़ा गलरोग तथा बाल ( केश ) स्वर-भंग रोग कर देता है ||२५||
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