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आवकाचार-संग्रह परं तदेव मुक्त्यङ्गमिति नित्यमतन्द्रितः। नक्तं दिनान्तेऽवश्यं तद् भावयेच्छक्तितो ऽन्यदा ॥२९
मोक्ष आत्मा सुखं नित्यः शुभः शरणमन्यथा।
भवेऽस्मिन् वसतो मेऽन्यत् कि स्यादित्यापदि स्मरेत् ॥३० स्नपना स्तुतिजपान् साम्याथं प्रतिमापिते । युञ्ज्याद्यथाम्नायमाद्याहते सङ्कल्पिते ऽहति ॥३१ सामायिकं सुदुःसाध्यमप्यभ्यासेन साध्यते । निम्नीकरोति वाबिन्दुः किन्नाश्मानं मुहुः पतन् ॥३२ पञ्चात्रापि मलानुज्झेदनुपस्थापनं स्मृतेः । कायवाङ्मनसां दुष्टप्रणिधानान्यनादरम् ॥३३ अभिप्राय यह है कि सामायिक करते समय ऐसी प्रतिज्ञा लेनी पड़ती है कि जब तक मैं केशोंको गाँठ नहीं छोड़ें गा, बांधी हुई मुट्ठीको नहीं छोड़ें गा, वस्त्रकी गाँठ नहीं छोड़ें गा तब तक मेरे सर्व सावद्यका त्याग है, मैं समताभावको नहीं छोड़ें गा॥२८॥
यह सामायिक ही उत्कृष्ट मोक्षका साधन है इसलिये मोक्षका इच्छुक श्रावक सदा आलस्य रहित होता हुआ रात्रि और दिनके अन्तमें नियमसे उस सामायिकवतको अभ्यास करे तथा शक्तिके अनुसार दूसरे समयोंमें भी उस सामायिकव्रतको अभ्यास करे। भावार्थ-केवल सामायिक ही मुक्तिका अङ्ग है इसलिये मुमुक्षु व्रतिक श्रावकको आलस्यका परित्याग करके प्रातः और संध्या समय सदा अवश्य ही सामायिक करना चाहिये । और यथाशक्ति मध्याह्न आदिक कालमें भी सामायिक करना चाहिये। क्योंकि मोक्षका साक्षात् कारण चारित्र है और चारित्रका प्रधान अङ्ग सामायिक है ।।२९। सामायिकवतको ग्रहण करनेवाला श्रावक मोक्ष आत्मरूप सुखरूप नित्य शुभ तथा शरण है। तथा संसार इससे विपरीत है इसलिये इस संसारमें निवास करनेवाले मेरे अन्य क्या होगा, इस प्रकार परीषह तथा उपसर्गके आनेपर चिन्तवन करे । भावार्थ-सामायिक करते समय परोषह और उपसर्ग आने पर सामायिकव्रतीको अपने अन्तःकरणमें इस प्रकार चिन्तवन करना चाहिए कि अनन्तज्ञानादिस्वरूप मोक्ष ही मेरा आत्मा है, अनाकुल चेतनस्वरूप होनेसे मोक्ष ही सुख है, अनन्तस्वरूप होनेसे मोक्ष ही नित्य है, शुभ कार्य होनेसे मोक्ष हो शुभ है, विपत्तिके अगोचर होनेसे मोक्ष ही शरण है और चतुर्गतिमें परावर्तनरूप संसार इससे विपरीत है । अर्थात् संसार मेरे लिए अनात्मस्वरूप, दुःखरूप, विनाशी, अशुभ और अशरण है। जब तक मैं इस संसारमें हूँ तब तक मुझे इन परोषह और उपसर्गोंको छोड़कर और क्या होनेवाला है, क्या हुआ है तथा क्या होगा। इस प्रकारका चिन्तवन करते हुए सब प्रकारके परीषह और उपसर्गोंको सहकर भावसामायिक व्रत धारण करना चाहिए ॥३०॥ मोक्षका इच्छुक श्रावक प्रतिमामें प्रतिष्ठापित अरिहन्त भगवान्में सामायिकवतकी सिद्धिके लिए आम्नायके अनुसार अभिषेक, पूजा, स्तुति और जपको करे तथा चांवल आदिमें संकल्पित अरिहन्त भगवान्में अभिषेकके बिना अन्य पूजा आदि तीन क्रियाओंको करे । विशेषार्थ--मुमुक्षु श्रावक सामायिकव्रतकी सिद्धिके लिए तदाकार प्रतिमामें स्थापित अरिहन्तका आगमके अनुसार अभिषेक, पूजन, स्तुति तथा जाप करे। और अतदाकार चांवल आदिमें स्थापित अरिहन्तकी केवल पूजा, स्तुति और जाप करे। स्थापना दो प्रकारको है-साकार और निराकार । साकार स्थापनामें अभिषेक, पूजा, स्तुति और जपके द्वारा देवपूजा की जाती है। और निराकार स्थापनामें अभिषेकको छोड़कर शेष तीन प्रकारसे देवकी उपासना की जाती है। इस प्रकार देवकी उपासनामें तत्पर रहनेवाले व्यक्ति व्यवहारसे सामायिकवतके धारक होते हैं ॥३१।। अत्यन्त दुःसाध्य भी अर्थात् बड़ी कठिनतासे सिद्ध होनेवाला भी सामायिक व्रत अभ्यासके द्वारा सिद्ध हो जाता है, क्योंकि
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