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सागारधर्मामृत स्थूलहिंस्याद्याश्रयत्वात् स्थूलानामपि दुर्दशाम् । तत्त्वेन वा प्रसिद्धत्वाद् वधादि स्थूलमिष्यते ॥६ शान्ताद्यष्टकषायस्य संकल्पैर्नवभिस्त्रसान् । अहिंसतो दयाद्रस्य स्याहिसेत्यणुव्रतम् ॥७ इमं सत्त्वं हिनस्मोति हिन्धि हिन्ध्येष साध्विमम् । हिनस्तीति वदन्नाभिसन्दध्यान्मनसा गिरा ॥८ वर्तेत न जोववधे करादिना दृष्टिमुष्टिसन्धाने। न च वर्तयेत्परं तत्परे नखच्छोटिकादि न च रचयेत् ॥ इत्यनारम्भजां जह्याद्धिसामारम्भजां प्रति । व्यर्थस्थावरहिंसावद् यतनामावहे गृही ॥१० स्थूल हिंसादिक पाँच पापोंका त्याग होता है। इसके हो अणुव्रतोंका पालन उत्कृष्टवृत्तिसे होता है । मन, वचन, काय इन तीन भंगोंको केवल कृत और कारित भंगसे गुणा करनेसे छह भंग होते हैं । गृहवासनिरतके इन छह भंगों द्वारा ही स्थूल पाँच पापोंका त्याग होता है । इसके अणुव्रतोंका पालन मध्यमरीतिसे होता है । इस का यह तात्पर्य है कि शासन-कर्ता चक्रवर्ती आदि जो दण्डविधान करते हैं वह दोषाधायक नहीं है। क्योंकि पुत्र वा शत्रुमें समतारूपसे शासक द्वारा दिया गया दण्ड इस लोक और परलोककी रक्षा करता है। अतएव अपनी-अपनी पदवी और शक्तिके अनुसार ही शासकजन भो स्थूलहिंसा आदिकके त्यागी होते हैं और अपराधियोंको दण्ड देना उनका कर्तव्य है, दोषाधायक नहीं। इस प्रकार ९ या ६ भंगों द्वारा स्थल पापोंका त्याग करना अणुव्रत कहलाता है ।।५।। स्थूल हिंस्य आदिकका आश्रय होनेसे और स्थल मिथ्यादृष्टियोंके भी हिंसा आदिक नामसे प्रसिद्ध होनेसे हिसा, चोरी आदि स्थल कहे जाते हैं। भावार्थ-अणवतोंमें जिन हिंसादिक पापोंका त्याग होता है उनके विषय स्थूल हिंस्य प्राणी आदिक होते हैं तथा मिथ्या दृष्टि भी उन्हें हिंसा, चोरी आदिक मानते हैं, इसलिये हिंसादिकके साथ स्थूल विशेषण दिया गया है। सारांश यह है कि लोक में सर्व-साधारण भी जिन पापोंको हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह नामसे पुकारते हैं उनको स्थूल हिंसादिक कहते हैं। इन मोटे पापोंकी त्यागी अणुव्रती कहलाता है ॥६।। शान्त हो गये हैं-आदिके आठ कषाय जिसके ऐसे, दयाके द्वारा कोमल है हृदय जिसका ऐसे तथा मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना इन नौ सङ्कल्पोंसे दो इन्द्रिय आदिक जीवोंकी हिंसा नहीं करनेवाले व्यक्तिके अहिंसा नामक अणुव्रत होता है। भावार्थ-अनन्तानुबन्धी तथा अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभका क्षयोपशम होनेपर मन, वचन, काय सम्बन्धी कृत, कारित, अनुमोदना इन नौ सङ्कल्पोंसे त्रस जीवोंकी द्रव्य और भाव हिंसा नहीं करना, तथा प्रयोजनवश की जाने वाली स्थावर हिंसासे भी डरना और यथा संभव उनकी भी यतना करना अहिंसाणुव्रत है |७|| गृहविरत श्रावक इस प्राणीको मारता हूँ, तुम इस प्राणीको मारो मारो, तथा यह पुरुष इस प्राणीको मारता है यह अच्छा करता है इस प्रकार मनके द्वारा और वचनके द्वारा हिंसाका सड़ल्प नहीं करे तथा दष्टि और मुष्टिका है जोड़ना जिसमें ऐसे जीवोंके मारनेके विषयमें हस्तादिकके द्वारा स्वयं प्रवत्ति नहीं करे. दुसरेको प्रवत्ति नहीं करावे, तथा स्वयं ही जीववध करनेवाले व्यक्तिके विषयमें ताली चुटकी आदि न बजावे । भावार्थ-"मैं मारता हूँ, तुम मारो, यह ठीक मार रहा है।" इस प्रकार मनके द्वारा संकल्पी हिंसा होती है। इसी प्रकार तीन प्रकारकी संकल्पी हिंसा वचनसे होती है। अपने हाथसे हिंसा करना, दृष्टि और मुष्टि सन्धान रूप दूसरे द्वारा हिंसा कराना तथा हिंसकके कार्य में ताली और चुटको वगैरह बजाकर कायकृत हिंसाको अनुमोदना करना। इस प्रकार अहिंसाणुव्रतमें नव संकल्पोंसे हिंसाका परित्याग करना आवश्यक है ।।८-९॥
घरमें रहने वाला श्रावक इस प्रकारसे सांकल्पिक हिंसाको छोड़े और कृष्यादिक आरम्भसे होनेवाली सिंहाके प्रति निष्प्रयोजन एकेन्द्रिय प्राणियोंके वधके समाने सप्रयोजन एकेन्द्रिय जीवोंकी
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