________________
कर चुकी है। फलस्वरूप धर्म के विधि विधान बढ़े, धर्म भी बढ़ा, परन्तु धर्मरूपी बंगले के पाये में, नीति-न्याय, प्रमाणिकता, मैत्रीभाव और मानवता जो होनी चाहिये थी, लगभग अदृश्य है।
इन सब बातों को ख्याल में रखकर मैंने प्रत्येक श्लोक में वही भाव उतारे हैं जो मानव और मानवता के साथ सम्बन्धित हैं।
कुछ अघटित लिखने में आया हो या मर्यादातिरेक हो गया हो, इत्यादिक दोषों के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।
परम दयालु परमात्मा और पूज्य गुरुदेवों का मैं अहसान मानता हूँ कि उनकी कृपा का ही यह फल है । इति शुभम् ।।
सं. २०२५ पोष बदी १२ ता०१७-१२-६८
मुनि पूर्णानन्द विजय (कुमार श्रमण) न्याती नोहरा, सादड़ी (मारवाड़)
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com