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शेष विद्या प्रकाश ::
:: ७१ 'ससुराल की अवहेलना' श्वसुर गृह निवासो स्वर्गतुल्यो नराणाम् ___यदि वसति दिनानि पञ्चवा षड् यथेच्छम् घृत मधुरस लुब्धा मासमेकं वसेच्चेत्
स भवति खरतुल्यो मानवो मानहीनः ।।७२।। अर्थ- ससुराल में रहना इन्सान मात्र के लिए स्वर्ग तुल्य है । तो भी पांच छ दिन का रहना अच्छा है। परन्तु घी, दूध, मिष्टान्न आदि मुफ्त के खाने के चक्कर में यदि कोई जामाता (जमाई) एक महीने तक रह जाय तो अनुभवियों ने उस जमाई को गधे को उपमा दी है । क्योंकि गधे को भी स्वाभिमान नहीं होता है । कहने का सार यह है कि- 'स्वाभिमान घट जाय वहां पर ज्यादा रहना प्रत्येक व्यक्ति के लिए अच्छा नहीं है ॥७२॥
हम बत्तीस तुम अकेली बसो हमोरी मांय । जग सी कत्तर खाऊं तो फरियाद कहां ले जाय ।। तुम बत्तीस मैं अकेली बसी तुमारे मांय । जरा सी टेढी बात करूं तो बतीस ही गिर जाय ।। तान तुरंग तिरीया रस, गीत कथा कलोल । राता रस में छोड़िये, ठाकुर मित्र तंबोल ॥ नागर तो निष्फल गई, सोने गई सुगन्ध । हाथी का घीणा गया, भूल गये गोविन्द ॥
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