Book Title: Shesh Vidya Prakash
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Marudhar Balika Vidyapith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Adhikari "Eleeblid fore1313 TOन : ०२७८-२४२५३२२० 300४८४ व्यतीर्थ সনিৰT श्री पूर्णानन्दविजयजी ( कुमार श्रमण) ॐन ग्रंथभाना KhadkakakakakakakAKA श्री यशोविश्याण G6IYOM Khadka kakakakakakakakakakal संग्राहक: पं. शेषमल राजमलजी सत्ता व त, बीजापुर (राजस्थान) а укук е ее ук уку Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000 सहर्ष भेट श्रीमान् सानुरोध निवेदन है कि 'शेष विद्या प्रकाश' को आदि से अन्त तक पढ़ कर अपना लिखित अभिप्राय हम तक पहुँचाने की कृपा करें ।। निवेदकशेषमल सत्तावत विद्या वाड़ी, गनी (गज.) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mk Akkaौर और और और और और sksksk KAKAK A K A K मानवता की पगडंडी . भावानुवादक : न्याय, व्याकरण, काव्यतीर्थ मुनिराज श्री पूर्णानन्द विजयजी ( कुमार श्रमण ) 卐 ***ips शेष विद्या प्रकाश Y संग्राहक : पं. शेषमल राजमलजी सत्तावत, बीजापुर (राजस्थान ) 5 और और और और * ** ** kkkk X भएर प Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : मरुधर बालिका विद्यापीठ विद्यावाडी-राणी ( राजस्थान) प्रथमावृत्ति २००० वीर सं० २४१५ विक्रम सं० २०२६ धर्म सं० ४७ महावीर जयंती मुद्रक : श्रीकृष्ण भारद्वाज कृष्णा आर्ट प्रेस नरसिंह गली, ब्यावर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानक्रियाम्यामोपाः. जानदर्शनधारित्राणिमोक्षमार्गः.कृत्सनकौक्षयौटिमाता, ॥ श्री गौतमम्वामी ॥ यी जीवन निर्मल यन्त्रमः- श्री पद्मावती दवी ॥ वक्ता सुरक्षा बिष्ट उधर्म साहसं धैर्य प्रारम्यतेनखुलविघ्नभयननीची सन्तोषएचपुरुषस्यप नेधानम.अहिंसापरमो धर्मः.लम्यासंमायतेमानु:सरस्वत्यापिजायते. प्रारभ्यमुत्तमजना: नपरित्यमनिना तस्य देवोऽपिशकते वारस्य प्रारभ्यविघ्नविहिताविमनिमध्या। बल बुद्धि पराक्रम मादा महल जाप तापमण्डलजाप. सापिघायावमुक्तय. तपतप वधमान तप bah KHESh:hab all ih esh, सापयामि सयोजकःराजमलात्मजःशषमलःS.R.SATTAVAT SATTAVAT NIWAS HinShahih : hlnhinhith जन्म: १९६५ कार्तिक कृष्ण १३ धनतेरस वीजापुर (राजस्थान) लग्न: १९८५ असाढ कृष्ण ८ नवापुरा बाली (राजस्थान) श्री वर्धमान तप प्रारम्भ २०१० विजया दशमी Shree Sudharmaswa Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमोदन करना, शिवमस्तु सर्व जगतः, अनुकरण करना मध्य भाग में रहे हुए महामंगलकारी श्री ऋषि मंडल मूल मंत्र की नवकारवाली जपे। सा विधा या विमुक्तयेही नमः तमसो मा ज्योतिर्गमय: जिन्दगानी के अन्तिम वन एवं श्री वर्धमान तप की ओली के अन्तिम वन के उपलक्ष में शप जिवन का प्रभाव विज्जिवन के निय जन्म सं.१९६१ धनतेरस कम खाना गम खाना जन्म से ही तम्बाकु छीकणी) का त्याग MS जावन्जिट विजयादशमीसे। १९७७ IA २०२१ अपाठशुदी १५ से पान भाजी/ ना त्याग । ज्ञान पान्डुरंग कृपासेही वर्कस सिद्धिः हवई (मराठी) (हीन्दी) (अंग्रेजी) (प्राक्रित) त्याग'/ RAMA/ARINE | त्याग अस चारित्रम् जुता-मोजा / पर्युषणपूर्व से १९९८ सेबह्मचर्य/NYOO. (मारवाडी) (संस्कृत) (गुजराती) (उर्दू) हेतफिकरे न कर्तव्यं करवी तो जिगरे खुदा त्याग A विशाख शुक्ला१५॥ चाय, कोफ/ २०१० RIES/ Hellhing) 08087 'पयुषण-पर्व से निम्मलिखि -IICII का उपयोग करना गेहुँ, जव, मक्काई, चावल, मुंग, चणा, चवला, तुअर, उडद घोरत, तेल, गुड, शक्कर, दही, बदाम, खजुर, द्राक्ष, गुँद केला, केरी, काकडी, चीभडा, टमाटर, निम्बु, इमली, दुधी, टीडसी | मीरची,नमक, हल्दी, धाणा, जीरा, राई,मेथी, कोकम, हीग, सुंठ,मरी, पीपरामुल, एलची,खार -11 -01 - 1 -1 -1 - 1 शेषमल सत्तावत विधावाडी व विजापुर (राजस्थाना ज्ञान की आशातना से बचने के लिये सुरक्षित रखें । मलमार बालिका विद्यापीठ,विहानाडी, रानी (राजस्थान) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्राक्कथन' करीब ४२ वर्ष के पहिले की बात है जब मैं शिवपुरी (मध्य प्रदेश) श्री वीरतत्त्व प्रकाशक मंडल में संस्कृत व धार्मिक अभ्यास कर रहा था, बड़ा अच्छा मेरा पुण्योदय था । प्रात: काल के पहिले ही व्याकरण के सूत्रों का रटना, प्रार्थना करनी, देव मंदिर, गुरू मंदिर में जाना और महान् विवेचक, प्रखर अभ्यासी, संस्था के सफल और सक्रिय अधिष्ठाता, परमपूज्य गुरुदेव श्री १००८ श्री विद्याविजयजी महाराज साहब के चरण-कमलों में सविधि वन्दना करना तथा प्रति दिन कुछ न कुछ छोटा सा व्याख्यान सुनना। फिर शारीरिक क्रियाओं से निपट कर नास्ता, पूजा तथा पाठ (Lesson) को संभालना और स्कूल जाना । पढ़ना पढ़ाना इत्यादिक प्रति दिन का यह हमारा कार्यक्रम था। मैं मेरे लिए कहने का अधिकारी हूँ कि गुरूओं की सेवा में रहकर कुछ सीखा, कुछ अनुभव किया और संग्रह करने का स्वभाव होने से कुछ संग्रह भी किया। तब मुझे स्वप्न में भी यह ख्याल नहीं था कि उसे प्रकाशित करना होगा। परन्तु शिवपुरी छोड़ने के बाद भी मेरे शुभ कर्म के अनुमार मेरा धार्मिक व सामाजिक संस्थाओं से सम्बन्ध रहा है । व्यापारी होते हुए भी आयंबिल, उपवास, ब्रतधारण करना, प्रतिक्रमण, पौषध Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) करना और मुनिराजों के दर्शन, वन्दन कर के जीवन में कुछ उतारना । इसी लक्ष्य के अनुसार किसी की रोक टोक बिना मेरी जीवन नैया बड़ी कुशलता से संसार समुद्र में आगे बढ़ती गई है। यह एक सौभाग्य है। मेरे ऊपर अत्यन्त वात्सल्य रखने वाले पूज्य आचार्य भगवंतों का, पन्यास भगवंतों का तथा मुनिराजों के उपरान्त मेरे मित्रों तथा स्नेहियों का यह आग्रह बारम्बार था कि 'मेरे पास जो संग्रह है उसको प्रकाश में लाया जाय । परन्तु अनुवाद करने का काम मेरे से नहीं बन पाया तब मेरे सहपाठी कल्याणमित्र, सहृदय, न्याय व्याकरण तीर्थ, श्रीमान् अम्बालाल प्रेमचन्द शाह ने गुर्जरानुवाद किया। परन्तु मेरी तथा बहुतों की इच्छा राष्ट्र-भाषा में अनुवाद बहुत ही स्पष्ट और सुन्दर होते हुए भी हम प्रकाशित करने में उत्साहित नहीं हो पाये । इसका दुःख है। न्याय, व्याकरण, काव्यतीर्थ मुनिराज श्री पूर्णानन्द विजयजी (कुमार श्रमण) जिनकी दीक्षा के ३१ वर्ष पूरे हुए हैं । मेरा सद्भाग्य था कि उनकी दीक्षा में मेरा पूर्ण रूप से सहयोग रहा है । तथा दीक्षा के पश्चात् भी उनके पठन-पाठन का मैं खूब परिचित हूँ। जैसा कि 'किञ्चिद्वक्तव्यं' में मुनिराज श्री ने स्वयं कह ही दिया है। उनके व्याख्यानों की प्रशंसा भी खूब कर्णगोचर हो चुकी थी। वह दिन भी आ गया कि बाली (मारवाड़) के खूब लम्बे चौड़े व्याख्यान होल में, पूरे चतुर्विध संघ के बीच में जब भगवती सूत्र तथा जैन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामायण के व्याख्यान मैंने सुने । मेरा मैं साक्षी हूँ कि 'मेरे लिए वह अनिर्वचनीय अवसर था । मुझे खूब आनन्द आया। मेरे संग्रह किये हुए संस्कृत श्लोकों का तथा हिन्दी गुजराती पद्यों का संस्कार किया जाय, ऐसा जब मैंने कहा तो बड़े हर्ष के साथ मुनिजी ने स्वीकार किया और भावानुवाद की शुरुआत हुई और काम पूरा हुआ। जो आज जनता के करकमलों में है। पाठक वर्ग ही इसका निर्णय करेगा- कि 'अनुवाद कैसा हुआ है ? मैं तो यह कहूँगा कि 'धूतं च मांसं च सुरा च वेश्या' इत्यादिक श्लोकों में मुनिजी की कलम कुछ तूफान करती हुई चली है । परन्तु जैनागम से बहार नहीं गई है। यह एक संतोष का विषय है। मैं मुनिराज श्री का ऋणी हूँ कि मेरी इच्छाओं को बड़े उदार दिल से पूरी की है।' परम पूज्य, श्राराध्यपाद, शासन दीपक स्व० श्री १००८ श्री विद्याविजयजी महाराज की बेहद कृपा दृष्टि का ही कारण हैं कि मुझे विद्या क्षेत्रों से काफी प्रेम रहा है। व्यापार क्षेत्र से जानबूझ कर मैंने सन्यास लिया और अब मरुधर बालिका विद्यापीठ, विद्यावाड़ी में बाल ब्रह्मचारिणी, कुमारिकाओं की सेवा करने का अपूर्व चान्स मुझे मिला है । मेरा चले और जैन समाज के श्रीमंत बुद्धि जीवी यदि मेरी सुने तो मैं उनको अत्यन्त विश्वास पूर्वक सलाह दंगा कि___ अपनी कन्याओं को पढ़ाना यह एक अपूर्व धर्म मार्ग तो है ही, परन्तु बहुत सी शताब्दियों से पीछे रही हुई मारवाड़ी समाज को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधारने का भी अपूर्व लाभ है। जब अपने लड़कों को खूब आगे पढ़ा रहे हैं तब कन्याओं को कम से कम मेट्रिक पास करवाने में सामाजिक जीवन का गौरव तो बढ़ेगा ही, परन्तु परस्पर दाम्पत्य जीवन भी सुन्दरतम बनेगा, अतः बढ़ते हुए आज के भौतिकवाद में यदि अपनी गृहस्थाश्रमी शान्तिमय प्रसार करनी है तो अपनी कन्याओं को ऐसे विद्यालयों में रखकर उनके तन और मन को खूब खूब विकसित होने दीजियेगा। यही एक श्रेष्ठ मार्ग है और माता पिता तथा समाज के हितचिन्तकों का परम फर्ज भी है। जुग जुग का इतिहास साक्षी दे रहा है कि जब जब कन्याओं को ज्ञान दान देने का संकल्प किग गया है, तब तब पुरुषों में से कुछ न कुछ अवरोध आया ही है, परन्तु आज का जमाना दूसरी किस्म का है, पुरुष भी आज इस बात से सहमत हैं कि कन्याओं को व्यवहारिक, सामाजिक व धार्मिक शिक्षण दिये बिना हमारी गृहस्थाश्रमी का भला होना नितान्त अशक्य है। शासन देवों से मेरी यही प्रार्थना है कि 'इस विद्यावाडी के पास ही जैन समाज का एक बालिका बोडिंग' स्वतन्त्र बन जाय जिसमे कन्याओं को जैन धर्म का शिक्षण, जैन आचार का परिपालन व सामाजिक ज्ञान भी दिया जाय। परम दयालु परमात्मा ने जिन भाग्यशालियों को खूब धन दिया है उनसे भी मेरी यही प्रार्थना है, और वे सुनं, इसी में जैन समाज को फायदा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्त में परम दयालु परमात्मा का व स्वर्गस्थ पूज्य गुरुदेव का मैं आभारी हूँ 'जिनकी महती कृपादृष्टि का यह फल है' पुनः पुनः उनके चरण कमलों का अभिवादन करता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि, देवलोक में विराजमान आप हमेशा के लिये मुझे हृदय में रक्खें। ___मुनिराज श्री पूर्णानन्द विजय जी का मैं कृतज्ञ हूँ, जिनकी कृपा से ही यह मेरी भावना के अनुसार कार्य आज सम्पन्न हुआ है, सब कुछ उन्हीं का ही है, मेरा कुछ भी नहीं है। श्रीमती सरस्वती बहिन जीवराज जी मुंडारा वालों ने अपने प्रथम वर्षी तप के पारणे पर प्रभावना के लिए इस पुस्तक की १००० नकल खरीदकर मेरे उत्साह को बढ़ाया है एतदर्थ धन्यवाद । ब्यावर के कृष्णा आर्ट प्रेस के मालिकों को भी धन्यवाद दूंगा जिन्होंने इस कार्य को अपना समझकर बडी शीव्रता से पूरा किया है। यह हमारा प्रथम प्रयास है, अतः भूलें होना स्वाभाविक है अत: पाठक वर्ग के हम क्षमा प्रार्थी हैं। विद्यावाडी के संरक्षकों का मैं आभारी हूँ जिन्होंने इस पुस्तक का प्रकाशन किया है। वि.सं. २०२६ विनीत : महावीर जयंति शेषमल राजमलजी सत्तावत विद्यावाडी (राजस्थान) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ___www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणां भोजभक्त न तव सदृष्टि शालिनः । शेषमल्लन सदृष्ट्या विजापुरसुवासिना ॥ १ ॥ शेषविद्याप्रकाशोऽयं जीवनस्य समय॑ते । स्वीक्रियतां गुरो ! स्वस्थ ! अल्पीयोऽपि महार्थकः ॥२॥ भावरसचतुर्नेत्र वर्षे वीरस्य सिद्धिदे । जन्मकल्याणके घस्र, पूर्णानन्दप्रदायकः ॥ ३॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “इतिहास तत्त्व महोदधि आचार्य श्री विजयेन्द्र सूरिजी न्यायतीर्थ न्यायविशारद उपाध्यायजी श्री मंगलविजयजी जगत्पज्य नवयुगप्रवर्तक. शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्री विजयधर्मसूरीश्वरजी লুপ্তিৰয়জী A.M.A.S.B.X.M.A.SI विशालविजयजी X .G. .5. New इन्द्रविजयजी मंगलविजयजी हिमांशविजयजी पूर्गानन्दविजयजी न्यायविजयजी ত্তিান্ত भलिविनयजी जीव विजयी भाव विजयजी पिक एस. आर. सत्तावत बीजापुर (राजस्थान न्यायतीर्थ न्यायविशारद् आयंबील शालाओं के संस्थापक शासन दीपक प्रखरवक्ता मुनिराज श्री न्यायविजयजी आचार्य श्री विजयभक्तिसूरिजी मुनिराज श्री विद्याविजयजी Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शामनदीपक तत्वविवेचक पूण्यमूर्ती १००८ स्व० श्री विद्याविजयजी महाराज आपकी मातुश्री की पुण्यस्मृति में भोपाल निवासी शेठजी श्री छगनमलजी मिश्रीमलजी की तरफ से दर्शनार्थं भेंट Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 समर्पणम् 卐 जिन गुरुदेव की असीम कृपा से मुझे कुछ ज्ञान का प्रकाश मिला, जैन शासन की ज्योत दिखी, और देव गुरु धर्म का अनुभव हुआ । उसीका परिणाम है कि अंशतः असत् क्रियाओं का परिहार करके पूर्वभवीय कर्मों की निर्जरा हेतु तपश्चर्या धर्म मुझे प्राप्त हुआ है और ज्ञानजिज्ञासा की अभिरुचि भी बनी रही है। वे मेरे परोपकारी पूज्यपाद चिरस्मरणीय, शासनदीपक, स्व, मुनिराज श्री १००८ श्री विद्याविजयजी' महाराज साहब के करकमलों में उन्हीं से प्राप्त हुआ यह शेष विद्याप्रकाश गर्भित 'मामवता की पगडंडो' अर्पित करते हुए मुझे अानन्द हो रहा है । पूज्य गुरुवर्य ! मेरी इस तुच्छ भेट को आप स्वीकारें और मुझे सद्बुद्धि सद्विचारणा दें जिससे मैं मेरा श्रेय साध सकू। विद्यावाड़ी महावीर जयंती आपका भक्त शिष्य शेषमल सत्तावत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'किञ्चिद्वक्तव्यं स्मरणच' चिरपरिचित पण्डित श्री शेषमलजी सत्तावत से मेरा आत्मीय सम्बन्ध घनिष्ठ रहा है। जब मैं छोटा था और माहिम-बम्बई में श्रीमान श्री प्रेमचन्दजी देवीचन्दजी बाली वालों के यहां नौकरी कर रहा था, उसी समय में या उसके कुछ पहिले मेरी भावना दीक्षा लेने की बन चुकी थी, परन्तु कहां पर ली जाय, जिससे मेरे जीवन का सुधारा होने के साथ कुछ ज्ञान संज्ञा प्राप्त कर सकू? तभी मुझे पण्डितजी से सम्बन्ध हुआ, और दीक्षा लेने के लिए मैं करांची चला गया और पूज्यपाद. शासनदीपक श्री १००८ श्री विद्याविजयजी महाराज साहब के पास दीक्षित हुआ। मेरा परम भाग्योदय था कि दीक्षा लेने के पश्चात् ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम बड़ी शीघ्रता से होता गया और क्रमशः पांच प्रतिक्रमण, प्रकरणादि प्रन्थों से निपट कर मैं सिद्धहेम व्याकरण में प्रवेश कर गया और गुरु कृपा से दो अक्षर प्राप्त कर लिये। भाई शेषमलजी जिनको मैं मेरे उपकारी मानता हूँ, मेरे ऊपर उनका वात्सल्य अगाध रहा है। मुझे पूरा अनुभव है कि मेरी इस प्रकार चढ़ती, बढ़ती को देखकर वे बड़े प्रसन्न भी हैं। करांची और पोरबन्दर में मुझे व्याकरण रटते हुए और आवृति करते हुए देखा, और शिवपुरी में स्याद्वाद मञ्जरी रटते हुए तथा रत्नाकर अवतारिका का मनन करते हुए देखा, तब मैं नहीं जान सकता कि वे कितने राजी हुए होंगे ? और बाली (राजस्थान) के विशाल व्याख्यान भवन में, भगवती सूत्र के तात्विक व्याख्यान और जैन रामायण के हृदयस्पर्शी व्याख्यान सुनने के बाद प्रसन्न तो अवश्यमेव हुए होंगे ही परन्तु साथ साथ इस बात का अानन्द भी होगा कि 'मैं भले ही दीक्षा न ले सका परन्तु एक भाग्यशाली को मैं दीक्षित कर सका हूँ।' अस्तु ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार शुद्धता और प्रमाणिकता के ( आन्तर बाह्य रूप से ) परम पुजारी भाई शेषमलजी रहे हुए हैं, और इन्हीं कारणों से प्रत्येक मुनिराज, पन्यासजी महाराज व आचार्य भगवन्तों की तथा त्यागी, तपस्वी, आराधकों की कृपा दृष्टि प्राप्त किये हुए हैं, अत: सर्वत्र जाना आना सुलभ होने से, तथा शिवपुरी के विद्यार्थी जीवन से भी, कुछ न कुछ मंग्रह करने का आनन्द उनको प्राप्त होता गया है, तभी तो गृहस्थाश्रमी होते हुए भी संस्कृत श्लोकों का इतना अच्छा संग्रह उनके पास है, उसमें से कुछ ज्ञानगर्भित, कुछ नीतिगर्भित और कुछ दिलचस्प, संग्रह जो नोट बुकों में संग्रहीत था उसको संस्कार देने के लिए मुझे कहा गया। मेरे सहृदय, गुरुभ्राता, पंडितजी का कथन मैं कैसे टाल सकता था ? साथ-साथ मैं आलसी भी प्रथम नम्बर का हूँ, मेरा दोष भी मुझे ख्याल में था, फिर भी मैंने स्वीकार किया। गुरुदेव की कृपा समझो या पंडितजी का अनुराग, मेरी कलम अपने आप चलने लगी, उत्साह था कि 'यह काम तो मैं पूरा कर ही दूंगा' और श्रद्धा ने भी साथ दे दिया ! पिछले दस श्लोक मेरे बनाये हुए ही हैं। पंडितजी ने उदार दिल से स्वीकृति दी और श्रावक धर्म के सम्यक्त्व मूलक बारह व्रतों के १२४ अतिचारों की संख्या प्रमाण में, इम श्लोक संग्रह पर भावानुवाद तैयार कर लिया। शब्दार्थ का मोह छोड़ कर प्रायः श्लोक के भाव व कवि के भाव को मैंने मेरी बुद्धि के अनुसार भावानुवाद में उतारा है। बहुत से श्लोक अत्यन्त सुपरिचित है, फिर भी आखिर सुभाषित होने के कारण उसमें कभी तो अत्यन्त, कभी गूढार्थ रूप से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाम्भीर्य रहा हुआ होता है, जो सबों को मोहित करता हुआ ज्ञान प्राप्त करवाने में समर्थ होता है। मेरी आप से सहृदय प्रार्थना है, आप एक बार इसको जरुर पढ़े, प्रत्येक श्लोक से आपको कुछ न कुछ प्रकट या व्यंग्य रूप से जानने को ही मिलेगा- ऐसा मुझे पूरा विश्वास है। बहुत से श्लोक अपरिचित भी हैं, तो कुछ अश्राव्य भी हैं, तथापि संस्कार देकर श्लोक के भाव को उदार दिल से खोल दिया है, पाठकों को उसी से ही मतलब है। दूसरा विभाग जो हिन्दी, गुजराती पद्यों का है। उसमें बहुत से पद्य सुश्राव्य होते हुए भी नीति-न्याय और सदाचार का ज्ञान देने वाले हैं तो कुछ अपरिचित भी हैं। नम्बर ७१ से लेकर १२० तक जिसमें सामाजिक, मार्मिक कुछ कथानक भी हैं। शौकीन महानुभावों को चाहिए, शेषमल भाई से ही सुनने का आग्रह रखें तभी आपको मजा आयगी, और पद्यों का तथा पद्यांशों का रहस्य भी अच्छी तरह से समझ पावेंगे । समय का अभाव होने के कारण केवल १५ पद्यों का ही मैंने संक्षेप से विवेचन किया है। "पान पर चूना नहीं लगने देना" इत्यादिक सत्य और सदा. चार को प्रकट करने वाली कथाएं भी आप पण्डितजी से ही प्रत्यक्ष सुनने का मोह रखें। धन्यवाद____ मैं श्रीमान् श्री शेषमल भाई को हार्दिक धन्यवाद दूंगा, जिन्होंने मेरे जैसे आलसी को एक अच्छे कार्य में भागीदार बनाया है । मिसका मुझे पूर्ण-श्रानन्द है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतज्ञता___मैं मेरे पूज्य गुरुदेवों का जो स्वर्गस्थ हैं, काफी कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने मेरे जैसे पत्थर को कुछ दिया, कुछ सुधारा और एक मानवीय आकृति बना ली। स्वप्न में भी वे मेरे पूज्य हैं, श्रद्ध य हैं, और ध्येय हैं। स्मरणश्च अब आखिरी स्मरण मेरी दोनों माताओं का करना है। एक माता ने मुझे जन्म दिया और मेरे पार्थिव शरीर में सुदृढ़ता और रक्त में सात्त्विकता दी, तो दूसरी माता जो मेरी धर्म माता है, उसने मुझे स्थिरता दी, गम्भीरता दी, और मेरी आत्मा को स्थितप्रज्ञ सी बना दी । जन्म देने वाली माता को मैं ज्यादा नहीं पहिचान सका, परन्तु मेरी प्रकृतियों को देखकर अनुमान कर सकता हूँ कि आप बड़ी सहृदय और दयालु होगी। धर्म माता जिनका नाम मोतीबाई है (करांची वाले निहालचन्दजी लक्ष्मीचन्द जी कुवाड़िया की धर्मपत्नि) जो सुरेन्द्रनगर (सौराष्ट्र) में स्थित है, आपके मायालु स्वभाव का मुझे खूब परिचय है। इस कृति को उन मातृद्वय के कर-कमलों में रखकर यही कहूँगा कि-'इससे जिस किसी को फायदा होवे, और उसका जो पुण्य हासिल होवे वह मेरी दोनों माताओं को मिले, यही शासनदेव से प्रार्थना है। किसी भी सुभाषित को वक्ता या लेखक जिस तरफ ले जाना चाहे, सुख-पूर्वक ले जा सकता है, मैंने भी यही किया है जो मेरे मन में था। कुछ शताब्दियों से मानवता की प्रतिष्ठा का वास होता गया है और अर्थ प्रधानता का बोलबाला आज सब क्षेत्रों में प्रवेश Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर चुकी है। फलस्वरूप धर्म के विधि विधान बढ़े, धर्म भी बढ़ा, परन्तु धर्मरूपी बंगले के पाये में, नीति-न्याय, प्रमाणिकता, मैत्रीभाव और मानवता जो होनी चाहिये थी, लगभग अदृश्य है। इन सब बातों को ख्याल में रखकर मैंने प्रत्येक श्लोक में वही भाव उतारे हैं जो मानव और मानवता के साथ सम्बन्धित हैं। कुछ अघटित लिखने में आया हो या मर्यादातिरेक हो गया हो, इत्यादिक दोषों के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। परम दयालु परमात्मा और पूज्य गुरुदेवों का मैं अहसान मानता हूँ कि उनकी कृपा का ही यह फल है । इति शुभम् ।। सं. २०२५ पोष बदी १२ ता०१७-१२-६८ मुनि पूर्णानन्द विजय (कुमार श्रमण) न्याती नोहरा, सादड़ी (मारवाड़) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महा मंगलकारी श्री ऋषिमंडल मूल मन्त्र प्रतिदिन एक नवकारवाली जपें। आचाम्लादि तपः कृत्वा, पूजयित्वा जिनावली; अष्टासाहस्त्रिको जापः कार्यः तसिद्धिहेतवे. आ स्वर्णे रौप्ये पटे कांस्ये लिखित्वा यस्तु पूज्येत. तस्यैवाष्टमहासिद्धि हे वसति शाश्वती धारितं सर्वदा दिव्यं, सर्वभीतिविनाशकम् । भूर्जपत्रे लिखित्वेद, गलके मूभिवा भुजे चारित्रेश्या असझाएर ज्ञानदर्शनचारित्रन्यो ही नमः प्रकाशक : एस. आर. सत्तावत बीजापुर (राजस्थान E Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जर्मन श्रा वि का डॉ. शार्लोटे क्रोझे पी. एच. डी. श्री सुभद्रादेवी चि. सौ. कां. सुपुत्री प्रभावती के शुभ - ल न पर आशीर्वाद-पत्र गालियरR.2012 प्यारे ई - रोषाललाई m7R 22,127 उत्तर नलिभरचलिमना पराल व्यानर सरा 362-27 (शपिलर An 21 श्री रा नही है मनत्री 3AAM 22, 2 मानाजी-1104 उपस्थित ? ॐ ।। 322 EMinuलिसानेर mpnार जनी 32 - F377 nanसन सुख शांति चत्र हो। मान 12 m२नजन' को 32 mqा पर मारिया । दृसनता 3 32 गायन अन्यनार 2ी । nmana FM है । ली बहिनी श्री स्वीकृत Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०००: अनुक्रमणिका :... कम.सं. विषय १. नमो नमः श्रीप्रभुधर्म सूरये २. देव नमस्कार ३, गुरू नमस्कार ४. संत समागम ५, संत महिमा ६. संत दुर्लभता ७. दादा गुरु की स्तुति ८. गुरु स्तुति ६. सम्यग ज्ञान की प्रशंसा १०. विद्याधन की महता ११. विद्या का प्रभाव १२. धर्म १३ चातुर्मासिक धर्म १४. धर्म हीन की निन्दा .... १५. धार्मिकता का सार १६. क्षमा धर्म की समर्थता .... १७. क्षमा धर्म की उपादेयता .... १८. धर्म की उत्पत्ति वृद्धि स्थिति और नाश .... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com x & mn GK x c www -- Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) १६ धर्म ही रक्षक है २०. मानव धर्म २१. अत्यन्त दुःखदायक सात व्यसन २२. मानवता का सार २३. मानवता श्रेष्ठ कैसे बन सकेगी २४. मानवताहीन का फल २५. कलम का हितोपदेश २६. मानवता रहित मानव का अफसोस २७. संसार की विषमता २८. आशा तृष्णा का सामर्थ्य २६. उम्र का लेखा जोखा ... ३०. सुख दुख में समष्टि बनना ३१. शत्रुओं का भी हित चिन्तन ३२. जीवन की निष्फलता ३३. लक्ष्मी का सदुपयोग ३४. दया धर्म ३५. मित्रता के लक्षण ३६. दाम्भिक पुरुष का जीवन .... ३७. पुत्र रहित का जीवन ३८. ब्रह्मचर्य श्राश्रम की श्रेष्ठता ३६. रात्रि भोजन पाप है ४०. आशा तृष्णा का फल .... ४२ www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. शूर, पंडित, वक्ता, दाता की दुर्लभता .... ४२. सच्चा शूर, पंडित, वक्ता, दाता कौन है ? ४३. सुपुत्र की महिमा ४४. गुणी पत्र ४५. कुपुत्र की निन्दा ४६. कृपणता की निन्दा ४७. कृपणता का तिरस्कार ४८. दान नहीं देने का फल ४६. बहादुर पुरुषों से देवता भी डरते हैं ५०. भाग्य रेखा .... ५१. विद्यार्थी जीवन के ८ दोष .... ५२. विद्यार्थी के पांच लक्षण ५३. स्थान भ्रष्ट की निन्दा ५४. सनातन धर्म ५५. गृहस्थाश्रम में लक्ष्मण का ब्रह्मचर्य ५६. सीताजी का ब्रह्मचर्य ५७. उत्तम पुरुष का लक्षण ५८. पर स्त्री में फंसे हुये मुज राजा की दशा .... ५६ मूर्ख की निन्दा ६०. खानदान स्त्री का धर्म . ६१. जाति का नुकसान जाति से होता है। ६२. कलियुग का प्रभाव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३. मांगना मरना समान है ६४. सन्तोषी मन सदा सुखी है ६५. धन का उपार्जन करना अच्छा है ६६. धर्म स्थान और श्मशान की महिमा ६७. ससुराल की अवहेलना ६८. दुश्चरित्र आदमी का प्रभाव ६६. हर्ष शोक दोनों व्यर्थ हैं ७०. नारकीय कर्मों का फल ७१. संसार का असली रूप ७२, हजारों मुखों से एक पण्डित अच्छा है ७३. बुद्धि रहित की निन्दा ४. इस संसार में धन ही सब कुछ है ७५. थोड़ी बुद्धि वाला भी नब पंच बनता है ७६. पुत्र और मित्र समान है ७७. मुझे कुशलता कैसी ? ७८. विद्वता कामान ७६. उदारता ही प्रशंसनीय है ८०. सुख दुख में समदर्शी बनना ८१, भोज राजा के प्रति बहुमान ८२. स्त्री सर्वोत्कृष्ट रत्न है ८३. उपसर्ग से शब्दों में चमत्कार ८४. भारतवर्ष की कमनसीबी शताब्दी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२, ८५. तब जैनियों ने भी ललकारा ८६. प्रान्तों की लड़ाई ८७. हा ! हा ! केशव केशव ८. शरीर लक्षण ८६. भारत का जेन्टलमेन ६०. संस्कृत भाषा का चमत्कार ६१, मन्त्र तो गुप्त ही अच्छा है सोलह शृंगार ६३. लक्ष्मी का नाश ६४. कालीदास और भोज का संवाद ६५. शान में समझना ही अच्छा है १६. मेरा पराक्रम ६७. मेवाड़ देश की प्रसिद्ध बातें ६८. समस्या मूर्ति ६६. नारियल १००. अवतार कब होते हैं ? १०१. पैगम्बरों से सुख की याचना १०२. पैगम्बर स्तुति १०३. देवी स्तुति १०४. एकता की महिमा १०५. कैंची जैसा काम हानिप्रद है १८६. अन्यायोपार्जित धन से नुकसान १०७. संत समागम के फायदे १०८, मोक्ष की प्राप्ति १०६. जीवन में उतरा हुआ ज्ञान मोक्षप्रद है .... .... १०७ ११०. ब्रह्मचर्य भंग से नुकसान .... १०८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) १११. ब्रह्मचर्य के पालन में दोषों का नाश होता है ११२. विचक्षण कौन है ? ११३. अन्तिम प्रार्थना ११४. श्री वर्धमान तप का महात्म्य ११५. तप से कार्य की सिद्धि होती है ११६. प्राण - पोषक अन्न या रस ११७. वर्तमान में इस तप की महिमा राता महावीरजी स्तवन ११८. ११६. रूढ़ी विनाशक गायन १२०. आनन्द पत्रिका १२१ पड़दा (चांदणिया) विनाशक १२२. कहावतें १२३. सट्टे के व्यापार में नुकसान १२४. बीजापुर में ३६ कौम १२५. जिसको सात गरने पानी छानकर पीना कहते हैं १२६. परदेश जाते समय १२७. जातियों के लिये दिन १२८. प्रत्येक मास में वर्जित वस्तुए १२६. सट्टे के व्यापार में पांच १३०. कक्षायें .... वस्तु .... .... : Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat : FP. .... .... .... .... की आवश्यकता १३१. वृद्धा का जवाब १३२. एक दो साड़े तीन १३३. रहने के मकान भी ३ ।। प्रकार के हैं १३४. वांजित्र भी ३ ।। प्रकार से सिद्ध होता है...... .... .... 0006 .... .... .... .... .... 2008 .... .... .... 1000 **** .... .... १०६ १०६ ११० १११ ११२ ११४ ११५ ११८ ११६ १२० १२१ १२२ १२८ १२६ १३० १३० १३० १३० १३१ १३१ १३२ १३३ १३४ १३४ www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ★ शेष विद्या प्रकाश नमो नमः श्रीप्रभुधर्मसूरये ॐकारं बिन्दुसंयुक्त नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः ॥ १ ॥ अर्थ - रेखा और बिन्दु से युक्त' ॐकार' का ध्यान प्रत्येक योगी करता है, क्योंकि सम्पूर्ण इच्छाओं को देने वाला और मोक्ष की तरफ ले जाने वाला ॐकार है । ऐसे प्राभाविक 'ॐ' को मैं भी बारंबार नमस्कार करता हूं । इस ॐ में पञ्च परमेष्ठी का समावेश हो जाता है, जो कि संसार के सब पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ है । अरिहंत, अशरीरी (सिद्ध) ये दो परमात्मतत्व हैं । आचार्य, उपाध्याय, मुनि ये तीन गुरुतत्व हैं । इन पांचों में से शुरुआत का एक एक अक्षर ग्र+अ+आ+उ + म् लेने के पश्चात् व्याकरण के नियमानुसार 'ओम्' पद बनता है, फिर अर्द्धचन्द्राकार रेखा, बिन्दु तथा नाद से अलंकृत यह ॐ महामन्त्र सिद्ध होता है । शास्त्रकारों का कथन है कि ॐ के बाद बीजाक्षरों में सर्वश्रेष्ठ, और चौबीस तीर्थ करों से अध्यासित तथा शोभित 'ह्रीं' और तत्पश्चात नमः शब्द को जोड़ने पर ॐ ह्रीं नमः " सर्वश्रेष्ठ मन्त्र बन जायगा ! " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: शेष विद्या प्रकाश खाते पीते उठते बैठते और व्यापार व्यवहार करते समय जो भी मानव 'ॐ ह्रीं नम:' का जाप अपने मन में चालू रखेगा, उसकी मनोकामना पूरी होगी ॥ १ ॥ ' देव नमस्कार' २ :: भवबीजाङ्कुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ||२|| अर्थ- संसार की मायाजाल बढ़ाने में आत्मा के जिन आन्तरिक शत्रुम्रों ने बीज के प्रकुरों जैसा काम किया है, उन रागद्वेष, काम, क्रोध, शाप आदि अन्तर्गत शत्रुधों का जिन महापुरुषों ने समूल नाश किया है, वे चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो, हर हो या जिनदेव हो मेरा भावपूर्वक नमस्कार हो अर्थात् जिन आत्मा के रागद्वेष जन्य दोष तपश्चर्या रूपी ग्रग्नि में समूल नाश हो गये हों उन भिन्न भिन्न नामधारी देवाधिदेव को मैं नमस्कार करता हूँ ||२|| उत्तेजना और क्रोध जनमानस को भ्रान्त कर देता है और उनमें घृणा भर देता है । - जवाहरलाल नेहरु इस तरह का धर्म, जिसकी बुनियाद में बुद्धि नहीं, विवेक नहीं, कैसा तारक होगा ? श्रद्धा भी हो तो वह विवेक युक्त होनी चाहिए। - विनोबा भावे कार्य का आनन्द ही कार्य का सबसे बड़ा पुरस्कार है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat - सरदार पटेल www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: 'गुरु नमस्कार' अज्ञानतिमिरान्धानां शलाञ्जनशलाकया । नेत्रमुन्मिलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः || ३ || :: ३ अर्थ- हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह इत्यादिक पाप स्थानकों को जिन संयमधारी मुनिराजों ने अपने जीवन में प्रवेश नहीं होने दिया है, ऐसे परम दयालु गुरुदेवों ने ज्ञानरूपी शलाका ( आंख में प्रांजने की सलाई ) के द्वारा अज्ञान रूपी अन्धकार से मेरे जैसे - अंध बनने वालों की ग्रांखों को खोल दी है, ऐसे परमदयालु गुरुदेवों को मैं नमस्कार करता हूँ ||३|| 'संत समागम' चंदनं शीतलं लोके, चन्दनादपि चन्द्रमाः । चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये, शीतलः साधु समागमः || ४ | अर्थ - चन्दन का लेप ठंडा होता है, उससे भी चन्द्रमा की रोशनी ज्यादा ठंडी है, परन्तु काम, क्रोध और लोभ की ज्वाला रूपी संसार की आग में रात दिन रचे पचे इन्सान को साघु समागम के अतिरिक्त और कोई भी पदार्थ शीतलता ( ठंडी ) देने वाला नहीं है । लाखों रुपये का दान पुण्य करने पर भी मानव का दिल और दिमाग शान्त नही होता है, फिर भी वह यदि साधुत्रों के समागम में रहेगा तो जरूर उस भाग्यशाली को शान्ति और समाधि प्राप्त होगी | ||४|| Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: शेष विद्या प्रकाश 'संत महिमा' साधूनां दर्शनं पुण्यं, तीर्थभूता हि साधवः । तीथं फलति कालेन, सद्यः साधुसमागमः ।।५।। __ अर्थ- सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवहिंसा का भी त्याग करने वाले साधुभगवंतों का दर्शन पुण्य स्वरूप माना गया है, क्योंकि ऐसे पवित्र साधु स्वयं संसारी जीवों के लिए तोर्थ रूप माने जाते हैं। स्थावर तीर्थ तो भवभवांतर में फल देते हैं । परन्तु जङ्गमतीर्थ स्थानीय मुनि भगवंतों का समागम तो मानवमात्र को परमसुख शान्ति और समाधि तत्काल देने वाला होता है । बहुत से उदाहरण अपने सामने हैं कि संत समागम से कामियों का काम, क्रोधियों का क्रोध और लोभियों का लोभ नष्ट होकर इस भव में ही मानव पारसमणि के समान बन गया है ।।५।। यह याद रखना बहुत जरूरी है कि अगर हमारी आंखें रागद्वेष से रञ्जित हों, और हृदय बुरी लालसाओं से भरा हुआ हो तो सब से अच्छे लक्ष्य प्राप्त नहीं होते, इसलिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि हमें क्या प्राप्त करना है ? इससे पहिले हम यह ध्यान रखें, कि हम उसको पाने के लिये उपाय कैसे कर रहे हैं। हम तो एक दूसरे पर द्वेष या दाव चलाने के फेर में पड़ गये हैं, वह हमको बैरी मानता है, इसी प्रकार हम भी । अतः सुन्दर से सुन्दर बहस और विवाद भी हम उससे नहीं निकाल सकते। अगर हम इसी चक्कर में घूमते रहे तो नतीजा यह रहेगा कि एक दूसरे हम सभी का नाश कर लेंगे, और साथ ही असली शक्ति, ध्येय और शान्ति भी नहीं मिलेगी। ___ -जवाहरलाल नेहरु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: — संत दुर्लभता' शैले शैले न माणिक्यं, मौक्तिकं न गजे गजे । साधवो न हि सर्वत्र, चन्दनं न वने वने॥६॥ अर्थ- जैसे माणिक्य नाम का रत्न सब पर्वतों में नहीं होता है । मोती सब हाथियों के गण्डस्थल में पैदा नहीं होता है । चन्दन का वृक्ष भी सब जङ्गलों में दिखता नहीं है। उसी प्रकार निर्लोभी, संयमी और तपस्विता के साथ साथ मानव यात्रा के प्रति उदार मनवाले सच्चे साधु महाराज भी सर्वत्र उपलब्ध नहीं होते हैं। ।।६।। 'दादा गुरू को स्तुति' यस्यज्ञानमनन्तदर्शिसमयां भोराशिमन्थाचलो। यस्य शान्तिरनल्पकोपनजन क्रोधाग्निधाराधरः॥ यस्य ब्रह्मतपः सहस्रकिरणो भूमण्डलोद्योतको । विश्वाभ्यर्चित संयमो विजयते ___श्री धर्म सूरीश्वरः ॥७॥ अर्थ-दीक्षित अवस्था के पहिले अनुमानतः जो निरक्षर थे परन्तु दीक्षा के पश्चात गुरुकुलवास, गुरुसेवा और मन, वचन, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: शेष विद्या प्रकाश काया की एकाग्रतापूर्वक पठन पाठन के द्वारा उनकी ज्ञान गरिमा ने, न्याय, व्याकरण, साहित्य, पागम, नियुक्ति, भाष्य णि और टीका ग्रन्थों में गुथित केवलि भगवंतों के वाङ्मय को हृदयंगम किया और भारतीय महापंडितों को तथा जर्मन, इटाली, फ्रांस, लंदन इत्यादि देशों के दिगगज विद्वानों को अपने चरणकमलों का दास बनाया। विद्वत्ता, अहिंसा, संयम और तप की महिमा को पाबाल गोपाल तक पहुंचाया। युक्तियों से हार खाकर जिनकी क्रोध की सीमा दुर्वासा ऋषि तक पहुंच जाती थी, उन महापंडितों की, विरोधियों की, और हठाग्रहियों को क्रोधाग्नि को अपने सर्वोत्कृष्ट क्षमा धर्म रूपी मेघ के द्वारा शांत किया। सूर्य के समान देदीप्यमान बना हुआ जिस महापुरुष का ब्रह्मचर्य रूपी महान् तप, जैन समाज में बंगाल, बिहार, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश प्रभृति मांसाहारी प्रदेशों में अहिंसा और सदाचार धर्म को उद्योत करता हा खूब चमका था। __ संसार के ख्यातिनाम पंडितों ने, विद्वानों ने, गवर्नरों ने तथा राजा महाराजाओं ने जिन पुण्यात्मा के चरणों की उपासना की थी। वे शास्त्रविशारद, जैनाचार्य, युगप्रधान स्व. श्री १००८ श्री विजय धर्ममूरीश्वरजी महाराज अमरतपो। जो शान्त मूर्ति पूज्य श्री वृद्धि चन्द्र जी महाराज के मुख्य पट्टधर थे और शासन सम्राट जैनाचार्य श्री १००८ श्री विजय नेमिसूरीश्वरजी महाराज के बड़े गुरुभ्राता थे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: जिनकी साहित्य सेवा अमर है । जिनका वक्तृत्व अमर है। जिनकी अहिंसा और ब्रह्मचर्य की आराधना अमर है और वोसवीं शताब्दि को प्रद्योत करता हुया, जिनका जीवन अमर है ।।७॥ 'गुरु स्तुति हिमांशुवत्सदा भाति, पूर्णानन्दप्रदोदिवि । दान्तः शान्तो गुरुर्ज्ञानी श्री विद्यात्रिजयो मम ||८|| अर्थ- जैन समाज रूपी निर्मल आकाश में शुक्र के तारे से चमकते हुए जिन महापुरुष ने अपने वक्तृत्व और साहित्य रचना के द्वारा अपने विरोधियों को भी पूर्ण आनन्द प्राप्त करवाया है । संयम की साधना के द्वारा स्वयं जितेन्द्रिय बनकर हजारों को जितेन्द्रिय बनाया है। जिनका जोवन शान्त है, वक्तृत्व शान्त है, अर्थात् सम्यक्त्व के प्रथम लक्षण को अच्छी तरह से जीवन में उतारा था । श्रुति, युक्ति और अनुभूति पूर्ण जिनकी प्रवचन शक्ति में ज्ञान का समुद्र लहराता था। ऐसे सौम्यमुद्रा के धारक, शासन और समाज के हितचिन्तक, पूज्यपाद, शासनदीपक , मेरे गुरुदेव श्री विद्याविजयजी महाराज स्वर्ग में भी हिमांशु-चन्द्र के सदृश शोभायमान हैं ।। ८ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: शेष विद्या प्रकाश 'सम्यग ज्ञान की प्रशंसा' अनेक संशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम् । सर्वस्य लोचन शास्त्रं यस्य नास्त्यन्ध एव सः ॥९॥ अर्थ-अनेक संशयों का उच्छेदन करवाकर परोक्ष पदार्थ के ज्ञान में श्रद्धा उत्पन्न कराने वाला शास्त्र ज्ञान ही मानव की सच्ची ऑख हैं। जिसके पास सच्चा ज्ञान (राइट नोलेज) नहीं होता है वे वस्तुतः देखते हुए भी अन्धे हैं। क्योंकि शास्त्रीय ज्ञान से ही मानव का क्रूर स्वभाव दयालु बन जाता है। विकारी अांखें सत्दर्शक वनती हैं। दिल और दिमाग की दुष्टता और तुच्छता विलीन होती है, अत: दुनिया भर के ज्ञान की अपेक्षा शास्त्रीय ज्ञान महान् है ।।६।। All other knowledge is harmful to him, who has no bozesty and good nature. केवल पदस्थ होने के कारण ही बड़ों के दुर्गुण सदगुण नहीं होने पाते हैं। और केवल छोटे होने के कारण उनके सदगुण दुर्गुण नही होने पाते हैं। - हीरादेवी चतुर्वेदी इन्सान भले ही मस्त हाथी का माथा फोड़ डाले किन्तु उसमें अगर इन्सानियत नहीं है तो वह हरगिज मर्द नहीं है। आत्म-विश्वास निर्धनों का धन, दुर्बलों का बल, महापुरुषों का तेज और असहायों का सामर्थ्य है। ___-विजय वल्लभ सूरिजी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: 'विद्याधन की महत्ता' न चौरहार्य न च राजहार्य न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि । व्यये कृते वर्धत एव नित्यं विद्याधनं सबंधनात् प्रधानम् ।।१०।। अर्थ-शक्ति सम्पन्न मान्त्रिक चोर भी जिसको चोर न सके। राजा भी जिसका अपहरण न कर सके। भ्रात वर्ग भी जिस धन का भाग न पड़वा सके । रक्षण, अर्जन और व्यय में किसी भी प्रकार का भार न लग सके । फिर भी व्यय करने पर बढ़ता रहे । ऐसा विद्या रूपी धन जो मानसिक, वाचिक और शारीरिक दूषणों का त्याग करवा कर प्राचार, विचार और उच्चार में प्रौनत्य प्राप्त करवाने में अत्यन्त समर्थ है। प्रत्येक मानव के लिए सांसारिक सब पौदगलिक धन से विद्याधन बड़ा है। खूब याद रखना होगा कि बालकों को विद्या की जितनी प्रावश्यकता है, उससे भी ज्यादा बालिकाओं को भी है, क्योंकि उनको मातृपद प्राप्त करना है, जो दुनिया भर के पदों से अत्यन्त उत्कृष्ट पद है। जिस समाज में. जाति में और कुटुम्ब में कन्याओं के प्रति अनादर है, अर्थात विद्यादान देने में उत्साहित नहीं है, वे कुटुम्ब, जाति और समाज किसी हालत में भी उन्नति करने लायक नहीं हैं ।। १० ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: शेश विद्या प्रकाश 'विद्या का प्रभाव विद्वत्त्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन । स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ।।११॥ अर्थ-विद्वान् और राजा में यदि तुलना की जाय तो राजा से भी विद्वान ज्यादा पूज्य है, क्योंकि राजा तो अपने देश में, प्रान्त में ही बड़ा माना जाता है, और अपनी प्रजा के लिए ही महान् है, परन्तु विद्वान पुरुष तो जहां जाता है वहां सबका पूज्य बनता है। इससे ही मालूम पड़ता है कि श्रीमंताई और सत्ता से भी विद्वता को कीमत ज्यादा है ।।११।। 'धर्म' पञ्चैतानि पवित्राणि, सर्वेषां धर्म चारिणाम् । अहिंसा-सत्यमस्तेय-त्यागो मैथुनवर्जनम् ॥ १२ ॥ अर्थ-भारतवर्ष के धर्माचार्यों ने पवित्रतम पांच सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है । इतना ही नहीं परन्तु मन, वचन, काया से अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और निष्परिग्रह को अपने जीवन में उतार कर गहस्थाश्रमियों को भी अंशतः परिपालन करने का सफल उपदेश देते हुए कहा कि हिंसा भाव का त्याग, असत्य-मृषावाद का त्याग, स्तेय-चौर्य कर्म का त्याग, मैथुन का त्याग–अर्थात् परस्त्री को माता तरीके मानना और स्वस्त्रीविवाहित स्त्री में मर्यादित रहना, और भोग्य तथा उपभोग्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: पदार्थों को संयमित मर्यादित करने में वृति रखना इसी का नाम धर्म है । और इसी धर्म से इन्सान श्रेय और प्रेय की प्राप्ति करता हुआ भव भवांतर में सुखी बनता है ॥ १२ ॥ 'चातुर्मासिक धर्म व्याख्यान श्रवणं जिनालयगति नित्यंगुरोदनं प्रत्याख्यान विधानमागमगिरां चित्तेचिरं स्थापनम् । कल्पाकर्णनमात्मशक्ति तपसा संवत्सराराधनं श्राद्धैः श्लाध्यतपोधनादिति फलं लभ्यं चतुर्मासके १३।।।। अर्थ-भोजन किये बिना जैसे नहीं चलता है वैसे धर्म बिना भी नहीं चल सकता है। धर्म वही है 'अन्त करणशुद्धित्वं धर्मत्वम्' जिन शुद्ध और शुभ क्रियाएं करने से आत्मा में शुद्धि होवे उसी को धर्म कहते हैं अर्थात प्रात्मा को शुद्ध बनाना ही क्रियाओं का प्रयोजन है । ऐसा धर्म उपादेय है तथापि चौमासे के दिनों में विशेष प्रकार से उपादेय है। १ हमेशा धर्म के व्याख्यान सुनना। २ जिनेश्वर भगवंतों के मन्दिर में जाना । ३ गुरु भगवंतों को त्रिकाल वन्दन करना । ४ भोग्य और उपभोग पदार्थों का संयमन करना । ५ जिनवाणी को चित्त में स्थापन करना । ६ कल्प-सूत्र का श्रवण प्रतिवर्ष करना । ७ तपश्चर्या के द्वारा पर्युषण पर्व की आराधना करके सबों के साथ मिच्छामि दुक्कडं देना ।। १३ ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'धर्महीन की निन्दा येषां न विद्या न तपो न दानं, ___ ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः । ते मृत्युलोके भुवि भार भूताः , __ मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति ॥१४॥ अर्थ- देवदुर्लभ मनुष्य अवतार को प्राप्त करके जिन्होंने अपने जीवन में: १. विद्या ( सा विद्या या विमुक्तये ) की साधना नहीं की। २. पापों के प्रायश्चित में तपश्चर्या की साधना नहीं की । ३- श्रीमंताई होते हुए भी गरीबों को भला नहीं कर सके । ४. शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि से मेरी आत्मा सर्वथा भिन्न __ है ऐसा ज्ञान प्राप्त नहीं कर सके । ५. शारीरिक, वाचिक और मानसिक शक्तियों का संग्रह कराने वाले ब्रह्मचर्य की उपासना नहीं कर सके । ६. सद्गुणों की प्राप्ति में सर्वथा बेदरकार रहे । ऐसे मनुष्य मृत्युलोक में भारभूत हैं, अर्थात् मनुष्य के अवतार में केवल पाशविकता को ही उपार्जन करके जीवन निन्दनीय बनाया है ।।१४।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: १३ 'धार्मिकता का सार' खामेमि सब जीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे । मिती मे सव्व भृएसु, व मज्झं न केणई।।१५|| क्षमयामि सर्वजीवान्, सर्वे जीवा क्षमन्तु मे । मैत्री मे सर्व भूतेषु . वैरं मम न केनचित् ।।१६।। ___ अर्थ- क्षमा ही मानव मात्र के जीवन की साधना का चरमलक्ष्य है, उनकी प्राप्ति होते ही जीवन उच्चतर बन जाता है और वृति तथा प्रवृति में एक-रूप्य स्थापित होता है, तब उसके हृदय के उद्गार ऐसे होते हैं । __"मैं सब जीवों को खमाता हूँ सब जीव मुझे क्षमा करें, सम्पूर्ण जीवराशि का मैं मित्र हैं, और मेरा किसी के साथ वैर नहीं है" ||१५-१६॥ सेवा, स्वावलम्बन, संगठन, शिक्षा प्रहार और साहित्य ये पांच सकार पंचामत है। और इसी पञ्चामृत से इन्सान का जीवन धन्य बनता है। -विजयवल्लभ सूरिजी बेटा! फकीर का लिबास (वेश) तो सब (क्षमा) का लिबास है। जो शख्स यह लिबास धारण करता है परन्तु कष्ट सहन करने का अभ्यास नही करता है वह मानो इस लिबास का दुश्मन है, और इसे धारण करने का अधिकारी नही है । समझ में नही आता कि कोई बड़ी भारी नदी एक पत्थर से क्योंकर गंदी हो सकती है ? जो फकीर कष्ट देख कर घबराता है, वह तो सिर्फ छिछला पानी है। फकीर तो हंसते हंसते कष्टों का सामना करता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'क्षमाधर्म की समर्थता' क्षमा शस्त्रं करे यस्य दुर्जनः किं करिष्यति । अतृणे पतितो वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति ॥१७।। अर्थ- अभ्यास और वैराग्य के द्वारा जिस जीवात्मा ने अपनी पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच कर्मेन्द्रियों तथा मन से अनादिकालीन पड़े हुए बुरे संस्कारों को निकालकर क्षमाधर्म को स्वीकार किया है, उस भाग्यशाली का नुकसान नाराज हुमा राजा भी, दुर्जन भी, नहीं कर सकता है, जैसे घास रहित जमीन पर यदि आग की वर्षा हो जाय तो उस आग का स्वयमेव शान्त होने के अतिरिक्त और कुछ भी फल नहीं होता है । ख्याल रखना होगा कि इन्द्रियों को गुलामो छोड़े बिना कषायों ( क्रोध, मान माया, लोभ ) का त्याग सर्वथा असम्भव है, और कषायों के सद्भाव में ज्ञान, ध्यान, तप और संयम की आराधना काकदंत की गिनती के समान निष्फल है, अतः क्षमाधर्म ही श्रेष्ठ है ।।१७।। श्रद्धा इन्सान मात्र को हमेशा बल और हिम्मत देती है, परन्तु वह श्रद्धा,ज्ञान और विवेक युक्त होनी चाहिए । अन्यथा ज्ञान और विवेक रहित श्रद्धा से हजारों का पतन भी देखा गया है। संतों की सेवा से शीघ्र ही आत्मकल्याण होता है। -धर्मदास गणी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: 'क्षमाधर्म की उपादेयता' क्षमाबलमशक्तानां, शक्तानां भूषणं क्षमा । क्षमावशीकृतिलोंके, क्षमया किं न सिद्धयति ॥१८॥ अर्थ- पूर्वभवीय साधना कमजोर होने से, इस भव में जो इन्सान दिल और दिमाग को कमजोर लेकर जन्मे हैं, ऐसों के लिए भी क्षमाधर्म ही लाभदायक है, और जो मानसिक, वाचिक और कायिक बल लेकर जन्मे हैं उनके लिये भी क्षमाधर्म हो सर्वश्रेष्ठ सिद्धिदायक है, क्योंकि यह क्षमाधर्म वशीकरण मन्त्र के तुल्य है, अर्थात संसार में ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जो क्षमा से सिद्ध न हो सके । क्रोध, मान, माया और लोभ से जो सिद्धी होती है, वह लम्बे काल तक रहने वाली भी नहीं है, और अन्त में जीवन को दुःखी बना देती है ।।१८।। ___ सब के सब धर्मशास्त्रों में धर्म का रहस्य यही है कि जीव मात्र के साथ मैत्री भाव का विकास, परोपकार, और समता प्रधान जीवन । -न्याय विजयजी किसी भी युग में या किसी भी काल में क्रिया कांड एक सा हुआ ही नहीं है। -न्याय विजयजी ___ लोकरजन और सत्य भाषण इन दोनों में परस्पर कट्टर बैर है, अत: लोकरजन की उपेक्षा करके सत्यभाषण में ही आग्रह रखना चाहिए। -न्याय विजयजी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'धर्म की उत्पत्ति, वृद्धि, स्थिति और नाश' कथमुत्पद्यते धर्मः ? कथं धोविवर्धते । कथं च स्थाप्यते धर्मः कथं धर्मो विनश्यति ॥१९।। अर्थ-एक साधक भक्त अपने गुरु से पूछता है कि धर्म की उत्पत्ति कैसे होती है ? धर्म बढ़ता कैसे है ? धर्म की स्थापना कैसे होती है ? और धर्म का नाश कैसे होता है ? ॥१६॥ सत्येनोत्पद्यते धर्मों, दयादानेन वर्धते । क्षमाया स्थाप्यते धर्मः क्रोध लोभाद विनश्यति ॥२०॥ अर्थ- पिछले श्लोक के प्रश्न का उत्तर देते हुए गुरु ने कहा कि आत्मिक जीवन में जब तक 'सत्य' धर्म का उदय नहीं होता है, तब तक हे साधक ! जीवन में धर्म का उत्पन्न होना सर्वथा असम्भव है, कारण कि जैनागम में महावीर स्वामी स्वयं बोलते हैं कि 'सच्चं खलु भयवं' (T RUTH IS GOD) अर्थात् सत्य ही परमात्मा है, जब तक परमात्मा की ज्योत अपने हृदय में प्रवेश नहीं करती तब तक धर्म और धार्मिकता हजारों कोस दूर है । ' साचां मां समकितवसे ' इसका अर्थ भी यही है कि सत्यजीवन सत्यव्यवहार, सत्यव्यापार, और सत्य भाषण में ही समकित ( सम्यक्त्व ) का वास निश्चित है इसलिए सत्य के द्वारा ही धर्म की उत्पत्ति होती है। सत्य से उत्पादित धर्म, दया और दान के द्वारा बढ़ता है। दया आत्मा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: का गुण है जिसकी विद्यमानता में हो संपूर्ण जीव राशि के साथ मैत्री भाव का विकास होता है । ख्याल रखना होगा कि वैर, विरोध, ईर्ष्या, क्लेश, अपमान, संघर्ष और आप बड़ाई इत्यादिक लक्षण दयालु आत्मा के हर्गिज नहीं है । अपनी वस्तु में भी अपनत्व का त्याग ही दान है ।। धर्म की स्थापना अर्थात धर्म के मूलों को मजबूत करने के लिए क्षमाधर्म को नितान्त आवश्यकता है । प्रात्मा में जब वीरता का विकास होता है तब क्षमा प्राप्त होती है, इसीलिए "क्षमा वीरस्य भूषणम्" बोला जाता है । शारीरिक वीरता में तामसिकता का सदभाव है और प्रात्मा की वीरता में सात्विक भाव है । धर्म का नाश क्रोध और लोभ से होता है। सहन करने की शक्ति के अभाव में क्रोध बढ़ता है। पुत्र लोभ, धन लोभ, सत्ता लोभ, इज्जत लोभ इसे लोभ कहा जाता है । अतः प्रात्मा के वैकारिक भाव को छोड़कर सत्यधर्म, दयाधर्म, दानधर्म और क्षमाधर्म में अभ्यास बढाना हितकर है ॥२०॥ सूर्य के अस्ताचल जाने के पहिले जो धन याचकों को नहीं दिया गया है, मैं नहीं जानता कि वही धन प्रातःकाल में किसका होगा? -राजा भोज दूसरों का भला करने का यही अवसर है, जब तक कि स्वभावतः चञ्चल यह श्रीमंताई तेरे पास विद्यमान है। अन्यथा विपत्ति का समय भी निश्चित है, तब भला उपकार करने का अवसर कहां रहेगा? -राजा भोज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'धर्म हो रक्षक है' बने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा। सुप्तं प्रमचं विषमे स्थितं वा रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि ॥२१॥ अर्थ- जिस इन्सान ने धर्मराजा की बैक में पुण्यधन जमा करके रखा है, और इस भव में फिर से उस पुण्यधन को बढ़ाता रहता है, वह भाग्यशाली चाहे जङ्गल में रहे, रण में फिरे, शत्रु, जल और अग्नि के बीच फंस जाय, समुद्र में गिर जाय, पर्वत के शिखर पर भूला पड़ जाय, प्रमादवश यत्र तत्र पड़ा हो, या विषम स्थान में पड़ा हो तो उसका रक्षण धर्मराजा प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से करता ही है । गीता वचन भी यही है कि "धर्मो रक्षति रक्षितः " अर्थात् जो भाग्यशाली दुःख दारिद्रय और विपत्ति के समय में भी अपने सत्य, सदाचार और प्रेमधर्म की रक्षा करेगा उसका मब प्रकार से भला होगा ।।२१।। हे पूर्णिमा के चन्द्रमा। अपनी चांदनी से आज ही पालस्य लाये बिना इस संसार को उज्जवल कर देना अन्यथा निर्दय विधाता चिरकाल तक किसी को मालदार नहीं रहने देता है। ___-राजा भोज ऐ सरोवर ! दिन और रात प्यासों को पानी पीने देना, क्योंकि गया हुआ जल तो प्राषाढ़ मास के मेघों से फिर मिल जायगा। ___-राजा भोज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: १६ __'मानव धर्म' वरं मौनं कार्यं न च वचनमुक्त यदनृतं, वरं क्लैब्यं पुसो न च परकलत्राभिगमनम् । वरं प्राणत्यागो न च पिशुनवाक्येष्वभिरूचिः वरं भिक्षाशित्वं न च परधनास्वादनसुखम् ॥२२॥ अर्थ- खूब समझ लेना चाहिए कि किसी भी संप्रदाय में या किसी के पक्ष में रहना हगिज धर्म नहीं है, या अमुक झंडा उठाकर फिरना या अमुक प्रकार के रंगे हुए वस्त्रों का परिधान करना या जुदी-जूदी रीत से तिलक लगाना या जुदे जुदे द्रव्य की माला हाथ में घुमाते रहना, ये धर्म नहीं है क्योंकि धूर्त, प्रपंची या पेट भरा आदमी भी यह सब कर सकता है। परन्तु धर्म का सीधा सादा अर्थ यही है कि जिससे अर्थात् जिन क्रियाओं से इन्सानियत, मानवता, मनुष्य प्रेम का विकास होवे और वह इन्सान दैवी संपत्ति का मालिक बने । ऊपर का श्लोक अपने को यही समझाता है कि(१) धर्म्यभाषा बोलना नहीं आता हो तो मौन धारण करना सर्व श्रेष्ठ है, परन्तु ईर्ष्यायुक्त, हिंसक, गर्विष्ठ और असभ्य वचन बोलना परघातक तो है ही परन्तु स्वघातक भी है। (२) नपुंसक बनना फायदेकारक है परन्तु परस्त्री को ताकना, उसके साथ गंदा व्यवहार रखना, यह व्यक्ति का समाज का नुकसान कराने वाला दुर्गुण है, दुर्व्यसन है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०:: :: शेष विद्या प्रकाश (३) प्राण त्याग कर देना अच्छा है परन्तु दूसरे व्यक्ति के साथ पिशुनता का व्यवहार करना बुरा है, कलह-कंकास, चुगली, दूसरे के चरित्र में कलंक लगाना प्रभृति पिशुनता के ही समानार्थ है, इन सब का त्याग करना ही श्रेष्ठ मार्ग है। (४) भीख मांग कर खाना श्रेष्ठ है, परन्तु विश्वासघात, स्वामी. द्रोह, मित्रद्रोह, कूटतोल, कूटमाप और छलप्रपंच के द्वारा दूसरों के धन को अपने घर में लाना या पेट में डालना अत्यन्त खतरनाक है। महात्मा गांधी भी कह गये हैं कि "अन्यायोपाजित धन और कच्चा पारा दोनों एक ही समान है" ||२२॥ 'अत्यन्त दुःखदायक सात व्यसन' घतं च मांसं सुरा च वेश्या पापचिचौर्ये परदार सेवा । एतानि सप्त व्यसनानि लोके घोरातिघोरं नरकं व्रजन्ति ॥२३॥ - अर्थ-संस्कृत साहित्य में व्यसन शब्द का अर्थ 'दुःख' होता है। जिनके सेवन से ऐकान्तिक दुःख और दुःख परम्परा पाती है, ऐसे सात व्यसन अवश्यमेव त्याज्य हैं। सात व्यसन इस प्रकार हैं। जूना खेलना, मांस खाना, शराब का सेवन करना, वेश्यागामी बनना, शिकार खेलना, परधन की चोरी करना, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: २१ और अपनी धर्मपत्नी को छोड़कर परस्त्री से प्रेम करना। ये सात व्यसन भवपरंपरा में दुःखदायक हैं और मरने पर रौरव, वैतरणी नामक नरकावासों को देने वाले होते हैं, सातों के सेवन से या एकाध के सेवन से भी व्यक्ति में तो दोष आता ही है परन्तु समाज, कुटुम्ब, गांव और समूचा राष्ट्र भी दोषों से परिपूर्ण होता हुअा पराधीनता की बेड़ियों में फंसकर दुःखी बनता है। जूआ: सट्टे के व्यापार में, रेस के घोडों में और प्लेइंग कार्ड से रमी के व्यापार में, भारतवर्ष का व्यापारी वर्ग, युवक वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग बेहाल होता हुआ नैतिक अध:पतन के गर्त में कितनी तेजी से जा रहा है। यह जैसे द्रव्यद्य त है तो संसार रूपी जूमाघर (Gambling House) में मोहराज के साथ मैत्री करके, सत्यता, प्रमाणिकता, नीति और मानव-प्रेम को खो देना भी भावधूत है। मांस: जानवरों के मांस को और अंडों को खाना द्रव्यमांस है, तो कन्या विक्रय या वर विक्रय की कमाई भी भाव से मांस भोजन तुल्य है, अच्छे अच्छे विद्वानों या शास्त्रवेत्ताओं से चच करने पर ही शीघ्रता से अपन समझ सकते हैं कि ये दोनों दुर्गुणों से समाज की क्या दुर्दशा हुई है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२:: :: शेष विद्या प्रकाश सुराः शराब, भांग, अफीम प्रभृति मादक पदार्थो से द्रव्य नशा होता है, तो व्यक्ति, कुटुम्ब, समाज और राष्ट्र को रागद्वेष के भाव नशे में आकर के अपने स्वार्थ या पदप्राप्ति के खातिर सर्वत्र राग द्वेष की होली में सलगाना भी भाव नशा है। वेश्यागमनः गणिका स्त्री का सेवन करना द्रव्य से वेश्यागमन है तो अनीति, अविरति, असत्यता और हिंसकता में पूरी जिन्दगी खपा देना भी भाव से वेश्यागमन है । देवेन्द्रराज के दरबार में, मेनका, रंभा, अप्सरा प्रभृति स्त्रीयें ऐसी हैं जो त्यागियों को अपने वश कर लेती हैं, ठीक इसी प्रकार मोहराज ने भी बुद्धिशालियों को चक्कर में डालने के लिये अनीति, अविरति, असत्यता और हिंसकता नामक वेश्याओं को तैयार रखी है। शिकारः हरिण, खरगोश, शेर आदि को मारना, मस्तक में उत्पन्न होने वाली जूलीखों को मारना, जैसे शिकार क्रिया है ठीक इसी प्रकार अनपढ़ और भोले आदमी को तोल में, भाव में और ब्याज में ठगना भी भाव शिकार है। मोहराजा के हिंसा झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह रूपी पाप शस्त्रों को अपने बना कर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और संतोष रूपी आत्मीय णों का नाश होने देना भी शिकार ही है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: २३ चौर्यः दूसरों के धन को चोरना द्रव्य से चौर्यकर्म है तो मानव मात्र की मानवता, इज्जत, मान और उनकी वृत्ति तथा प्रवृत्ति को अपने स्वार्थ के खातिर बिगाड़ना, भाव से चौर्य-कर्म है। परदार सेवाः अपने साथ जो अविवाहित है, वह चाहे कन्या हो या विधवा या सधवा उसका उपभोग द्रव्य से परदारा सेवन है तो संसार की माया में सीमातीत फंस कर जीवन को बर्बाद कर देना भी भाव से परदार गमन है, क्योंकि संसार की माया अपनी नहीं है ।।२३।। ___ 'मानवता का सार' बुद्धेः फलं तत्वविचारणं च देहस्य सारं व्रतधारणश्च । अर्थस्य सारं किल पात्रदानं वाचः फलं प्रीतिकरं नराणाम् ।।२४॥ अर्थ-देव दुर्लभ मनुष्य अवतार प्राप्त करने वाले प्रत्येक भाग्यशाली को बुद्धि, देह, अर्थ और भाषा मिली है। मानव और दानव में इतना ही अन्तर है कि मानव इन्हीं चारों वस्तुओं का सदुपयोग करता है, और दानव केवल अपने स्वार्थ को साधने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं करता है । बुद्धि का उपयोग तत्त्वविचारणा में करना है कि "मैं कौन हूं? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: शेष विद्या प्रकाश कहां से आया हूं ? मरकर कहां जाना है ? मेरा क्या कर्त्तव्य है ? और मैं क्या कर रहा हूं ? इन पांचों प्रश्नों का उत्तर एकान्त में बैठकर अपनी आत्मा से लेना ही बुद्धि का उपयोग है । २४ : शरीर का उपयोग व्रत धारण करने में है ( Move Himself) का अर्थ यही है कि दूसरों को हानि में उतरना पड़े ऐसे पाप कार्यों से अपने शरीर को निकालकर अच्छे सत्कर्मों में शरीर का उपयोग करना चाहिए, जिससे जीवन में आनन्द आ सके। रावण दुर्योधन, कंस और शूर्पणखा के पास सत्ता, श्रीमंताई और युवावस्था तथा भोग उपयोग के साधन परिपूर्ण मात्रा में थे, तथापि उनका जीवन संयमित न होने के कारण जीवन का प्रानन्द प्राप्त नहीं कर सके और दूसरों के हाथ से मरकर अपजस के पात्र बने । अत: भगवान महावीर स्वामी, रामचन्द्रजी, और युधिष्ठिर के माफिक शरीर को व्रतधारी बनाना चाहिए । धन का उपयोग सत्पात्र के पोषण में, तपस्वियों की सेवा में और दीन दुखियों के उद्धार में करना चाहिए । धवल सेठ, मम्मणसेठ के पास खुद धन था फिर भी न किसी को दिया न खाया और नरक के मेहमान बन गये । वस्तुपाल, तेजपाल, भामाशा, जगडुसेठ ने धन का सदुपयोग किया, अतः त्यागी मुनियों ने भी इनके गुण गाये, कवियों ने कविताएं रची और चित्रकारों ने भी चित्र बनाये और इतिहास के पृष्ठों में अमर हो गये । बाणी का उपयोग मधुर, सत्य, प्रिय और अहिंसक भाषा बोलने में करना चाहिए ||२४|| Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: २५ शेष विद्या प्रकाश :: 'मानवता श्रेष्ठ कैसे बन सकेगी' आहार-निद्रा-भय-मैथुनञ्च, ___सामान्यमेतत् पशुभिःनराणाम् । धर्मो हि तेषामधिको विशेषो, धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥२५॥ अर्थ--आहार-निद्रा-भय-मैथुन ये चार कर्म-संज्ञा जीव मात्र के समान होती है। केवल इसीलिए मनुष्य अवतार श्रेष्ठ नहीं है परन्तु चारों संज्ञाओं में यदि वह विचारक मनुष्य धर्म संज्ञा को मिला दें तो वह कुदरत का आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ चराचर संसार का कल्याण कर सकता है । धर्म्य आहार, धर्म्यपान के साथ विवेकपूर्ण हित, मित और पथ्य भोजन विधि से ही जीवन सार्थक बनता है। सब स्थानों में और सब समयों में निद्रा लेने की नहीं होती है । मर्यादित निद्रा ही इन्सान के मन, बुद्धि और शरीर को स्वस्थता तथा स्फूर्ति देने वाली होती है और मर्यादातीत निद्रा मानसिक और आत्मिक रोग है, ऐसे रोग का प्रवेश सुलभ है, और साथ साथ जीवन और जीवन की शक्तिऐं बर्बाद हो जाती हैं। अधर्म्य व्यवहार, व्यापार, भाषण, खानपान से भयसंज्ञा उत्पन्न होती है और बढती है, जिसके बढने से विनय, विवेक, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ :: :: शेष विद्या प्रकाश लज्जा तथा खानदानी धर्म मर्यादा, वगैरह आत्मिक गुणों का नाश होता है, अतः इन्द्रियों में संयम, मन में सदाचार और जीवन को उच्चत्तम बनाने में ही निर्भयता प्राप्त होती है । जानवरों के मैथुन धर्म में अविवेक होता है अत. उनकी सन्तान भी जानवर होती है। यदि मनुष्य भी मैथुन धर्म में अविवेक लाएगा तो उस मनुष्य की संतान भी रावण, दुर्योधन, कंस और शूर्पणखा जैसी राक्षसीय गुण वाली ही होगी, यह निश्चित बात है। इसी कारण से अनुभवियों का कहना है कि धर्म संज्ञा ही मानवता का सर्व श्रेष्ठ सार है, तत्त्व है ॥२५।। 'मानवता होन का फल' हस्तौदान विवर्जिती, श्रुतिपुटौ, सारश्रुतिद्रोहिणी, नेत्रे साधु विलोकनेन रहिते पादौ न तीर्थ गतौ । अन्यायार्जितवित्तपूर्णमुदरं, गर्वेण तुङ्ग शिरो, रे ! रे ! जम्बुक मुश्च मुश्च सहसा नीचस्य निन्यं वपुः ॥२५॥ अर्थ-श्मशान में पड़े हुए एक मुर्दे (शव) को खाने के लिये आये हुए सियालों को एक योगिराज कह रहे हैं कि हे ! सियाल ! इस शरीर को (शरीर के मांस को) खाना छोड़ दे क्योंकि (गेट ऑफ दो मोक्ष) मोक्ष प्राप्ति के योग्य ऐसे पवित्रतम मनुष्य अवतार के मिलने पर भी इसने अपने शरीर को इस प्रकार निन्दनीय बनाया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: २७ १. दोनों हाथों से इसने कभी दान दिया नहीं है। २. शास्त्रों की उत्तम चर्चा इसके कान में पड़ी नहीं है । ३. प्रांखों में अमृत बसाकर इसने अपने महा-उपकारी माता-पिता तथा गुरुजनों को देखा नहीं है। ४. उत्तम स्थानों में जहां दूसरों की सेवा करने का अवसर मिले, अथवा तीर्थधामों में इसके पैर पड़े नहीं है। ५. मित्र द्रोह, विश्वासु द्रोह, कूट तौल, कूट माप के द्वारा अथवा वेश्या, मच्छीमार, कसाई और शिकारी के साथ व्यापार करके कमाया हुआ धन इसके पेट में पड़ा है । ६. घमण्ड के मारे इसका मस्तक हमेशा ऊंचा रहा है, अर्थात् बड़ों के, गुरुजनों के और उपकारी माता-पिता के चरणों में इसका मस्तक कभी भी झुका नहीं है । अतः हे सियाल ! इस नीच इन्सान के शव को छोड़ दे । छोड़ दे । इस पर सियाल ने तथा सियाल कुटुम्ब ने भूखा मरना स्वीकार किया और पापी तथा समाज-द्रोही के शव को छोड़ के चल दिया ॥२६॥ पूर के घमण्ड में किनारे के पेड़ों को गिरा देने वाली नदी ! याद रखना कि आज का आया हुआ पूर तो कल चला जायगा, परन्तु दूसरों को गिराने का पाप तो तेरे माथे पर रहेगा। -राजा भोज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'कलम का हितोपदेश' साधुभ्यः साधुदानं रिपुजन सुहृदां चोपकारं कुरुत्वं । सौजन्यं बन्धुवर्गे निजहितमुचितं स्वामिकार्य यथार्थम् । श्रोत्रेते तथ्यमेतत् कथयति सततं लेखिनी भाग्यशालिन् । नोचेन्नष्टेऽधिकारे मम मुख सदृशं तावकास्यं भवेद्धि ॥२७॥ अर्थ-कान के ऊपर बैठो हुई कलम अपने मालिक को प्रतिक्षण सत्य (धर्म्य) उपदेश देती हुई कहती है किः १. न्याय नीति से धन कमाकर तू साधु पुरुषों को साधु दान दे, और उनके ज्ञान दर्शन चारित्र की वृद्धि कर । २. अपने दुश्मनों का और मित्रों का भला कर-उपकार कर, याद रखना कि मित्रों का उपकार तो प्रत्येक मानव करता ही है, परन्तु दुश्मनों को, दुश्मनों के बच्चों को दूध रोटी देकर उनका भला चाहना यही मानव धर्म है, और इसी को मानवता कहते हैं। ३. दुःख से पीड़ित बन्धु वर्ग के साथ सज्जनता का व्यवहार करना। समझना होगा कि जीभ से, कलम से और श्रीमंताई तथा सत्ता के नशे में आकर भी किसी के साथ दुर्जनता का व्यवहार करना राक्षसीय गुण है। ४. शरीर को श्रृङ्गारने के अतिरिक्त उसी शरीर रूपी भाडे के मकान में जो प्रात्मा रूपी मालिक बैठा है, उसको समझना और उसका भला हो वैसी शुद्ध और शुभ प्रवृति करना । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: २६ ____५. जिसका नमक तेरे पेट में है ऐसे अपने सेठ का और प्रोफिसर का काम वफादारी पूर्वक करना। ललकारती हुई कलम कह रही है कि इतने काम जब तक तेरे पास श्रीमंताई है, सत्ता है, तब तक कर ले, अन्यथा श्रीमंताई और सत्ता नष्ट हो जाने के बाद, जैसा मेरा मुह काला है, वैसा हो काला मुह तेरा भी हो जायगा, कलम का मुह काला तो है ही परन्तु चाकू से काटा हुअा भी है ।।२७।। 'मानवता रहित मानव का अफसोस' गतं तत्तारुण्यं तरुणिहृदयानन्दजनकं, विशीर्णा दन्तालिनिजगति रहो, यष्टिशरणम् । जडीभूता दृष्टिः श्रवण रहितं श्रोत्रयुगलं, मनो मे निर्लज्जं तदपि विषयेभ्यः स्पृहयति ।।२८॥ अर्थ-शरीर रूपी रथ के साथ लगे हुए इन्द्रिय रूपी पांच घोडों को और सारथी सदृश मन को जिस भाग्यशाली ने भर युवावस्था में कब्जे में नहीं लिया, अर्थात इन्द्रियों के तथा मन के ऊपर जिन्होंने अपना प्रभुत्व नहीं जमाया है, ऐसे इन्द्रिय गुलामों के वृद्ध अवस्था में ये उद्गार शेष रह जाते हैं, और वृद्ध अवस्था से लाचार बनकर अफसोस किया करते हैं कि १. युवती स्त्री के हृदय को आनन्द देने वाला मेरा तारुण्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: शेष विद्या प्रकाश जवानी चली गई है परन्तु मेरा मन अभी भी उनके भोगों की लालसा में तड़फ रहा है । ३० २. जीभ इन्द्रिय के वश में आकर मैंने खाद्य प्रखाद्य का, तथा कब और कितना खाना उसका विचार तक नहीं किया । मेरे दांत गिर गये, गिरे जा रहे हैं तथापि जीभ के ऊपर मैं संयम नहीं कर सकता । ३. अलमस्त मेरा शरीर था । शरीरमद में आकर के मैंने कितने ही अत्याचार किये, अनाचार किये अब लाकड़ी का सहारा लिया, परन्तु परमात्मा का सहारा लेने का भाव अभी भी नहीं आया । ४. प्रांख इन्द्रिय का तेज घट गया है, फिर भी परमात्मा के दर्शन की चाहना नहीं होती है और युवतियों के रंगबिरंगी वस्त्रों का देखना पसन्द पड़ता है । ५. कान युगलों ने सुनना छोड़ दिया है। तथापि निर्लज्ज बना हुआ मेरा मन अश्व के माफिक संसार के भोगों में दौड़ रहा है । हाय ! मेरी क्या गति होगी ? परमात्मा के घर जाकर मैं क्या जवाब दूंगा ||२८|| परोपकार : पुण्याय पापाय परपीडनम् । - पुराण परहित सरिस धर्म नहीं भाई । परपीड़ा सम नहीं अधमाई । - तुलसीदास www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: 'संसार की विषमता' क्वचिद् विद्वद्गोष्ठी क्वचिदपि सुरामत्वकलहः क्वचिद् वीणावादः क्वचिदपि च हाहेति रुदितम् । क्वचिन्नारी रम्या क्वचिदपि जराजर्जरवपुः न जाने संसारः किममृतमयः किं विषमयः ।।२९।। ____ अर्थ-अच्छे अच्छे निर्णयात्मक बुद्धि वाले महापुरुष भी इस संसार की गति को नहीं जान सके कि यह संसार अत्यन्त सुखमय अर्थात अमृत से भरा हुआ है या अत्यन्त दुःखमय अर्थात् दुःख, दारिद्रय शोक, संताप रूपी विष से भरा हुआ है, वह इस प्रकार संसार के एक तरफ तो विद्वत् पंडित और धार्मिक पुरुषों की धर्म गोष्ठी हो रही है, तो दूसरी तरफ शराब की बोतलें तथा मांस का भोजन पेट में डाला जा रहा है। तीसरी तरफ स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त कराने वाला संगीत चल रहा है, जिसमें हजारों स्त्री पुरुष परमात्मा की धुन में लगे हुए हैं तो चौथी तरफ किसी की अकाल मृत्यु होने पर ग्राम की जनता करुण रुदन करती हुई श्मशान तरफ जा रही है। किसी के यहां रंग भवनों में युवती स्त्रियों के श्रृंगार का उपभोग हो रहा है तो अन्यत्र वृद्धत्व प्राप्त स्त्रियों को देखकर पुरुषों को उदासीनता आ रही है। सचमुच संसार क्या है ? परमात्मा जाने ।।२६।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'आशा तृष्णा का सामर्थ्य अङ्ग गलितं पलितं मुण्डं । ____दशनविहीनं जातं तुण्डम् । वृद्धो याति गृहित्वा दण्डं तदपि न मुञ्चति आशापिण्डम् ॥३०॥ अर्थ-पांच इन्द्रियों के २३ विषयों को भुगतने में जिसका शरीर वृद्ध हुआ है, फिर भी असंस्कारी मन अर्थात् ज्ञान और वैराग्य की लगाम से रहित मन यही सोचता रहता है कि __ चमकता हुआ मेरा शरीर अब गल गया है। चमकते हुए काले बाल अब रूई (कपास) के माफिक सफेद हो गये हैं । बिना दांत का मुह अब खोखला हो गया है। फिर भी आशा और तृष्णा देवी को मैं पकड़ बैठा हूं। वह इस प्रकारशरीर शिथिल होने पर भी शक्ति और पुष्टिदायक 'रसायन' सेवन का मन होता है, परन्तु तपश्चर्या का मार्ग अच्छा नहीं लगता है । दांत पड़ने पर भी सुपारी और पान खाने को मन ललचाता है, परन्तु अब भी त्याग धर्म में रुचि नहीं होती है कि पूरी जिन्दगी खाने में बिताई है, तो भी खाने की वस्तुएं समाप्त नहीं हुई, वरन मेरे दांत ही नष्ट हो गये हैं, अतः खाने की लालसा ही छोड़ दू । वृद्धावस्था प्राई परन्तु धर्मस्थानों में जाने का भाव नहीं होता है इस प्रकार प्राशाओं की मायाजाल में जीवन पूरा किया है ॥३०॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: ३३ 'उम्र का लेखा जोखा' आयुर्वर्षशतं नृणां परिमितं रात्रौतदर्ध गतं तस्यार्धस्य परस्य चार्धमपरं बालत्ववृद्धत्वयोः । शेषं व्याधि-वियोग-दुःख सहितं सेवादिभिर्नीयते जीवे वारितरङ्ग चञ्चलतरे सौख्यं कुतः प्राणिनाम् ॥३१।। अर्थ-मनुष्य का आयुष्य अनुमानत १०० वर्ष का मान लें तो उसमें से ५० वर्ष रात्रि के निद्रा देवी की गोद में पूरे हो जाते हैं, शेष जीवन के १२।। वर्ष का बाल्यकाल और १२।। वर्ष का अन्तिम काल मिलाकर २५ वर्ष और गये, अब शेष २५ वर्ष ही रहे, उसमें से भी प्राधि कभी व्याधि, कभी संयोग और वियोग आदि गहस्थाश्रम की आपत्तियों में, इस जीवात्मा का पूरा प्रायुष्य खत्म हो जाता है, महान् योगीराज श्री भर्तृहरिजी मनुष्य मात्र को संबोधन करते हुए कह रहे हैं कि ऐ भाग्यवानों आप शीघ्रता से सावधान बनकर धर्म ध्यान की उपासना करें, जिससे सुख की प्राप्ति हो सके ।।३१।। मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । जीवन को सुधारने और बिगाड़ने में मन ही मुख्य कारण है। ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः। सम्यगज्ञान और सक्रिया ही मोक्ष का मुख्य कारण है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'सुख दु.ख में समदृष्टि बनना' संसारवासे वसतां जनानां सुखं च दुखं च सदा सहस्तः । न सन्ति सर्वे दिवसाः सुखस्य दुःखप्रसङ्गोऽपि कदापि सहयः ॥३२॥ अर्थ-संसार की चार गतियों में परिभ्रमण करते हुए जीवों को सुख दुःख का अनुभव होता ही रहता है, सबके सब घड़ी, पल, दिवस, पक्ष, मास और वर्ष सुख में पूर्ण होने वाले नहीं है, और न किसी के हुए हैं। उसी प्रकार दुख के दिवस भी किसी के एक सरीखे नहीं रहे हैं, अतः सुख में फुलाना और धर्म कर्म और परमात्मा को भूल जाना, तथा दुख में रोना पीटना और घबराते हुए रहना अच्छा नहीं है "इदमपि गमिष्याते" ये भी दिन चले जायेंगे, अर्थात् आये हुए दिन एक दिन अवश्यमेव जाने वाले हैं अत: समदर्शी बनना हितप्रद है ॥३२॥ पढमंणाणं तो दया। अकल्याणकारी पाप मार्ग से जीवन को बचाने के लिये प्रथम ज्ञान की आवश्यकता है ज्ञानवान तो दयालु होता ही है। स्पष्ट वक्ता सुखी भवेत् । अहिंसक और मनोज्ञ भाषा में स्पष्ट वक्ता सुखी बनता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: ३५ 'शत्रुओं का भी हितचिन्तन' जीवन्तु मे शत्रुगणाश्च सर्वे येषां प्रसादेन विचक्षणोऽहम् । यदा यदा मां भजते प्रमादः तदा तदा ते प्रतिबोधयन्ति ॥३३॥ अर्थ-मेरे दुश्मन भी लम्बा आयुष्य प्राप्त करें। जिनकी कृपा से ही मैं हमेशा जागृत रहता हूं, जब कभी मुझे प्रमाद प्राता है, अर्थात् कर्त्तव्य भ्रष्ट होकर जब मैं उल्टा सुलटा सोचता हूं, तब मुझे मेरे शत्रुओं से भय लगता है कि ये दुश्मन मेरी निन्दा करेंगे, या मेरा अपजस बोलेंगे, इसलिए मुझे जागत, तथा विवेक के मार्ग पर स्थिर रखने में तथा आध्यात्मिक क्रांति लाने में शत्रु वर्ग का पूरा साथ है, अतः व्यक्ति या समाज के लिये शत्र वर्ग का होना नितान्त आवश्यक है ।।३३।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'जीवन को निष्फलता' जिह्वा दग्धा परान्नेन करौ दग्धौ प्रतिग्रहात् । मनो दग्धं परस्त्रीमिः कार्यसिद्धिः कथं भवेत् ||३४|| अर्थ - मृत्यु शय्या ही एक ऐसा स्थान है, जब इन्सान मात्र को सत्य ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है, और जीवन के बुरे कर्मों का साक्षात्कार भी होता है, परन्तु वह अवस्था सर्वथा असहाय और लाचारी से परिपूर्ण है, एक जीवात्मा इस प्रकार अफसोस कर रहा है कि : + १. हमेशा दूसरों का अन्न खाकर मैंने मेरी जीभ बिगाड़ी, अर्थात् पूरी जिन्दगी तक मैं माल मसालें (लड्डु ) का भगत बना, परन्तु परमात्मा का भक्त या साधु सन्तों का भक्त नहीं बन सका । २. दूसरों के धन को उड़ाने में, या गलत करने में मैंने मेरे हाथ अपवित्र बनाये, परन्तु सर्वश्रेष्ठ मनुष्य अवतार प्राप्त करके भी, मैं हाथों के द्वारा दूसरों की सेवा न कर सका, या बड़ों को, गुरूजनों को हाथ जोड़कर नमस्कार न कर सका । ३. परस्त्रियों की लुभावनी मायाजाल में आकर के मैंने मेरे मन को बिगाड़ दिया । इस अवस्था में अब मैं क्या करू ं । मेरा भला कैसे हो सकता है, क्योंकि महादयालु परमात्मा के दिये हुए जीभ, हाथ और मन का दुरुपयोग करके मैं परवश बन चुका हूँ ||३४|| Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: ३७ लक्ष्मी का सदुपयोग श्रीवृद्धिर्नखवत् छेद्या, नैव धार्या कदाचन । प्रमादात् स्खलिते क्वापि, समूला सा विनश्यति ॥३।। अर्थ-जिस प्रकार बढ़ते हुए नाखूनों को काट देना श्रेयस्कर है, उसी प्रकार बढ़ती हुई लक्ष्मी देवी को भी परिग्रह नियंत्रण के द्वारा कम करने की भावना रखनी अच्छी है। अर्थात दान, पुण्य जैसे पवित्र कार्यों में लक्ष्मी का सदुपयोग कर लेना चाहिए । अन्यथा लक्ष्मी के आने पर और बढ़ने पर यदि कुछ प्रमाद हो गया, तात्पर्य यह है कि लक्ष्मी देवी के चार पुत्रों में से बड़े पुत्र धर्मराज का अपमान यदि हो गया तो निश्चित रूप से समझना होगा कि पिछले तीन पुत्र अग्निदेव, राजा और चोर आपकी लक्ष्मी को मूल से ही नाश कर देंगे ॥३५।। लक्ष्म्या संजायते भानुः सरस्वत्यापि जायते । मनुष्यों की प्रतिभा लक्ष्मी से और सरस्वती से उत्पन्न होती है और बढ़ती है। आदमी के मुह में जो कुछ जाता है, उससे कोई भी इन्सान नापाक नहीं होता है. पर जो कुछ आदमी के मुंह से निकलता है वह आदमी को नापाक कर सकता है। जो बातें श्रादमी के मुंह से निकलती है, वह दिल से निकलती है । उसमें यदि हिंसा झूठ, व्यभिचार, बदचलनी, चोरी. और भगवान की निंदा भरी पड़ी है तो जबान से यही चीजें निकलेगी जिससे पूरा संसार नापाक हो सकता है (इन्जील ग्रन्थ ।) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'दया धर्म निर्गुणेष्वपि सत्त्वेषु दयां कुर्वन्ति साधवः । न हि संहरते ज्योत्स्ना चन्द्रश्चाण्डाल वेश्यसु ॥३६॥ अर्थ-चराचर संसार का भला करने का व्रतधारी चन्द्रमा अपनी चांदनी (प्रकाश) से चाण्डालों के या हरिजनों के घरों को भी प्रकाशित करता है, उसी प्रकार मानवता का पुजारी भी निर्गुण अर्थात् कामी, क्रोधी, दीन, दुःखी वगैरह आत्मिक और शारीरिक रोगियों पर भी दया करता है क्योंकि मध्यस्थ भाव व अनुकम्पा लक्षण से उद्भासित सम्यक्त्व (समकीत) ही उसका व्रत है ॥३६।। ___ 'मित्रता के लक्षण पापान्निवारयति योजयते हिताय गुह्य निगृहति गुणान् प्रकटी करोति । आपद्गते च न जहाति ददाति काले सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः ॥३७॥ अर्थ-शास्त्रों में मित्रों का, सन्मित्रों का लक्षण इस प्रकार बतलाया गया है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: ३६ १. पापमार्ग में जाते हुए अपने को रोक सके । २. पवित्र कार्यो में अपने को सम्मिलित करे । ३. अपनी छुपी हुई बात को जो गुप्त रखे । ४. अपने छोटे से गुणों को भी बड़ा रूप दे । ५. आपत्ति के समय में भी अपने को न छोड़े। ६. समय पर अपने को मदद देकर स्थिर करे। जिनके साथ अपने को दोस्ती बांधनी है और निभानी है, उस महानुभाव में ऊपर कही हुई छ: बातें अवश्यमेव होनी चाहिये ॥३७।। 'दाम्भिक पुरुष का जीवन' ये लुब्धचित्ता विषयादि भोगे बहिर्विरागा हृदि बद्धरागाः। ते दाम्भिका वेषभृतश्च धूर्ताः मनांसि लोकस्य तु रञ्जयन्ति ॥३८॥ अर्थ-जीवन के बाह्य व्यवहार में वैराग्य का रंग लगाया हुआ है, और प्रान्तर जीवन में पांच इन्द्रियों की भोग लालसा में जिन का मन राग द्वेष से भरा हुआ है। अर्थात् विषय वासनाओं से लदा हुआ जिनका मन है । संसार की स्टेज पर त्याग, तप, दान, पुण्य, अहिंसा, सत्य की बातें की जाती हैं और चर्ची जाती हैं, परन्तु अपने दैनंदिन (प्रतिदिन-प्रतिक्षण) के व्यक्तिगत जीवन में हिंसा का साम्राज्य है, भूठ का बोलबाला है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० :: :: शेष विद्या प्रकाश अंडे और शराब से पेट दूषित है, तथा त्याग और तप से जीवन हजारों कोस दूर है। ऐसे पंडित, कवि, कथाकार, संगीतकार, वक्ता तथा राष्ट्रनेता दाम्भिक है. जो अपनी बाह्य प्रवृत्ति से संयम और सेवा का उपहास करते हुए, समाज के, राष्ट्र के, मन को रंजित कर सकते हैं, परन्तु अपनी आत्मा को अपने आत्मदेव को कभी भी प्रसन्न नहीं कर सकते हैं ॥३८।। 'पुत्र रहित का जीवन' अपुत्रस्य गति स्ति, स्वर्गों नैव च नैव च । तस्मात्पुत्रमुखं दृष्ट्वा, स्वर्गं गच्छन्ति मानवाः ॥३९।। अर्थ-ब्राह्मण शास्त्र का यह कथन है कि जिन्होंने गृहस्थाश्रम जीवन स्वीकार नहीं किया है, ऐसे भाग्यशालियों का पुत्र रहित जीवन होने से स्वर्ग में गमन नहीं होता है अर्थात् सदगति नहीं होती है, अतः पुत्र के मुख को देखकर ही देव लोक के सुख की प्राप्ति होती है ॥३६।। आदमी हर तरह के व्याघ्र, शेर, सांप, सांड, हाथी और देवता को भी साध सकता है और साधता रहता है परन्तु अपनी जबान को साधना कठिन है। जबान एक निरंकुश चीज है उसके अन्दर घातक विष भरा हुआ है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: ४१ 'ब्रह्मचर्याश्रम की श्रेष्ठता' अनेकानि सहस्राणि-कुमार ब्रह्मचारिणाम् । दिवंगतानि विप्राणामकृत्वा कुल संततिम् ।।४।। अर्थ-उन्हीं ब्राह्मण सूत्रों में आगे चलकर वही स्मृति शास्त्र इस बात की उदघोषणा करता है कि गृहस्थाश्रम जीवन से भी ब्रह्मचर्याश्रम जीवन लाखों वार श्रेष्ठतम है, क्योंकि ब्रह्मचर्य जीवन से ही हजारों लाखों की संख्या में ब्राह्मणों के कुमारों ने विवाह शादी लग्न किये बिना ही स्वर्ग के सुखों को प्राप्त किया है ।।४०।। 'रात्रि भोजन पाप है। अस्तंगते दिवानाथे आपो रुधिर मुच्यते । अन्न च मांस समं प्रोक्तं मार्कण्डेन ऋषिणा ॥४१॥ अर्थ-अहिंसक जीवन के परम उपासक मार्कण्ड नामक ऋषि ब्राह्मण शास्त्रों के अच्छे ज्ञाता थे, तपस्वी थे। उन्होंने अपने रचे हुए मार्कण्डेय पुराण में कहा है कि जिस प्रकार घर का मालिक मरा हुआ हो और उसका शव अभी घर में पड़ा हो तब घर का कोई भी आदमी भोजन पानी नहीं करता है। उसी प्रकार दिन का स्वामी सूर्यनारायण भी अस्ताचल पर चले गये हों तब अन्न खाना मांस खाने के बराबर है, और पानी (जल) पीना लोही के समान है ।।४१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'आशा तृष्णा का फल आशाया ये दासास्ते दासाः सर्वलोकस्य । आशादासी येषां तेषां दासाय ते लोकः ॥४२॥ अर्थ-मन के और इन्द्रियों के भोगों की प्राशा में जीवन यापन करने वाला मानव सब जीवों का दास है । जैसे: स्पर्शेन्द्रिय के भोग में स्त्री की दासता (गुलामी) स्वीकारना अनिवार्य है। जिहन्द्रिय के भोग लालसा में भी इन्सान कितना गुलाम बन जाता है ? यह बात सभी के अनुभव में है। इसी प्रकार कान, नाक और प्रांख इन्द्रियों के भोग में गुलामी निश्चित है। परन्तु घड़ी आधघड़ी साधुसंतों के चरणों में बैठकर जिन्होंने अपनी आत्मा को समझा है और समझकर पाशा तृष्णा को जिन्होंने अपनी दासी बना ली है, पूरा संसार उसका दास है ॥४२॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: ४३ 'शूर, पंडित, वक्ता दाता की दुर्लभता' शतेषु जायते शूरः सहस्रषु च पण्डितः । वक्ता दशसहस्रषु दाता भवति वा न वा ॥४३॥ अर्थ-पंडित महापुरुषों का कथन है कि सौ प्रादमियों में एक शूरवीर होता है, हजारों में एक ही पण्डित होता है. लाखों में एक ही वक्ता पुरुष हो सकता है परन्तु दातार आदमी का मिलना मुश्किल है ॥४३॥ न रणे विजयाच्छूरोऽध्ययनान्न च पण्डितः । न वक्ता वाक्पटुत्वेन न दाता चार्थदानतः ॥४४॥ अर्थ-ऊपर के श्लोक में जो कथन है, उस विषय में सत्य द्रष्टाओं का यह कहना है कि रण मैदान में विजय प्राप्त कर लेने मात्र से उसको शूरवीर नहीं कह सकते हैं। शास्त्रों का अध्ययन अध्यापन करने मात्र से पंडित नहीं बन सकता है। धारावाही प्रवचन करने मात्र से उसको वक्ता कहना ठीक नहीं है। उसी प्रकार कुछ भी विचार किए बिना कीति के लोभ में आकर अर्थदान करने मात्र से उसको दानेश्वरी (दातार) कहना भी अच्छा नहीं है ॥४४।। इन्सान ! ओ इन्सान ! अपने दिल में दूसरों की तस्वीरों को रखने की अपेक्षा अपनी मां की तस्वीर को स्थान दे । जिस मां में तीन गुण हैं। पुत्र के ऊपर दया करने का, पुत्र को रोटी देने का और पुत्र के अपराधों को माफ करने का गुण भरा पड़ा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'सच्चा शूर, पंडित, वक्ता, दाता कौन है ?" इन्द्रियाणां जये शूरो, धर्मं चरति पण्डितः । सत्यवादी भवेदवक्ता, पाता भूता भय प्रदः ||४५|| अर्थ- परन्तु अनुभवियों का तो यह कहना है कि शरीर रूपी रथ के साथ जो इन्द्रिय रूपी घोड़े जुते हुए हैं उन घोड़ों के मुंह में ज्ञानरूपी लगाम डाल कर उनको सन्मार्ग में जोड़े वह सच्चा शूरवीर है। धर्म की चर्चा, या धर्म के व्याख्यान करने मात्र से वह पण्डित नहीं है, परन्तु अपने मुंह से निकले हुए धर्म के सिद्धान्तों को अपने ही जीवन में उतारे, अर्थात प्राचरण में लावे वही सच्चा पण्डित है । अपने वक्तृत्व के द्वारा हजारों लाखों को रुलाने या हंसाने वाला तो कोरा वाचाल है, परन्तु वह जो कुछ भी बोले प्रिय, पथ्य, हितकारी और मनोज्ञ भाषा में यथार्थवाद को बोले वही सत्य रूप में वक्ता है । जिसमें केवल अपनी नामना हो, और किसी भी दीन, दुःखियारे का भला न हो ऐसा हजारों लाखों का किया हुआ दान भी कुत्ते की पूंछ के माफिक निरर्थक और निष्फल है, परन्तु प्राणि मात्र को अभयदान देने वाली प्रवृत्ति या वृत्ति ही दाता का लक्षण है ॥ ४५ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: 'सुपुत्र की महिमा' एकेनापि सुवृक्षेण पुष्पितेन सुगन्धिना । वासितं तद्धनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं यथा ॥४६॥ । अर्थ- जैसे गुणवान, नम्र, सत्यवादी और प्रामाणिक सुपुत्र के द्वारा खानदान की शोभा बढ़ जाती है। वैसे ही अपनी सुगंध से आस-पास के वातावरण को सुवासमय बनाने वाला, अपने पुष्पों से जन मन को राजी करने वाला, और अपनी लकड़ी तथा छाया से इन्सान मात्र को सुख शान्ति और शीतलता देने वाला वृक्ष भी है, अत: जङ्गल के पेड़ों का रक्षण करना तथा वर्धन करना मानव मात्र के लिए तो हित में है ही परन्तु समूचे राष्ट्र का हित भी निहित है। लोभ के वशीभूत होकर जङ्गल काटना, कटवाना और कोलसे पड़वाकर व्यापार में लाखों रुपये जोड़कर श्रीमंत बनने वालों की श्रीमंताई जिसके उपयोग में आवेगी अर्थात् उसका धन उसकी रोटी जिसके पेट में जायगी, उसका जीवन भी कोलसे सा काला ही बनेगा ।।४६।। बहुत सी जातियों से या बहुत से धर्मों से या बड़े-विद्वानों से, या धर्माचार्यों से संसार का भला नहीं हो सकता है, क्योंकि इस संसार को एक ही चीज की आवश्यकता है। वह है सब के साथ 'प्रेम' का बरताव । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'गुणी पुत्र' वरमेको गुणी पुत्रो न च मूर्खशतान्यपि । एकश्चन्द्रस्तयो हन्ति न च तारागणोऽपि च ।।४७॥ अर्थ-संख्याबंद पुत्रों के मां बाप बनने की अपेक्षा एक ही पुत्र जो भक्त हो, दाता हो, शूरवीर हो उसके मां बाप बनना, अपने, अपनी समाज के और अपने देश के लिये गौरव लेने जैसा है । दर्जन दो दर्जन पुत्र के मां बाप बन भी गये तो भी उसमें क्या बहादुरी है ? जिस पुत्र से देश का, समाज का और कुटुम्ब का भला न होने पाया। जैसे आकाश में करोड़ों की संख्या में ताराओं का वर्ग है परन्तु किसी के लिये भी वह करोड़ संख्या क्या काम की है, परन्तु एक ही चन्द्र जिसके उदय होते ही पूरा विश्व प्रकाशित हो जाता है, अवश्यमेव प्रशंसनीय और प्रादरणीय भी है ॥४७॥ अनन्तानुबंधी कषायों के क्षयोपशम के बिना, मिथ्यात्व मोह का क्षयोपशम, नितान्त असम्भव है ऐसी परिस्थिति में सम्यक्त्व तो हजारों कोस दूर है। साधक ! सर्वप्रथम कषायों के दूरीकरण का मार्ग स्वीकार कर लें। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: 'कुपुत्र की निंदा एकेनापि सुपुत्रेण, सिंही स्वपिति निर्भयम् । सहैव दशभिः पुत्रेरिं वहति गर्दभी ।।४८॥ अर्थ-शूरवीर और निर्भय ऐसे एक ही पुत्र को जङ्गल की सिंहण जन्म देती है, फिर भी बच्चे के भरण पोषण की चिंता उस सिंहण को करने की नहीं होती है क्योंकि वह बच्चा स्वयमेव समर्थ है । परन्तु गर्दभी (गद्धी) जो जन्म समय में बहुत से बच्चों को जन्म देती है, परन्तु वे सब कायर होने के कारण मां के लिये भारभूत हैं ॥४८॥ 'कुलीनता और अकुलीनता' किं कुलेन विशालेन विद्याहीनस्य देहिनाम् । अकुलीनोऽपि विद्यावान् देवैरपि पूज्यते ॥४९॥ अर्थ-अपनी खानदानी में, कुटुम्ब में यदि ज्ञान ध्यान, तप त्याग, सत्य, सदाचार, प्रभृति विद्यामूलक संस्कार नहीं है, तो चाहे जितने भी बड़े बंगले हो, मन पसन्द फर्नीचर हो, और विशाल कुटुम्ब हो, तथापि निश्चित समझना होगा कि उसकी खानदानी में, वस्तुपाल, तेजपाल, भामाशा, चन्दनबाला, राजीमतो और अनुपमादेवी जैसी संतान जन्म नहीं लेती है, दूसरी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ :: :: शेष विद्या प्रकाश तरफ थोड़ा सा कुटुम्ब है परन्तु सत्य, सदाचार, न्याय और प्रामाणिकता के साथ मिष्ट-भाषी है तो वहां पर शान्ति है समाधि है और भाग्य देवता उसके पक्ष में है ।।४६।। 'कृपणता की निन्दा कीटिका संचितं धान्यं, मक्षिका संचितं मधु । कृपणैः संचितं वित्तं, तदन्यैरेव भुज्यते ।।५०।। अर्थ-निष्परिग्रह धर्म के परम और चरम उपासक तथा उपदेशक भगवान महावीर स्वामी ने मानवमात्र को समझाया था कि मानव ! धन, दौलत, सोना, चांदी ये सब साधन है, साध्य नही है अत: इस वैभव का सदुपयोग ही सीधा और सरल मार्ग है । अन्यथा कीडियों द्वारा बिल में संग्रह किया हुमा अनाज मक्खियों द्वारा बनाया हुआ मधु, जैसा दूसरों के लिये ही काम आता है । उसी प्रकार जो इन्सान मन का तथा हाथों का कंजूस है, उसका कमाया हुआ धन वकीलों में, डाक्टरों में, मकान या बंगले बनाने के, उपरान्त अपनी बहिन बेटियों को तथा पुत्रों को आखिरी फैशन ( लेटेस्ट फैशन ) वाले बनाने में ही धन का उपयोग होता हुआ नाश होगा ॥५०॥ १-अज्ञान में मौन उत्तम है। ४-जानकार के आगे अजान होना। २-पैसे वाले के सगे ज्यादा। ५-पान पर चूना नहीं लगने देना । ३-क्रोधी के सामने नम्र होना। ६-हिम्मते मर्दा तो मददे खुदा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: 'कृपणता का तिरस्कार' कृपणः स्ववधुसङ्ग न करोति भयादिति । भविता यदि मे पुत्रः समे वित्तं हरेदिति ॥५१।। अर्थ-कृपण की कृपणता का आखिरी नतीजा बतलाते हुए प्राचार्य भगवंतों ने कहा कि "यदि मेरे पुत्र होंगे तो मेरे धन का बटवारा हो जायगा" इसी डर के मारे, वह अपनी स्त्री के संग से भी डरता हुमा परदेश में जीवन बिताता है। समझना सरल होगा कि अपनी स्त्री को एक स्थान में रखकर दूसरे स्थान में या परदेश में रात्रिय बितानेवाले पुरुष के जीवन में बहुत से दुर्गुणों के साथ व्यभिचार (कुकर्म) दोष भी होता है। अतः उसको परस्त्रीगामी या वेश्यागामी बनने से कौन रोक सकता है ? ऐसी अवस्था में उसके कुटुम्ब के पुत्रों में या स्त्रियों में फैलता हुआ गुप्त दुराचार कैसे रोका जायगा ? परिणाम यह रहा कि वह कंजूस अपना अपनी जाति का, अपनो स्त्री का और अपने संतानों का अवश्यमेव द्रोही है ।।५१।। प्रौढ़ प्रताप भारी देते सदा थे उपदेश भारी। प्राचार्य चूडामणि धर्मसूरि श्री को सदा वन्दन भूरि मेरी॥ प्रखर वक्ता, निडर लेखक, शासन दीपक रमणीय है। सौम्यमुद्रा गुरुराज श्रीविद्या विजयजी वन्दनीय है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० :: :: शेष विद्या प्रकाश 'दान नहीं देने का फल' भिक्षुका नैव याचन्ते बोधयन्ति गृहे गृहे । दीयतां दीयतां किञ्चिद्दातुः फलमीदृशम् ॥ ५२ ॥ । अर्थ-- कंजूस श्रीमंतों के घर पर भिखारियों का टोला आता है । बड़ी-बड़ी हवेलियें और घर के ठाठ - माठ को देखकर आशा के मारे वे भिखारी कहते हैं कि - सेठ साहब हमको कुछ दो, सेठानी बाई हमको कुछ दो, हम भूखे हैं, हमारे बच्चे भूखे है, हम नंगे हैं, हमारे बच्चे नंगे हैं, अतः हमको दो । परन्तु हृदय का कृपण वह सेठ उन भिखारियों को गालियें देता है, और अपने नौकरों से धक्का देकर निकलवात है, उनके बच्चे गिर जाते हैं, रोते हैं । उसी समय एक कवि उधर से जा रहा होता है, इस करुण दृश्य को देखकर सेठ साहब से कहता है - हे श्रीमंतों ! हे सत्ताधारियों ! आप सुन लीजिये कि ये भिखारी लम्बे हाथ करके आपसे भीख नहीं मांग रहे हैं, परन्तु आपको उपदेश देते कह रहे हैं कि - 'हमको कछ दो' गत भव में हमारे पास खूब धन था परन्तु हमने भूखे को रोटी नहीं दी, प्यासे को पानी नहीं पिलाया और ठण्डी में कांपते हुए को कपड़ा नहीं दिया अतः इस भव में हम भिखारी बने हैं। इसलिये हम आपको लम्बे-लम्बे हाथ करके कह रहे हैं कि हमारे उदाहरण को प्रतिक्षण ध्यान में रखकर 'हम को कुछ दो' और ग्रापकी श्रीमंताई में हमारा भी कुछ भाग रहने दो, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: अन्यथा श्रीमंताई के नशे में आकर हमको यदि ठुकरा दिया, या हमारे प्रति उदासीन रहे तो प्रावते भव में प्रापको भी भिखारी बनने के लिए तैयार रहना होगा । कवि चला गया, सेठ मन ही मन समझ गया और भिखारियों को कुछ दिया, भिक्षा पाये हुए भिखारी भी सेठजी की 'जय' बोलते हुए चल दिये ॥५२।। 'बहादुर पुरुषों से देवता भो उरते हैं उद्यमं साहसं धैर्य, बलबुद्धिपराक्रमम् । षडेते यस्य विद्यन्ते, तस्य देवोऽपि शङ्कते ।।५३।। अर्थ-देवता गण भी उन भाग्यशालियों से डरते रहेंगे जिन्होंने अपने जीवन की शुरुआत से ही उद्यम, साहस, धैर्य, बल, बुद्धि, पराक्रम, ये छ गुणों को अपनाकर जीवन को सशक्त बनाया है । ये छ: गुण अन्योन्य कार्य कारण भाव से अङ्कित है, जैसे जो इन्सान उद्यम बिना का होता है, उसमें साहस गुण का विकास नहीं देखा जाता है, साहस रहित जीवन में धैर्य की प्राप्ति बुद्धदेव के शून्यबाद सदृश है, धैर्य के अभाव में मानसिक और वाचिक बल भो मृतप्राय सा होता है, और बल रहित पुरुष की वृद्धि भी परिमार्जित नही होती है, तथा बुद्धि रहित जीवन में पराक्रम के अंकुरों को जीवित दान कैसे मिल सकता है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: शेष विद्या प्रकाश अब दूसरे प्रकार से विचारते हैं कि जिन भाग्यशालियों को अच्छे माँ-बाप और अच्छे शिक्षकों के पास सत्पथगामी संस्कारों की प्राप्ति हुई है, उन्हीं के जीवन में पराक्रम नामक गुण का विकास होता है, पराक्रमशालियों में बुद्धि का विकास और वृद्धि भी अवश्यंभावी है, बुद्धि के सद्भाव में ही मानसिक और आध्यात्मिक बल दूज के चन्द्र समान बढ़ता जाता है और ऐसे बल में ही 'धैर्य' नामक उच्चपथगामी गुण का विकास होता है, धैर्यवंत का साहस भी द्विगुणित होता है, तदनन्तर 'उद्यम' गुण भी स्वपरकल्याणकारी होता है । अब बतलाइए ऐसे पुरुषों का नुकसान देवता भी कैसे कर सकता है, क्योंकि अच्छे गुणों के द्वारा मनुष्य ही जब देव समान बन गया है ||५३ || ५२ :: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: ५३ 'भाग्य रेखा' उदयति यदि भानु पश्चिमायां दिशायां प्रचलति यदि मेरुः शीततां याति वहिनः । विकसति यदि पद्म पर्वताग्रे शिखायां नाहि चलति कदापि भाविनी कर्म रेखा ॥५४।। अर्थ-सूर्यनारायण यदि पश्चिम दिशा में उदित होना चालू कर दे, मेरुपर्वत भी स्थिरता छोड़ दें, अग्नि देव भी अपना उष्ण धर्म छोड़ दे और पर्वत के शिखरों पर यदि कमलों का वन विकसित हो जाय तो भी गये भवों में किये हुए कर्मो का शुभ अशुभ फल मिट नहीं सकता है । "लाखों करो आय कर्मगति टलेना रे भाई ॥५४।। हेत फिकरे न कर्त्तव्यं करवी तो जिगरे खुदा। पाण्डुरङ्ग कृपा से ही वर्कस्य सिद्धि हवई ।। अपने नफे के वास्ते मत और का नुकसान कर। तेरा भी नुक्स हो जावेगा इस बात पर तू ख्याल कर ।। श्राव नहीं आदर नहीं, नहीं नयनों में नेह । __तस घर कबहुँ न जाइये, कंचन वर्षे मेह ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'विद्यार्थी जीवन के ८ दोष' कामं क्रोधं तथा लोभं स्वादु श्रृंगार कौतुकम् । आलस्यमिति निद्रा च विद्यार्थी हयष्ट वर्जयेत् ॥५५॥ अर्थ-“ सा विद्या या विमुक्तये" वही सच्ची विद्या है जो आत्मीय स्वतन्त्रता प्राप्त कराने में समर्थ हो, ऐसी विद्यादेवी का जो अर्थी-याचक होता है वही विद्यार्थी है । बाधक तत्व को अपने जीवन से निकाले बिना 'सावकता' भी प्राप्त नहीं होती है । अत: विद्या की आराधना के साथ ये आठ बाधक तत्व समझने चाहिए औ त्यागने की कोशिश करनी चाहिये । १. काम-ज्ञानेन्द्रियों में और मन तथा बुद्धि में मादकता (चञ्चलता) लाने वाला साहित्य, कथा, कविता बोलना, लिखना वगैरह काम तत्त्र है । २. क्रोध-मस्तिष्क में उष्णता लाकर विद्यागुरुओं के साथ विरोध कराने वाला क्रोध है। ३. लोभ-सत्तालोभ, इज्जतलोभ, फैशनलोभ व वेषपरिधान लोभ के वशीभूत होकर आत्मीय सदगुणों का ग्रहण नहीं कराने वाला लोभ है। ४. स्वादु-खाने पीने की चीजों में प्रासक्ति लाने वाला स्वादु दुर्गुण है, जिससे भोजन के समय में अन्न देवता को नमस्कार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: करके संतोषपूर्वक खाना चाहिये था। वह नहीं खा सकते और स्कूल के समय में ही खान-पान का मोह खूब बढ़ जाता है। ५. शृङ्गार-शरीर, मुह, आदि को फैशनेबल बनाये रखने को शृङ्गार कहते है, इसके प्रभाव से अपनी फैशन के द्वारा दूसरों को प्राकृष्ट करने में मन लगता है परन्तु विद्याध्ययन से मन दूर रहता है । ६. कौतुक-खेल-तमाशा, नाटक, सिनेमा, लड़ाई झगड़ों में बारंबार ध्यान लगाना कौतुक है । ७. प्रालस्य-पढ़ने के समय में नहीं पढ़ना और सोने के समय में ___ नहीं सोना पालस्य है। ८. निद्रा-पेट भर के खूब खाना जिससे निद्रा प्राती रहे। विद्यार्थी-जीवन से जिसको भविष्य में सफल महापुरुष बनना है उसको चाहिए कि ऊपर के पाठ दोषों को घटाने का प्रयत्न करे ।।५।। एक नुक्ते के फेर से हम से जुदा हुआ । वो ही नुक्ता ऊपर कर दिया तो आप ही खुदा हो गया ।। एक उदर में उपना जामण जाया वीर । __ लुगायों रे पोने पड़िया, नहीं साग में मीर ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : शेष विद्या प्रकाश " विद्यार्थी के पांच लक्षण" काकचेष्टा बकध्यानं, श्वाननिद्रा तथैव च । अल्पाहारः स्त्री त्यागो-विद्यार्थी पश्चलक्षणम् ॥५६॥ अर्थ-कौए के माफिक जिसकी संयमी चेष्टा हो । बक ( बगुला ) की स्वार्थ साधना में जो लीनता होती है उसके सद्दश विद्याध्ययन में भी लीनता हो। कुत्ते के समान जिसने निद्रा देवी को प्राधीन की है। ग्राहार के ऊपर जिसका संयम हो तथा मर्यादा हो। और स्त्रो कथा, स्त्री संसर्ग और विकार भावे से दूर रहने का अभिलाषक हो, वही सच्चा विद्यार्थी है। और विद्यादेवी की उपासना करता हा शंकराचार्य, तुलसीदास, सूरदास, हेमचन्द्राचार्य, महात्मागांधी, जवाहरलाल नेहरु के तुल्य बन सकता है ॥५६॥ St HIRTHERE Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: 'स्थानभ्रष्ट की निन्दा' स्थानम्रष्टा न शोभन्ते दन्ताः केशा नखानराः । इति विज्ञाय मतिमान, स्वस्थानं न परित्यजेत् ।।५९।। अर्थ- संसार का कोई भी पदार्थ अपने अपने स्थान में ही शोभता है । स्वार्थवश या बुद्धि म्रमवश स्थान भ्रष्टता इन्सान मात्र के लिये अवश्यमेव निन्दनीय है। जैसे दांत, केश और नाखून अपने स्थान में ही अच्छे लगते हैं और प्रशंसित बनते हैं । स्थान से पतित हुए दांत, केश और नाखून फेंकने लायक तो होते ही हैं परन्तु अस्पृश्य भी हो जाते हैं। बस यही दशा मनुष्य की है जो अपना स्थान छोडता रहता है । इसी प्रकार अपने पुरुषार्थबल से प्राप्त किया हुमा ज्ञान, विज्ञान और बुद्धि को भी सदुपयोग से अर्थात न्याय नीति, प्रमाणिकता और सत्य मार्ग से भ्रष्ट नहीं होने देना चाहिए ॥५७।। कुंवारा था जद फुटरा, परण्या पछे भाटा । छोरा छैया लारे लागा, जद हैया बाद में नाठा ।। खट्टा मीठा चरबड़ा, चार आंगल के बीच । संत कहे सुण संतवी, मिले तो कीचाकीच ॥ चणा छबीले गंगाजल, जो पूरे कीरतार । ___ काशी कबहुँ न छोड़िये, विश्वनाथ दरबार ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'सनातन धर्म' सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यम प्रियम् । प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्म सनातनः ॥ ५८ ॥ 67 अर्थ - सत्य बोलने की प्रादत हमेशा कल्याण के लिए होती है । सत्य भी वही है जिसमें प्रिय, पथ्य और हितकारी वचन बोले जाते हैं । सत्य भाषण होते हुए भी यदि अप्रिय है, अर्थात जिस भाषा के बोलने से दूसरों को दुःख होवे, किसी को मरना पड़े, या दुश्मनों का भी मर्म प्रकाशित होवे तो वह भाषा सत्य नहीं है । 'सहसा रहस्सदारे ' का अर्थ यही है, कि प्रणसमझ में, उतावल में, या ईर्ष्या बैर, क्रोध और स्वार्थ वंश में दुश्मनों के भी पापों को, अपराधों को, या भूलों को जीभ पर लाकर प्रकाशित नहीं करना चाहिये । गृहस्थाश्रमियों को सुखी बनाने का यह सिद्धमंत्र देवार्य भगवान महावीर स्वामी ने तथा प्राचार्यों ने प्रकट किया हैं । प्रिय अर्थात मीठी भाषा बोलते हुए भी यदि उसमें सत्यता का नामोनिशान नहीं है, तो यह चापलूसी की भाषा होने के कारण अकल्याणकारी भाषा है, जो बोलने लायक हर्गिज नहीं है । अपनी उन्नति चाहने वालों को यह याद रखना है कि 'स्वयं दूसरों की चापलूसी न करे, और चापलुसी करने वालों का साथीदार न बने, अन्यथा अधःपतन निश्चित है ? बस इसी का नाम सनातन धर्म है अर्थात् मानव धर्म है ।। ५८ ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: 'गृहस्थाश्रम में लक्ष्मण का ब्रह्मचर्य' भूषणं नैव जानामि, नैव जानामि कुण्डले । नूपुराण्यैव जानामि नित्यं पादाभिवन्दनात् ॥५९।। अर्थ-सीताजी का अपहरण हो जाने के बाद रस्ते में से जुदे जुदे प्राभूषण रामचन्द्र को मिले और लक्ष्मणजी को पहिचानने के वास्ते दिये, परन्तु लक्ष्मणजी उन आभूषणों को नहीं पहिचान सके । केवल भाभी (भौजाई) जो माता के समान होती है, उनके चरणवन्दन करते समय सीताजी के पैर में जो नूपुर (पायल) था उसको हाथ में लेकर लक्ष्मणजी अपने बड़े भाई से कहते हैं कि, हे भैया ! इस हार को. इन कुण्डलों को, इन बंगड़ियों को या इस कंदोरे को में नहीं पहिचान सका कि ये आभूषण किनके हैं, केवल नूपुर (झांझर) को देखकर कह सकता हूं कि यह नूपुर मेरी भाभी सीता माता का ही है। रामचन्द्रजी आदि को बड़ा भारी प्राश्चर्य होता है कि जो देवर अपनी भाभी के साथ २४ घंटे रहता है, फिर भी उसको यह मालूम नहीं है कि भाभी के शरीर पर कैसी साडी है, और क्या आभूषण है ? धन्य रे लक्ष्मण ! प्रशंसनीय रहेगी तेरी गृहस्थाश्रम की मर्यादा और आदरणीय रहेगा तेरा जीवन ॥५६।। जाट कहे सुण जाटणी, जिस गांव में रहना। ऊंट बिल्ली ले गई, तो हांजी हांजी कहना ॥ जननी जण तो भक्त जण का दाता का शूर । नहीं तो रहेजे बांझणी, मत गुमावीश नूर ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० :: 'सीताजी का ब्रह्मचर्य' मनसि वचसि काये जागरे स्वप्नमध्ये यदि मम पति भावो राघवादन्यपुंसि । तदिए दह शरीरं पापकं पावकेदम् सुकृत विकृत भाजां येन लोकैक साक्षी ॥ ६० ॥ :: शेष विद्या प्रकाश अर्थ - अग्नि परीक्षा के समय सीताजी अग्निदेव से हाथ जोड़कर कहती है, हे अग्निदेव ! यदि मेरे शरीर में मेरे वचन में, और मेरे मन में भी, जागृत समय हो या स्वप्न में भी, राघव अर्थात् मेरे पतिदेव श्री रामचन्द्रजी को छोड़कर दूसरे पुरुष में यदि पति भाव आया हो, तो इस पापी शरीर को जला कर राख कर देना, क्योंकि मेरे पाप और पुण्य के साक्षी इस समय आपको छोड़कर दूसरा कोई नहीं है । इतिहास कहता हैं कि सीताजी ने अग्निकुंड में पापात कर दिया और शील ( ब्रह्मचर्य ) के प्रभाव से लाखों करोड़ों देव-दानव, विद्याधर, असुर, किन्नर और राजा महाराजाओं के प्रत्यक्ष वह अग्निकुण्ड निर्मल जल का कुंड बन गया । अयोध्या की जनता खुश खुश हो गई, लव कुश और लक्ष्मण का हृदय कमल विकसित हुआ । हनुमान, सुग्रीव और विभीषण का मन-मयूर सम्पूर्ण कलाओं से नाच उठा और रामचन्द्रजी प्राश्चर्य हर्ष और शोक से युक्त और · शरमिंदे बन गये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: ६१ देवों ने फूलों की वर्षा को और ब्रह्मचर्य धर्म की जयकार बोलते हुए सब अपने २ स्थान में चले गये ।।६०।। 'उत्तम पुरुष का लक्षण' प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः प्रारभ्य विघ्ननिहता विरमन्ति मध्याः । विघ्नः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति ॥६१॥ अर्थ-अधम, मध्यम और उत्तम ये मनुष्य जाति के तीन भेद हैं। उसमें से-- १. जो इन्सान विघ्नों को देखकर, या विघ्नों की कल्पना करके जिन्दगी में किसी भी कार्य की शुरुयात करते ही नहीं हैं, केवल प्रालस्य देव की उपासना में रात दिन मस्त हैं वे अधम प्रकार के मनुष्य हैं। २. प्रारम्भ किये हुए कार्यों को विघ्नों से घबडा कर बीच में ही छोड़ देते हैं, वे मध्यम पुरुष हैं । ३. बारंबार विघ्नों के आने पर भी शुरु किया हुअा कार्य छोडते ही नहीं हैं, वे उत्तम है, उत्तम हैं और संसार की सब सिद्धियों की वरमाला उनके गले में पड़ती है ।।६१।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'परस्त्री में फंसे हुए मुंजराजा की दशा' रे ! रे ! यन्त्रक मा रोदिः कं कं न भ्रमयत्य सौ | कटाक्षाक्षेपमात्रेण कराक्रुष्टस्य का कथा ||६२|| अर्थ- बंदीवान मुञ्ज राजा एक कुएं के पास खड़े हैं । वहाँ रहेंट से पानी खींचा जा रहा है उसमें से 'चूँ चूँ" की आवाज ना रही है। तब मुञ्जराजा कह रहे हैं कि हे यन्त्रक ! ( पेंचका ) मत रो ! मत रो ! शान्त बन ! अरे भला अपनी टेढी ( वक्र ) आंखों से हो उच्चासन पर विराजमान कितने ही सत्ताधीशों को श्रौर श्रीमंतों को इस स्त्री जाति ने भमा लिया है - अर्थात् प्रपने चरणों के दास बना लिया है। तो भला, तुझे तो हाथों से भमा रही है, हाथों से नचवा रही है, अब रोना बेकार है अर्थात् जो भी इन्सान परस्त्रियों के चक्कर में प्रायगा उसकी दशा ऐसी ही होगी जैसी मेरी हुई है और तेरी हुई है || ६२ || जहां जेहने नहीं पारखे तहां तेहनु नहीं काम | धोबी बिचारो शुकरे ? जे छे दिगम्बरों नुं गाम || गेहूँ कहे मैं बड़ा, मेरे ऊपर मेरी खबर जब मिले, के बाई रे अत्रे जब कहे मैं बड़ा, मेरे ऊपर मेरी खबर जब मिले, के हारी आवे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat चीरा | बीरा ॥ कूका । भूखा ॥ www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: रे रे मण्डक ! मा रोदिः यदहं खण्डितोऽनया । राम रावण मुञ्जायाः स्त्रीभिः के केन खण्डिताः ॥६३।। अर्थ-एक स्त्री अपने दरवाजे पर खड़ी हुई रोटी तोड़ रही थी, तब उसमें से घी का एकाध बिन्दु नीचे गिर गया। तब मुन राजा-मालवा देश के महाराजाधिराज जो परस्त्री के प्यार के कारण बंदीवान बने हुए हैं. वह इस दृश्य को देखकर वकोक्ति में कह रहे हैं कि हे रोटी ! अब मत रो। मत रो। अर्थात् तू इस बात का दु:ख मन में मत ला कि इस स्त्री ने मुझे खण्डित कर दिया है, अर्थात् मेरे टुकड़े-टुकड़े कर दिये हैं । अरे भाई ! हास्यशीला, मोहिनी और मुग्धा इस स्त्री जात ने तो, तीन लोक के स्वामी रावण को, दुर्योधन को, कंस को, धवल सेठ को और मेरे जैसे स्वाभिमानी को भी खण्डित कर दिया है तो भला तेरो क्या गिनती ? स्त्री जाति का सहवास यही फल देता है ॥६३।। चणा कहे मैं बड़ा, मेरे ऊपर नाका । मेरी खबर जब मिले, के घोड़ा आवे थाका । मकई कहे मैं बड़ी, मेरे ऊपर चोटी । मेरी खबर जब मिले, के घरे दूजे झोटी ॥ (भैंस ) चवला कहे मैं बड़ा, मेरे ऊपर फली । मेरी खबर जब मिले, के धोती पहरे ढीली ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: शेष विद्या प्रकाश 'मूर्ख की निन्दा' उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय, न शान्तये । पयः पानं भुजङ्गानां केवलं विषवर्धनम् ।।६४॥ अर्थ-अर्थ और काम की सतत् उपासना से जिनका मन, हृदय और मस्तिष्क शून्य हो गया है, उनको धर्म का (मत्य और सदाचार का) पवित्र और कल्याणकारी उपदेश भी क्रोध कराने वाला होता है । जैसे:-दूध जैसा अमृतपान भी विष से भरे हुए सर्प (नाग) के लिये विष बन जाता है ।।६४।। 'खानदान स्त्री का धर्म कार्येषु मन्त्री करणेषु दासी ____ भोज्येषु माता शयनेषु रम्मा । धर्मानुकूला क्षमयाधरित्री पाड्गुण्यमेतद्धि पतिव्रतानाम् ।।६।। अर्थ-खानदान कुल में जन्मी हुई और विद्यादेवी की उपासना से संस्कारी बनी हुई पतिव्रता स्त्री का नोचे लिखा हमा धर्म स्वाभाविक होता है । १. महत्व के कार्यों में अपने पति को योग्य सलाह देने में मन्त्री जैसी है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: ६५ २. अपने पति के प्रत्येक कार्य में ध्यान रखने वाली होने के कारण दासी जैसी है । ३. पति को भोजन कराते समय माता के तुल्य है । ४. शयन के समय रम्भा अप्सरा के समान है । ५. धर्म कार्यों में हमेशा पति के अनुकूल रहती है । ६. सहनशीलता में पृथ्वी के समान है ।। ६५ ।। 'जाति का नुकसान जाति से होता है' कुठारमालिकां दृष्ट्वा द्रुमाः सर्वे प्रकम्पिताः । वृद्धेन कथितं तत्र, अत्र जातिर्न विद्यते || ३६ || अर्थ - कुल्हाड़ियों से भरी हुई बैलगाड़ी को जाती हुई देखकर वन के मब पेड़ कम्पित हो गये, तब एक वृद्ध ने कहा कि हे भाईयों ! तब तक डन्ने की जरूरत नहीं है जब तक तुम्हारी - प्रर्थात् वृक्ष जाति का कोई छोटा बड़ा मेम्बर इम कुल्हाड़ी में नहीं मिलता है, अर्थात लकडी का डंडा जब कुल्हाड़ी का हत्या बनता है तभी कुल्हाड़ी में पेडों को काटने की शक्ति आती है अन्यथा नहीं आती है । ठीक इसी प्रकार अपनी मनुष्य जाति में क्लेश-ककास, वैर-भेर, मार-काट की जो होली लगती है । वह दूसरी जाति वालों से नहीं परन्तु अपनी जाति के 'खुदा बक्षों' से लगती है । 11 "( घर जलता है घर की चिराग से ॥६६॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'कलियुग का प्रभाव सीदन्ति सन्तो विलसन्त्य सन्तः पुत्रा नियन्ते जनकश्चिरायुः । परेषु मैत्री स्वजनेषु वैरं पश्यन्तु लोकाः ! कलिकौतुकानि ।।६७।। अर्थ-भाग्य देवता की अवकृपा से दीन हीन बना हुमा एक वृद्ध सड़क पर चलते हुए हजारों मनुष्यों को संबोधन करता हुआ कह रह. है कि इस कलियुग का नाटक देखो, १. सज्जन मनुष्यों के ऊपर दुःख के पहाड़ टूट रहे हैं । २. दुर्जनों के घरों में घी केले उड रहे हैं । ३. छोटी उम्र के बच्चे मर रहे हैं । ४. बडी उम्र का बाप अभी जिन्दा है । ५. घर के मेम्बरों से वैर-झेर बनाया जा रहा है। ६. और दूसरों के साथ मैत्रीभाव साधा जा रहा है । ।।६७।। माता तीरथ, रिता तीरथ, तीरथ ज्येष्ठ बांधवा। कहे जिनेश्वर सब तीरथों में, मोटा तीरथ अभ्यागता ।। सासु तीरथ सुसरा तीरथ, तीरथ साला सालियां । दास मलुका यु फरमावे, बड़ा तीरथ घरवालिया ।। घाट तीरथ छास तीरथ, तीरथ गुगरी बाकरा। ___ लड्डु भगत तो यों फरमावे, तीरथ बड़ा अंगाखग। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: ६७ 'मांगना मरना समान है' वेपथुर्मलिनं वस्त्रं दीना वाग् गद्गद् स्वरः । मरणे यानि चिह्नानि तानि चिह्नानि याचके ॥६८।। अर्थ-मरण समय में जितने चिहन होते हैं उतने ही याचक ( भीख मांगने वाले ) के होते हैं जैसे१. मृत्यु के समय शरीर कम्पता है वैसे भीख मांगते समय में भी दिल और दिमाग में कम्पन होता है । २. मृत्यु के समय कपडे गंदे होते है उसी प्रकार भीख के समय में भी। ३. मरण समय में वाणी कम्पती है उसी प्रकार मांगते समय में भी कंपती है अत: कहावत है कि 'मांगन से मरना भला' ।।६।। बालपने में माता प्यारी, भर जुवानी में नारी । बुढ़ापन में लाठी प्यारी, बाबा की गति न्यारी ।। ढोला थासु ढोर भला, करे वनों में वास । जल पिये चारो चरे, करे घसें री प्रास ।। लिखा परदेश किस्मत में, वतन की याद क्या। ___ जहां कोई नहीं अपना, वहां फरियाद करना क्या १॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'संतोषी मन सदा सुखी है वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं दुकूलैः समइव परितुष्टा निर्विशेषो विशेषः स तु भवतु दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला मनसिच परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः । ६९ ।। अर्थ- समझदारीपूर्वक त्यागभाव से बने हुए त्यागी का यह कथन है कि हे श्रीमत ! यद्यपि तेरे पास स्पर्शेन्द्रिय के भोग के लिए मुलायम, रंगबिरंगी रेशमी वस्त्र है । जीभ इन्द्रीय के लिए खान पान की पूर्ण सामग्री है। नाक इन्द्रिय के भोग के लिए गुलाब, हीना और केवडे का प्रत्तर भी है। कान इन्द्रिय के विलास के वास्ते हारमोनियम रेडियो, ग्रामोफोन ग्रादि वांजित्र है । तथा आँख इन्द्रिय को तृप्त करने के लिए नयनरम्य विलासवती और रंगबिरंगी कपड़ों में और आभूषणों में सज्ज बनी हुई युवतियें हाथ जोड़ कर तेरे सामने खडी है तथापि तेरे जैसा दुःखी मैंने कहीं नहीं देखा । और मैं वृक्ष के छाल ( वल्कल ) के कपड़े अर्थात् अल्पमूल्य के मामूली कपडे पहनता | भिक्षा से निर्वाह करता हूँ और एमन्त में रहता हूँ। तो भी तेरे से मैं ज्यादा सुखी हूँ । , भैया ! सुख और दुःख मानसिक कल्पना है। संस्कारी मन सदैव सुखी है, और भोग के कीचड़ में फसा हुआ प्रसंस्कारी मन हमेशा दुःखी है । भोग में मानव दानव बनता है और त्याग में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: मानव देव बनता है इसलिए मानवता के परमोपासक, दीर्घ तपस्वी भगवान् महावीर स्वामी ने भोगोपभोग विरमणव्रत' गहस्थाश्रमियों को सुखी बनाने के लिये प्ररुपित किया है ।।६।। 'धन का उपार्जन करना अच्छा है। धन नर्जय काकुस्थ ! धनमूलमिदं जगत् । अन्तरं नव पश्यामि, निर्धनस्य मृतस्य च ।।७०।। अर्थ-दुनिया कहती है कि “जिस साधु के पास कोडी है वह साधु कोडी का है और जिस गृहस्थ के पास कोडी नहीं है वह गृहस्थ कोडी का है। इसी बात को बतलाते हुए कह रहे हैं कि हे काकुस्थ ! तू धन का उपार्जन कर, क्योंकि इस संसार में धन का मूल्य ज्यादा है। सशक्त होते हुए भी भाग्य के भरोसे बैठा हुप्रा प्रालसी पादमी व मृत दोनों एक समान है। खूब याद रखना होगा कि महापुरुषों ने भाग्य की अपेक्षा पुरुषार्थ को कोमत ज्यादा बतलाते हुए कहा "भाग्य यदि तिजोरी है तो पुरुषार्थ उसकी चाबी है । भाग्य यदि पुत्र है तो पुरुषार्थ उसका बाप है।" इन्सान ! भाग्य को प्रशंसा गाने वाली कथाओं को और कविताओं को तू भूल जा, भूल जा और पुरुषार्थ देव की प्रारती उतारना सीख ले। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० :: :: शेष विद्या प्रकाश महावीर स्वामी, बुद्धदेव, रामचन्द्रजी, वस्तुपाल. तेजपाल, भामाशा, विमल मन्त्री, मीरा बाई, अनोपमा देवी आदि सब के सब पुरुषार्थी होने से ही इतिहास के पृष्ठों में अमर हो गये ।। ७०॥ धर्म स्थान और श्मशान की महिमा' धर्मस्थाने श्मशाने च रागिणां या मतिभवेत् । यदि सा निश्चला बुद्धिः को न मुच्येत बन्धनात् ॥७१॥ अर्थ-धर्म स्थान में संतों के चरणों में जब इन्सान बैठता है तब उसकी बुद्धि में पवित्रता प्रातो है और श्मशान में जब वह बैठता है और मुर्दा जब सामने जल रहा होता है, तब संसार से उदासीनता और वैराग्य की लहर आती है। ये दोनों बातें अर्थात पवित्रता और उदासीनता यदि मनुष्य-मात्र को कायम के लिये याद रह जाय और जीवन में उतर जाय तो संसार की बड़ी बड़ी समस्याएं अपने आप से ही हल हो जाती है ।।७१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: ७१ 'ससुराल की अवहेलना' श्वसुर गृह निवासो स्वर्गतुल्यो नराणाम् ___यदि वसति दिनानि पञ्चवा षड् यथेच्छम् घृत मधुरस लुब्धा मासमेकं वसेच्चेत् स भवति खरतुल्यो मानवो मानहीनः ।।७२।। अर्थ- ससुराल में रहना इन्सान मात्र के लिए स्वर्ग तुल्य है । तो भी पांच छ दिन का रहना अच्छा है। परन्तु घी, दूध, मिष्टान्न आदि मुफ्त के खाने के चक्कर में यदि कोई जामाता (जमाई) एक महीने तक रह जाय तो अनुभवियों ने उस जमाई को गधे को उपमा दी है । क्योंकि गधे को भी स्वाभिमान नहीं होता है । कहने का सार यह है कि- 'स्वाभिमान घट जाय वहां पर ज्यादा रहना प्रत्येक व्यक्ति के लिए अच्छा नहीं है ॥७२॥ हम बत्तीस तुम अकेली बसो हमोरी मांय । जग सी कत्तर खाऊं तो फरियाद कहां ले जाय ।। तुम बत्तीस मैं अकेली बसी तुमारे मांय । जरा सी टेढी बात करूं तो बतीस ही गिर जाय ।। तान तुरंग तिरीया रस, गीत कथा कलोल । राता रस में छोड़िये, ठाकुर मित्र तंबोल ॥ नागर तो निष्फल गई, सोने गई सुगन्ध । हाथी का घीणा गया, भूल गये गोविन्द ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'दुश्चरित्र आदमी का प्रभाव' निर्वीया पृथिवी निरोषधरसा नीचा महत्त्वं गताः भूपाला निजधर्म कर्मरहिता विप्राः कुमार्ग गताः । भार्या भर्तृ विरोधिन पररता पुत्राः पितुः द्वषिणो हा ! कष्टं खलु वर्तते कलियुगे ___ धन्या नरा ये मृताः ।।७३॥ अर्थ-मनुष्यों में जब-जब पापाचरण क्रोध, मान, माया, लोभ प्रभति अविद्यामूलक आत्मा के दुगुणों की वृद्धि होती है, तब उप्त काल को कलियुग कहते हैं, उस समय अपने दिल में पड़ी हुई पापभावनाओं का प्रतिबिम्ब संसार के सब पदार्थों पर पड़ता है तब१. पृथ्वी में सत्त्वता कम हो जाती है। २. पेडों में औषधितत्त्व और रसकस भी कम हो जाता है। ३. राजाओं में भी धर्म कर्म नाश हो जाता है और वे सुरा सुन्दरी तथा शिकार में फंस कर प्रजा के वास्ते लुटेरे बन जाते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: ४. नीच जाति के लोगों का महत्त्व बढ़ जाता है। ५. पण्डितों में भी स्वार्थमात्रा अधिक बढ़ने से शास्त्रों के अर्थ में विपरीतता ला देते है। ६. धर्मचारिणो स्वस्त्री भी पति से द्वेष करती हुई मानो अपने पति के पापों को चेलेंज देती हुई परपुरुषग्त बन जाती है । ७. पुत्रों में भी पिता के प्रति द्वेष भावना उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार संघर्षमय जीवन पूरा करने के बाद जब वह वृद्ध हो जाता है तब कपाल ऊपर हाथ देता हुअा कहता हैहाय रे ! कैसा कलियुग पाया है । धन्य है वे भाग्यशाली जो मेरे पहिले मर चुके हैं ।।७३।। 'हर्ष शोक दोनों व्यर्थ है। विपत्तौ किं विषादेन संपत्तौ हर्षितेन किम् । भवितव्यं भवत्येव कर्मणो गहना गतिः ॥७४।। अर्थ-हे जीव ! विपत्तियों के आने पर दुःखी क्यों होता है ? तथा संपत्तियों के आने पर राजी भी क्यों होता है ? क्योंकि संपत्ति और विपत्ति में तो पूर्वभवीय शुभ अशुभ उपाजित किये हुए कर्मों का कारण है । अतः दोनों अवस्था में साम्यभाव धारण कर ॥७४।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'नारकोय कर्मों का फल कुग्रामवासः कुनरेन्द्र सेवा कुभोजनं क्रोधमुखी च भार्या । कन्या बहुत्वं दरिद्रता च षड़ जीवलोके नरकानि सन्ति ।।७।। अर्थ-नरक गति का वर्णन और नारकीय दुःख शास्त्रों में चाहे कैसा भी होगा परन्तु पूर्व भव में हिंसा, झूठ, चोरी, बदचलन वगैरह पाप कर्म जो इस जीवात्मा ने किये हैं उसो का फलादेश यह वर्तमान जीवन है । तभी तो १. पापकर्मी-अर्थात् सुरा सुन्दरी के भोक्ता और अभक्ष्य भोजन करने वाले राजाओं के राज्य में रहना पड़ता है । २. धर्मकर्म अर्थात सत्यभाषण, सभ्यव्यवहार से सर्वथा दूर ऐसे गांवों में जन्म होता है । ३. हजार प्रयत्न करने पर भी मनपसन्द और सात्त्विक भोजन प्राप्त नहीं होता है। ४. अनुनय विनय करने पर भी क्रोध करने वाली घर वाली (पत्नी) से असंतोष बना रहता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘शेष विद्या प्रकाश :: :: ७५ ५. चाहना करने पर भी पुत्रों को प्राप्ति न हो कर कन्यायों की प्राप्ति ज्यादा रहती है। ६. मेहनत मजदूरी करने पर भी 'तीन सांधे और तेरह टूटे' ऐमी दुर्दशा बनी रहती है । ये छ बातें जिसके जीवन में होती है उनका मनुष्य अवतार भी नरक तुल्य है ॥७५।। 'संसार का असलो रूप गगननगर तुल्यः सङ्गमोवल्लाभानां जलद पटलतुल्यं यौवनं वा धनं वा । स्वजन सुत शरीरादीनि विद्य च्चलानि क्षणिक मिति समस्तं वृद्धसंसार वृत्तम् ॥७६।। अर्थ-अदम्य उत्साह के साथ ससार की जाल को चाहे कितनी ही बढ़ा दी हो। धन, दौलत, स्त्री. पुत्र परिवार के द्वारा घर चाहे कितना ही हरा भरा दिखता हो । फर्निचर, बिजली, रेडियो, और बाग बगीचे के जरिये हाट, खेली चाहे स्वर्ग से तुलना करती हो तथापि भैया एकान्त में बैठकर जरा सोच कि१. नवयुवतियों का मिलाप गन्धर्व नगर के समान एक दिन अदृश्य होने वाला है। २. चड़ता यौवन और बढ़ता धन भी एक दिन आकाश में रहे हुए बादलों के समान आँखों से ओझल ( अदृश्य ) होगा ही। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: शेष विद्या प्रकाश ३. बिजली के चमकारे के माफिक स्वजनों का, पुत्रों का और शरीर का संबंध भी एक दिन बुद्ध देव के क्षणिक तत्त्व का भान कराने वाला होगा। अत: जन्म, जरा, मत्यू और शोक संताप के चक्कर में फंसे हुए शरीर रूपी मकान में अजर, अमर और अनन्त दिव्य शक्तियों का मालिक 'प्रात्मा' नामक पदार्थ का निरीक्षण कर, जिससे परमात्मा को पहिचान शीघ्रता से हो सके ! बस यही जीवन है, जीवन रहस्य है, और ज्ञान, विज्ञान, बुद्धि या चालाकी का परमोत्कृष्ट सार भी है ।।७६।। 'हजारों मूखों से एक पण्डित अच्छा है' पण्डिते हि गुणाः सर्वे , मूर्ख दोषाश्च केवलाः तस्माद् मूर्ख सहस्र भ्यः प्राज्ञ एको विशिष्यते ।।७७।। अर्थ-पाण्डतों में गुणों का वास है और मूरों में हजारों दोषों का वास है । अतः हजारों मूरों से भी संसार का, समाज का और कुटुम्ब का भला नहीं हो सकता है परन्तु एक ही पण्डित से पूरा संसार सुख का श्वास लेता है इसलिए पडित श्रेष्ठ है । संसार में रहते हुए भी जो मेरे तेरे के चक्कर से निलेप है, स्वार्थरहित है वह पण्डित है । और संसार की माया में पूर्ण रूप से फंसकर जो स्वार्थी बना है उसी को मूर्ख कह सकते हैं ।।७७।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश : 'बुद्धि रहित को निन्दा यस्यनास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य कगेति किम् । लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति ।।७८॥ अर्थ-प्रात्मा की दो स्त्रियें है। एक नाम सदबुद्धि और दूसरी का नाम दुर्बुद्धि (दुष्टबुद्धि) जिस भाग्यशाली ने अपने जीवन में सद्बुद्धि का विकास नहीं किया है। उनके जीवन में परमात्मा के तत्त्व को बतलाने वाले सत्शास्त्रों का स्थान नहीं होता है । समझना सरल होगा कि अच्छी खानदानी में जन्म लेकर और अच्छी विद्वत्ता प्राप्त करने पर भी१. काम तथा क्रोध के मर्यादातीत संस्कारों से । २. स्वार्थवश दया धर्म छोड़ देने से । ३- लोभान्धता में आकर के। ४. धर्म और धार्मिकता से दूर भागने पर । ५. मन, वचन, और काया में वक्रता ल ने से । ६. भयग्रस्त जीवन बनाने से । ७. दीनता का स्वभाव बनाने से । इन सात कारणों से सद्बुद्धि का मालिक भी दुष्ट बुद्धि वाला बन जायगा । तब भला सत्शास्त्रों का सुनना, समझना और जीवन में उतारना कैसे संभव हो सकता है ? ||७८॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'इस संसार में धन ही सब कुछ है' माता निन्दति नाभिनन्दति पिता भ्राता न सम्भाषते, भृत्यः कुप्यति नानुगच्छति सुतः कान्ता च नालिङ्गते । अर्थ प्रार्थनशङ्कया न कुरुते संभाषणं चै सुहृत् तस्मात् द्रव्यमुपार्जयस्य सुमते । द्रव्येण सर्वेवशाः ।।७९।। अर्थ-हे भगवान् । लक्ष्मी देवी की प्राप्ति के लिए प्रयत्न कर । कारण कि इस काल में द्रव्य ही वशीकरण मन्त्र है । जिनके पास धन है उसी की सब पूछ-ताछ करेगे। परन्तु भाग्य के भरोसे जो प्रालसी बन कर बैठा है, या विवाह शादी में या किसी के मरने बाद के भोजन में मुफ्त का कहीं से मिल जाय इस उल्टे चक्कर में आकर जिसने धन कमाना छोड़ दिया है, उसके हाल ऐसे होते है। १. माता भी बेटे की निन्दा करती है। २. पिता भी नाराज सा रहता हैं । ३. भाई भी बोलना, चालना बंद करता है। ४. नौकर चाकर भी गुस्से में रहते है । ५. पुत्र भी उसकी बात को मानता नहीं है । ६. स्त्री भी दुश्मन सा व्यवहार करती हुई प्रेम से दूर भागती है। ७. मित्रवर्ग भी दूर दूर रहता है ।७६।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: 'थोडी बुद्धिवाला भो तब पंच' बनता है' यत्र विद्वज्जनो नास्ति, श्लाघ्यस्तत्राल्पधीरपि । निरस्तपादपे देशे, एरण्डोऽपि द्रुमायते ||८०|| अर्थ - जिस समाज में, जिस गांव में या जिस कुटुम्ब में विद्वान् अर्थात रागद्वेष रहित, सत्य द्रष्टा, पढा लिखा ग्रादमी नहीं होता है वहां जातियों को सुधारने के बहाने, धर्म का चोला पहिन कर स्वार्थान्ध आदमी भी गांव का "पंच" बनकर बैठ जाता है । जैसे जिस भूमि पर बड़े बड़े वृक्ष नहीं होते हैं वहाँ 'एरण्डा' का पेड़ भी बडा कहलाता है ||८०|| 'मरुधर की महिमा' रम्याणि हम्र्म्याणि जिनेश्वराणां श्रद्धालवो यत्र वसन्ति श्राद्धाः । मुद्गा घृतं तत्र मक्का च रब्बा :: ७६ मरुस्थली सा न कथं प्रशस्या ।। ८१ ।। अर्थ - धन्य है मारवाड ( मरुधर ) भूमि को जिस की प्रशंसा सार्वत्रिक और सदैव होती है क्यों कि १. प्रत्येक गांव में देव विमानों का तिरस्कार करें, ऐसे जिनेश्वर देवों के बड़े-बड़े रमणीय प्रासाद ( मन्दिर ) विद्यमान हैं जैसे प्राबू, राणकपुर के मंदिर जिन्होंने देखे हैं । उन्होंने दांतों तले अंगुली दबाई है । बामणवाड़ा, सिरोही, केशरीयाजी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० :: :: शेष विद्या प्रकाश नाडलाई, वरकाणा, करेड़ा. चितौड़, सादड़ी और जैसलमेर आदि तो तीर्थ स्थानों में अमर नाम कर गये हैं। २. जिस भूमि के श्रावक देव, गुरु, धर्म के प्रति बड़े ही श्रद्धालु हैं। अर्थात् बड़ी श्रद्धा-पूर्वक अपने गुरुत्रों का बहुमान करने वाले हैं। ३. पेट के सब दर्दो ( रोग ) का नाश करने वाली 'मूग' की दाल प्रति दिन खाने को मिलती है, अच्छे नामांकित वैद्यराजों का भी यही मत है "मुद्गाद.ली गदव्याली' अर्थात् मूग की दाल रोगों के वास्ते सांपन (सर्पण) जैसी है । ४. 'अायुर्घतम्' आयुष्य बढ़ाने में मदद देने वाला शुद्ध घी और घी का बना हुया मिष्टान्न तो मारवाड़ में सुलभ है। ५. प्रांख, पेट और पूरे शरीर को शीतलता देने वाली छाछ (तक) घर-घर पर मिलती है । ६. मक्काई का भोजन और मक्काई की राब खाने पर तो दिल और दिमाग तर हो जाता है और शरीर में नवचेतना प्रा जाती है। सुनते भी है "मेवाड़ मां रो प्यारो भोजन धन्य मक्कारी राबड़ो" भाग्यशालियों ! मक्काई का भोजन करके हृष्ट-पुष्ट बने हुए 'राणा प्रताप'। और दिल तथा दिमाग जिनका तर था वे 'भामाशा" तथा महा-तपस्वी जैनाचार्य श्री जगतचन्द्र सूरि भी गोचरी में मक्काई का भोजन करने वाले थे। जिनकी कृपा से ही तपागच्छ सर्वत्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंष विद्या प्रकाश :: :: ८१ फला है, फूला है और सब गच्छों में ज्यादा ताकतवर है । ऐसा पौष्टिक तथा सात्विक मक्काई का भोजन मारवाड़मेवाड़ में सुलभ है। अब आप ही सोचिये कि ऐसी मारवाड़ भूमि हजारों बार प्रशसनीय क्योंकर नहीं है ? संस्कृत कवि ने भी कहा है कि--- जीवनस्वास्थ्यप्रदा भूमि: मरुधरस्य कथिता बुधैः ।। अर्थात जीवन में श्रेष्ठ स्वास्थ्य देने वाला मरुधर देश है। 'जय हो मरुधर भूमि की' ।।८१।। 'पुत्र और मित्र समान है' लालयेत् पञ्चवर्षाणि, दशवर्षाणि ताडयत् । प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदा चरेत् ॥८२।। अर्थात-पुत्र जब पांच वर्ष की उम्र तक होवे तब तक उसका लालन और पोषण बड़ो संभाल पूर्वक करना चाहिए। उसके आगे दस वर्ष की उम्र तक ताडन तर्जन करना चाहिए। अर्थात् बुरे रस्ते जाते समय रोकने के लिए प्रयत्न करना चाहिए, परन्तु उसके बाद पुत्र के प्रति मित्र जैसा भाव रखकर उसको हित कार्य में जोड़ देना यह उत्तम मार्ग है ।।२।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ : :: शेष विद्या प्रकाश 'मुझे कुशलता कैसी ?" लोकः पृच्छति भे वार्ता शरीरे कुशलं तव । कुतः कुशलमस्याकं गलत्यायुर्दिने दिने || ८३ || , अर्थ - श्राप कुशल तो हैं ? इस प्रकार सब जनता मुझे पूछती रहती है परन्तु पूछने वालों को क्या मालूम ? कि मेरा आयुष्य प्रतिदिन प्रतिसमय घटता जा रहा है । ऐमी हालत में मुझे कुशलता कैसे हो सकती है ! अतः क्षण भङ्गर जीवन है । शीघ्रातिशीघ्र धर्माराधन, सत्याचरण और ब्रह्मचर्य पालन में जीवात्मा को जोड़ने वाला ही वस्तुतः स्वस्थ है || ८३ || 'विद्वत्ता का मान ' । विप्रोऽपि भवेन्मूर्खः स पुराद् बहिरस्तु मे । कुम्भकारोऽपि यो विद्वान् स तिष्ठतु पुरे मम ॥ ८४॥ | अर्थ- कोई राजा अपने मंत्री से कह रहा है कि ब्राह्मण कुल जैसे अच्छे कुल में जन्म लेकर भी जो मूर्ख है उसको गांव के बहार रखा जाय परन्तु कुम्भार होते हुए भी यदि विद्वान् है तो उसको मेरे राज्य में स्थान मिलेगा ही || ८४|| रंगी को नारंगी कहे, तत्व माल को खोश्रा । चलती को गाड़ी कहे, देख कबीरा रोया ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: 'उदारता ही प्रशंसनीय है' अयंनिजः परोवेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।।८५।। अर्थ-जिनका मन संकुचित होता है उनके मन मे हमेशा यही भाव बना रहता है कि 'यह मेरा है वह तेरा है' परन्तु सत्पुरुषों के सहवास से जिन्होंने अपने मन को ज्ञानवान बनाने के साथ उदार बनाया है उनके मन में 'पूरा संसार मेरा कुटुम्ब है' में संसार से भिन्न नहीं हूं ऐसा भाव बना रहता है ।।८।। 'सुख दुख में समदर्शी बनना अचिन्तितानि दुःखानि यथैवायान्ति देहिनाम् । सुखान्यापि तथा मन्ये दैव मत्राति रिच्यते ।८६।। अर्थ-प्रत्येक इन्सान को 'चक्रनेमिक्रमेण' न्यायानुसार अचि. न्तित दुःख भी आते हैं, वैसे अचिन्तित सुखपरंपरा भी पाती है । इसमें भाग्य (तकदीर) ही बलवान् है ! अतः सुख दुःख पाता है और जाता है इसमें क्या हर्ष ? क्या शोक ? ॥८६।। तेल जले बत्ती जले, नाम दीवे का होय । गौरी तो पुत्र जणे, नाम पियु का होय ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'भोजराजा के प्रति बहुमान' अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती । पण्डिता खण्डिता सर्वे, भोजराजे दिवंगते ।।८७।। अर्थ-भारतवर्ष का वह सुवर्णयुग था जब कि प्रजा में सरस्वती देवी की पूजा होती थी। और राजा भी सरस्वती के परम-उपासक होते थे । छद्मवेषधारी कालीदास पंडित को भोजराज ने जब भोजराज के मृत्यु के समाचार कहे तब कालीदास दोल उठा कि 'प्राज धारा नगरी निराधार हुई । तथा सरस्वती देवी भो स्थानहीन हुई और पण्डित वर्ग भो मान रहित हुया क्योंकि पण्डितों का सत्कार करने वाला, सरस्वती का परमभक्त और प्रजा का पालक भोजराज स्वर्गवासी हए। ।।८।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . शेष विद्या प्रकाश :: :: ८५ अय धारा सदाधारा, मदालम्बा सरस्वती । पण्डिता मण्डिता सर्वे , भोजराजे भुवंगते ।।८८।। अर्थ-तब भोजराज खुश हुए, और छद्मवेष को निकालकर असली रूप में कालीदास के सामने प्रकट हुए । तब पंडित जी बोल उठे। 'आज धारा नगरी प्राधार वाली हुई, सरस्वती का स्थान पुन: स्थापित हो गया, और पण्डित वर्ग का बहुमान भी अखण्डित रहा, क्योंकि भोजराज जीवित हैं अर्थात् सरस्वती पुत्र भोज राजा प्रजा के साथ न्याय नीति का व्यवहार करने वाले थे। सरस्वती ही उनकी परम-ग्राराध्य देवता थी और पण्डितों को यथा योग्य दान दक्षिणा देकर बहमानित करते रहते थे ।।८८।। देवी की टीली कही, शिव की काठे आड़ । तीखो तिलक जैन रो, विष्णु की दो फाड़ ।। मूड मुंडाये तीन गुण, मिटे सिर की खाज । खाने को लड्डू मिले, लोग कहे महाराज ॥ निन्द। हमारी जो करे, मित्र हमारा होय । बिन पानी बिन साबु से, मैल हमारा धोय ॥ पंच, पंचोली, पोरवाल, पाडो ने परनार । पांचे पप्पा परिहरो, पछे करो व्यवहार ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'स्त्री सर्वोत्कृष्ट रत्न है' अस्मिन्नसार संसारे सारं सारङ्गलोचना | यत्कुक्षीप्रभवा एते वस्तुपाल भवादृशाः ||८९ || अर्थ - इस असार संसार में यदि कोई सार है, तो हारेण जैसी प्रांख वाली स्त्री है। जिनकी कुक्षी से वस्तुपाल, तेजपाल, विमल मंत्री, भामाशा, जगडुशाह, मीराबाई, राजीमती, चन्दन बाला जैसे नररत्न और नारी रत्न उत्पन्न हुए हैं, तीर्थंकर की माताओं को रत्नकुक्षी कहकर इन्द्र महाराज भी हाथ जोड़ता है । इसका सीधा सादा अर्थ यही है कि 'स्त्री का अपमान, ताड़न, तर्जन और शिक्षा आदि में उसका श्रनादर करना अच्छा कर्म तो हर्गिज नहीं है, उल्टा घर की आबादी को बर्बाद करने के लक्षण हैं' ||5|| 'उपसर्ग से शब्दों में चमत्कार' आयुक्तः प्राणदो लोके, वियुक्तो मुनि वल्लभः । संयुक्तः सर्वथा नेष्टः केवलः स्त्रीषु वल्लभः ||९० || अर्थ-भाव अर्थ में 'धन' प्रत्यय लगाने से 'ह' धातु का भी 'हार' शब्द बन जाता है, यदि यह हार शब्द एकला ही रह जाय तो स्त्री मात्र को खूब प्यारा गले का हार कहलाता है । प्रहार शब्द वही हार शब्द जब 'आ' उपसर्ग युक्त होता है तब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: ९७ बनता है जिस पाहार से प्राणीमात्र जीवित रहता है । जब वह 'वि' उपसर्ग के साथ कर दिया जाय तो विहार शब्द मुनिराजों के लिये प्रिय बन जाता है, क्योंकि स्थानान्तर, ग्रामान्तर देशान्तर करना ही मुनियों का श्रेष्ठ मार्ग है । और उसी हार शब्द को जब 'सं' उपसर्ग से मिला दें तब संहार शब्द बन जाता है। जब जब इन्सानों में, जातियों में, सम्प्रदायों में धर्म के नाम पर या सुधारों के नाम पर संघर्ष बढ़ता है, वैर झैर की होली भड़कतो है, और इन्सान इन्सान से एक जाति दूसरी जाति से और एक सम्प्रदाय दूसरे संप्रदाय से मर्यादातीत वैर कर लेता है और Man eata_man का रोग खूब आगे बढ़ जाता है, तब कुदरत को 'संहारकारक' शस्त्र हाथ में उठाना पड़ता है। छोटा बच्चा भी जानता है कि दो कुते या दो भैंसे आपस में कितने ही लड़ें तथापि संसार को कुछ भी नुकसान नहीं होता है, परन्तु एक इन्सान दूसरे से लड़े, या श्रीमंत, श्रीमंत से लड़े, या सत्ता धारी, सत्ताधारी से लड़े, तो निश्चित समझना चाहिये कि देश के जाति के या कुटुम्ब के बर्बाद होने के लक्षण हैं ।।१०।। पागड़ी गई आगरी, फेटा गया फाट । तीन आना री टोपी लाई, महिना चाली पाठ ।। परनारी प्रसन्न भई, देन नहीं कछु और । मुत्र स्थान प्रागे करे, यही है नरक का ठौर ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'भारतवर्ष की कमनसीब शताब्दी' हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैन मंदिरम् । न वदेत् यावनी भाषां प्राणैः कण्ठ गतैरपि ।।९१।। अर्थ-भारतवर्ष की वह कम भाग्य शताब्दी होगी जिसमें धर्मों के नाम पर या धर्म स्थानों के नाम पर मनचला तूफान हुआ होगा, उस समय किसी ने कहा 'सामने से आता हुअा हाथी भी मार दे तो मर जामो परन्तु बचाव के खातिर जैन मंदिर में मत जाना, और प्राण चले भी जायं तो परवा मत करना परन्तु यावनी (मुसलमानी-फारसी) भाषा मत सीखना । परन्तु सबों का अनुभव यह कह रहा है कि आज भी सैंकड़ों और हजारों की संख्या में ब्राह्मण लोग जैन मंदिर में वीतराग अरिहंत परमात्मा के पुजारी हैं, और जैन साधुओं के पास नौकरी भी कर रहे हैं । तथा धर्म, धुरंधर , चतुर्वेदी, त्रिवेदी और द्विवेदी भी फारसी भाषा के अच्छे पारंगत हैं, इतना ही नहीं परन्तु हिन्दी भाषा बोलने में अपमान सा अनुभव करते है और फारसी में बोलना पोजिशन समझते हैं ।।६१।। फिकर सब को खा गई, फिकर सब का पीर । फिकर की जो फाकी करे, वो नर पीर फकीर ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘शेष विद्या प्रकाश :: :: ८६ 'तष जैनियों ने भी ललकारा' सिंहेन विदार्यमानोऽपि न गच्छेच्छैव मंदिरम् । न वदेत् हिंस की भाषां प्राणैः कण्ठगतैरपि ॥१२॥ अर्थ-तब लाठी का जवाब लाठी से देते हुए किसी जैन गृहस्थ ने भी कह दिया कि सामने से आता हा शेर (सिंह) यदि आपको फाड़ दे तो भी महादेव जी के मंदिर में मत जाना, और प्राण चले भी जावे तो भी हिसकी भाषा अर्थात् दूसरों के मर्म को घात करने वाली ईर्ष्यायुक्त, अपथ्य, असभ्य और संदिग्ध भाषा का प्रयोग कभी भी मत करना ।।१२।। 'प्रान्तों की लडाई निर्विवेका मरुजनाः निर्लज्जाश्चापि गूर्जराः । निर्दया मालवाः प्रोक्ता मेदपाटे गुणास्त्रयः॥९३।। अर्थ-जब भारतवर्ष में दर्शन, व्याकरण साहित्य, वेद वेदान्त के पारगामी पंडितों का वागयुद्ध चल रहा था उसी समय भारत का एक प्रान्त दूसरे प्रान्त को ललकारता हुआ कह रहा था 'मारवाड की जनता विवेक होन होती है, जड़ होती है ऐसा लांछन गुजरातियों ने लगाया तब मारवाड़ियों ने मुह खोल दिया और कहा कि गुजरातो लोग बिना शरम के अर्थात् बेशरम होते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: शेष विद्या प्रकाश मेवाड़ी भी बोलने में पीछे नहीं रहे और मालवियों के ऊपर कटाक्ष करके कह ही दिया कि 'मालवी लोग बहुधा निर्दय होते है' तो जवाब देते हुए मालवियों ने कहा कि 'मालवी तो भले ही निर्दय रहे हों परन्तु हे मेवाड़ियों ! तुम्हारे में तो निविवेक बेशरम और निर्दयता तीनों ही गुण विद्यमान हैं । बस इसी प्रकार भारत की जनता प्रापस में लड़ती लड़ाती कमजोर हो गई और पराधीनता की हथकडियें उनके गले में हाथों में और पैरों में पड़ गई । ||३|| ६० : : 'हा ! हा ! केशव केशव' केशवं पतितं दृष्ट्वा पाण्डवार्ष मुपागताः । रुदन्ति कौरवा सर्वे हा ! हा ! केशव ! केशव ॥ ९४॥ अर्थ-रण मैदान में केशव ( कृष्ण महाराज ) को पड़े हुए देखकर पाण्डव हर्षित हुए, और कौरव रोने लगते हैं हाय रे केशव ! हाय रे केशव ! परन्तु यह इतिहास विरुद्ध बात है । इस श्लोक के बनाने में कवि ने अपने पाण्डित्य का परिचय दिया है वह इस प्रकार केशवं के जले शवं मृतं अर्थात् पानी में मुर्दों ( शव ) को पड़ा देखकर पाण्डव अर्थात् मेंढक राजी होते हैं और कौरव अर्थात् कौए रोने लगते हैं, क्योंकि कौए के हाथों से मुर्दा चला गया और मेंढकों को मिल गया ।। ६४ ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: ६१ 'शरीर लक्षण' उरो विशालं धन धान्य भोगी शिरो विशालं नृपपुङवश्च । कटी त्रिशाला बहुपुत्रदारो विशालपादः सततं सुखी स्यात् ।।९५॥ अर्थ-जिस पुरुष का वक्षस्थल विशाल होता है वह धन, धान्य का भोगी होता है । मस्तक की विशालता सत्ता प्राप्ति का निशान है कटि (कमर) की विशालता पुत्रपुत्रियों की सूचक है और पैरों की विशालता निरंतर सुखी रहने की निशानी है ।।६।। 'भारत का जेन्टलमेन' कोटं च पटलुनं च मुखे चिरुटमेव च । व्हाइट् बुट समायुक्तो जेन्टलमेन स उच्यते ।।९६॥ अर्थ-युरोप में जेन्टलमेन किसको कहते होंगे ? ये बातें तो युरोप की मुसाफरी करने वाले ही जानें, परन्तु दूसरों की बुरी बातों की नकल करके शौकीन भारतीय युवक कोट पटलून पहिन कर, मुख में चिरुट (सिगरेट) रखता हुआ, और केनवास के सफेद बुटों को पहिनकर सड़कों पर घूमता रहता ही जेन्टलमेन कहलाता है ।।६६॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'संस्कृत भाषा का चमत्कार' अजीवा यत्र जीवन्ति, निश्वसन्ति मृता अपि । कुटुम्बकलहो यत्र तस्याहं कुल बालिका ।।९७॥ अर्थ-भारतवर्ष का वह सौभाग्य युग था जिसमें जैन साधुओं और ब्राह्मणों के अतिरिक्त सब जातियों में संस्कृत भाषा बोली जाती थी । एक कन्या को किसी ने पूछा 'तुम कौनसी जाति की कन्या हो' प्रत्युत्तर देती हुई कन्या कहती है जहाँ पर जड़पदार्थ भी जीवित-मूल्यवान बनता है मरे हुए भी श्वास लेते हैं, और जहाँ कुटुम्ब क्लेश हो उस जाति की में लड़की हूं अर्थात् लौहार जाति की हूं । जिसकी कारीगरी से खराब लोहा भी अच्छे शस्त्र, हल पावड़ा वगैरह रूप में कीमती बन जाता है, धमण (चमडे की बनी हुई) जो निर्जीव है वह भी श्वास लेने लग जाती है, और जिसके यहाँ, धन, हथोडा, लोहा सब एक जाति के हैं परन्तु लुहार लोहे को गरम करके घन के ऊपर रखता है और हथोड़े से पीटता है यही प्रापसी क्लेश है ॥६७।। ------- बहता पानी निरमला, पड़ा सो गंदा होय । साधु तो रमता भला, दाग न लागे कोय ।। बहुज वणिज बहु बेटियां, दो नारी भरतार । ___ उसको क्या है मारना, मार रहा किरतार ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: ६३ जल मध्ये दीयते दानं, प्रतिग्राही न जीवति । दातारो नरकं यान्ति, तस्याऽहं कुल बालिका ।।९८।। अर्थ-जल के अन्दर दान दिया जाता है, दान लेने वाला, जीवित नहीं रहता है, और देने वाला नरक में जाता है। उस कसाई खानदान की में कन्या हूं। अर्थात् कसाई खाने की चीज को काँटे में फंसाकर पानी में डालता है, मच्छली कांटे में फस कर मर जाती है, और ऐसा कर्म करने वाला कसाई नरक में जाता है ।।६८॥ पर्वताग्रे रथो याति, भूमौ तिष्ठति सारथी। चलति वायु वेगेन, तस्याऽहं कुलबालिका ॥९९।। अर्थ-पर्वत के अग्रभाग पर रथ चलता है, सारथी भूमि पर रहता है, और रथ वायु वेग सा चलता है, उस कुभार कुल की मैं पुत्री हूं ! कुमार का चाकरूपी रथ एक कील पर वायू वेग सा चलता है, और सारथी रूपी कुभार जमीन पर बैठा रहता है ।।१६।। बुरे लगत हित के वचन, हिये विचारो श्राप । कड़वी बिन औषध पिये, मिटे न तन का ताप ।। बिना कुच की नारियां, बिना मूछ जवान । ये दोनों फिका लगे, ज्यू बिना सुपारी पान ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ :: शिरोहीना नरा यत्र, द्विभुजा करवर्जितः । जीवंतं नरं भक्षंतं तस्याऽहं कुल बालिका ॥ १०० ॥ :: शेष विद्या प्रकाश अर्थ- मैं उस दरजी के कुल की लड़की हूँ, जिनका बनाया हुआ कमीज (कोट) मस्तक रहित है, तो भी प्रादमी सा दिखता है, हाथ नहीं है फिर भी दो भुजा है, श्रौर जीवित आदमी पहिनता है ||१००|| इन चारों श्लोकों से मालूम पड़ता है कि, भारत देश में बहुत लम्बे काल तक संस्कृत भाषा का प्रचार रहा होगा, जब कि आज स्वतंत्रता मिलने पर भी तथा राज भाषा की प्रत्यन्त श्रावश्यकता होने पर भी एक राजभाषा कायम नहीं हो रही है इसके अलावा और क्या अफसोस हो सकता है ।। १००il बाजरे की रोटी, और मोठन का साग | देखी राजा मानसिह, तेरी मारवाड़ || इंद पिंद पिंद्र सिंध, गीर गधे की सवारी करे, चाल चले पीर की । अमीर की ॥ बनिया फूल गुलाब का, धूप लगे न करमाय । पत्थर मारे न मरे, पण मंदी से मर जाय || Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat मन बन्दर माने नहीं, जब लग दगा न खाय । जैसे नारी विधवा, गर्भ रहे पछताय || www.umaragyanbhandar.com Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: ::१५ 'मन्त्र तो गुप्त ही अच्छा है' षट्कोंभिद्यते मन्त्र, चतुष्कों न भिद्यते । द्विकर्णस्य तु मन्त्रस्य ब्रह्माऽप्यन्तं न गच्छति ।१०१।। अर्थ-किसी भी देश की राजनीति शक्तियों पर आधारित है, सन्धि कब करनी है ? किस देश के साथ सन्धि करने से क्या फायदा होगा ? विग्रह कब और कैसी परिस्थिति में करना ? दूसरे देश के साथ लड़ाई कब और कैसी परिस्थिति में करनी या अभी लड़ाई करने का अवसर है या नहीं ? इसमें अपने देश की शक्ति तपासना और परराष्ट्र के ऊपर पूरा पूरा ध्यान रखना इत्यादिक शक्तियों पर ही राष्ट्र बलवान बनता है. और कहलाता है । ठीक इसी प्रकार इन छ: शक्तियों में मन्त्र शक्ति भी ताकत वाली चाहिये, और इसी बात को ख्याल में रखकर राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री वगैरह सब के सब केन्द्र के तथा प्रान्तों के मन्त्रियों को तथा न्यायाधीशों को या छोटे बडे राष्ट्रप्रेमियों को एक प्रकार की शपथ दिलाते हैं और वे भाग्यशाली परमात्मा को साक्षी रखकर राष्ट्र के हित में शपथ लेते हैं कि 'हम परमात्मा की शपथ खाकर गादी (कुर्सी) संभालते हैं और "हमारे राष्ट्र की नीति को या गोपनीय बातों को कभी भी प्रकाशित नहीं करेंगे, और राष्ट्र को हानि होवे ऐसा कोई कार्य भी नहीं करेंगे"। ये शक्तिएँ जब तक गोपनीय रहती हैं तब तक राष्ट्र ताकत वाला बन जाता है और राष्ट्र की ताकत में ही सब की सुरक्षा है । भारत के राजनैतिक पुरुष को इन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: शेष विद्या प्रकाश ६६ :: शक्तियों का अभ्यास खूब कराया जाता था । ऊपर के श्लोकों का भाव यही है कि 'मंत्र ( गोपनीय बातें ) शक्ति को आउट कर देने से राष्ट्र को नुकसान पहुंचता है । १०१ ।। 'सोलह शृङ्गार' आदौमज्जनं चारुचीर तिलकं नेत्राञ्जनं कुण्डले नासा मुक्तिकः पुष्पहारधवलं झंकार कौ नूपुरौ । अंगे चन्दन लेपनं कुसुमणी क्षुद्रावली घंटिका तांबूल करकंकणं सुचरिता शृंगार का षोडशाः ।। १०२ ।। अर्थ- सौभाग्यवती स्त्री के ये १६ शृङ्गार हैं । स्नान, चन्दन का लेप, सुन्दर कपड़े, शोभनीय तिलक, प्रांखों में काजल, कानों में कुण्डल, नाक में मोती, फूलहार गले में, पैरों में भांभर, चोली, कंदोरा, मुंह में पान, हाथ में कंगन || १०२ || 'लक्ष्मी का नाश' नापितस्य गृहे क्षौरं पादेन पादधर्षणम् । आत्मरूपं जले पश्यन् शक्रस्यापि श्रियं हरेत् ॥ १०३॥ अर्थ - नीतिकारों ने लक्ष्मी के नाश होने में तीन कारण बतलाये हैं । १. नाई के घर पर बाल दाढी बनवाना | २. पैर से पैर घिसना - साफ करना । ३. अपने मुंह को पानी में देखना । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: ::१७ ‘कालीदास और भोज का संवाद' कालीदास कविश्रेष्ठ किं ते पर्वणि मुण्डनम् । अनाश्वा यत्र ताडयंते तस्मिन् पर्वणि मुण्डनम् ।।१०४।। अर्थ-मस्तक मुण्डित कालीदास को देखकर भोजराजा पूछता है 'हे कवि-श्रेष्ठ । प्राज क्या बात है ? जिससे मुण्डाना पड़ा। तब मश्करी का जवाब मश्करी में देते हुए कालीदास ने कहा कि--स्त्रियों के प्रेमवश पुरुष भी घोड़ा बने और स्त्रियों की चाबुक खावें' उस पर्व का यह मुण्डन है ।।१०४।। 'शान में समझना ही अच्छा है' वज्रकुटात् विजयरामः तिल्लीतैलेन माधवः । भूमिशय्या मणिरामः धकाधूमेन केशवः ।।१०५॥ अर्थ --अपने ससुराल से विजयराम नाम का जामाता बाजरी को रोटी देखकर घर चला गया। माधव नाम का दूसरा जमाई तेल देखकर भाग गया। मणिरामजी पृथ्वी पर सोने के कारण कुछ शरमिदे होकर चल बसे । अब केशव नाम का चौथा जमाई जो धृष्ट बनकर ससुराल से जाने का नाम भी नहीं लेता था उसको श्वसुर तथा सालाजी ने धक्का मारकर निकाल दिया और वह अफसोस करता हुअा चला गया ।१०५। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'मेरा पराक्रम' बालोऽहं जगदानन्द नमे बाला सरस्वती । पूर्णे च पञ्चमे वर्षे, वर्णयामि जगत्त्रयम् ॥१०६॥ अर्थ-होनहार बालक कह रहा है मैं अभी भले ही बालक हूं। परन्तु मेरी सरस्वती माता बाला नहीं है । जब मैं उम्र लायक बन जाऊंगा तब तीनों संसार का वर्णन करूगा ।।१०६।। 'मेवाड़ देश की प्रसिद्ध बातें' 'मेवाडे पञ्चरत्नानि कांटा, भाटा च पर्वताः । चतुर्थों राजदण्डश्च , पञ्चमं वस्त्र लूटनम् ॥१०७॥ अर्थ-मेवाड़ भूमि में पांच वस्तुएँ प्रसिद्ध हैं । कांटों का भरमार, छोटे बड़े पत्थरों का बाहुल्य, पर्वत मालाएं, राज्य दण्ड और चोर- इसीलिए तो किसी कवि ने भी कह दिया"मेवाड देशे मत जाईयो भूले चूके" ।। १०७।। मारवाड़ मनसुबे डूबी, दक्खण डूबी दाणे से। खानदेश खुर्दे से डूबी, पूरब डूबी गाने से ।। इधर उधर के सोले पाने, इकड़े तिकड़े के बार। अठे उठे के आठ आने, शुशु के आना चार ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: 'समस्या मूर्ति' कृष्णमुखी न मार्जारी, द्विजिह्वा न च सर्पिणी । पञ्चपतिर्न पाञ्चाली, यो जानाति स पण्डितः ॥ १०८॥ अर्थ- काले मुंह वाली है परन्तु बिल्ली नहीं है । दो जीभ वाली है परन्तु सांपण नहीं है । पांच पति हैं परन्तु द्रौपदी नहीं है - ( उत्तर :- कलम ) १०८ ।। 'नारियेल' वृक्षाग्रवासी न च पक्षिराजः त्वग्वस्त्रधारी न च सिद्धयोगी । त्रिनेत्रधारी न च शंकरो ऽयम् :: ६६ जलेन पूर्णो न घटो न मेघः ॥ १०९ ॥ ।। अर्थ-वृक्ष के अग्रभाग पर रहता है, परन्तु गरुड़ नहीं है । वल्कल पहिनता है परन्तु योगी नहीं है । तीन अांखें वाला है परन्तु शङ्कर नहीं है । पानी से भरा हुआ है परन्तु मेघ भी नहीं है और घट भी नहीं है (उत्तर :- नारियल ) ।। १०६ ।। शीयाले सोरठ भलो, उनाले अजमेर | नागोर तो नित का भला, श्रावण बीकानेर | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० :: :: शेष विद्या प्रकाश 'अवतार कब होते हैं !' यदायदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानाय धर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम् ।।११०।। अर्थ-गीताजी में कृष्ण भगवान् फरमा रहे हैं कि-हे अर्जुन ? देश में जब जब धर्म का पतन होता है, अत्याचार और पापाचरण बढ़ता है, तब तब धर्म का उत्थान करने के लिए मैं अवतार लेता हूं ।।११०।। 'पैगाम्बरों से सुख की याचना' खाजै खेरकरं करीम कुशलं पुत्रादि पैगम्बरं, बाबा आदिम आयुदीर्घकरणं दावल्लदे दौलतं । मार्जादा महम्मद पीर रखतं मम्हाहवामुक्तिरं, जुल्मी पीर जहान में निरखीतं हैयात् हजरत नवीं ।।१११॥ अर्थ-खाज नामक पैगाम्बर मुझे खैरियत दो । करीम कुशलता करो। पैगम्बर मुझे पुत्र-पौत्र दो । आदिम बाबा मेरा आयुष्य लम्बा करो । दावल्लदे मुझे दौलत दो। महम्मद पीर मेरी मर्यादा की रक्षा करो। मम्हा मुझे मुक्ति दो। क्योंकि संसार में ये सब अच्छे पैगम्बर है ॥१११।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: 'पैगम्बर स्तुति' अल्लाहो अकबरश्चैव, इलल्लाहस्तथैव च । महम्मदो रसुलश्च, कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ।।११२।। अर्थ-अल्लाह, अकबर, इल्लाह, महम्मद तथा रमूल नामक जितने भी पैगम्बर है वे सब मेरा मंगल करें ।।११२॥ 'देवी स्तुति मोरे नारिणि देवि विश्वजननि प्रौढ़ प्रतापान्विते. चातुर्दिनु विपक्षपक्षदलिनि वाचाचले वारुणि । लक्ष्मीकारिणि कीर्तिधारिणि महासौभाग्य संपादिनि, रूपं देहि जयं यश्च जगति वश्यं जगत् मेऽखिलम् ।।११३।। ___ अर्थ-हे देवी तू संसार की माता है । प्रौढ़ प्रताप वाली हो, चारों दिशाओं में शत्रों के समूह को नाश करने वाली हो, वाणी में स्थिर हो, वरुण पत्नी हो, लक्ष्मी देने वाली हो, कीर्तिशालिनी हो, महासौभाग्य देने वाली हो, ऐसी हे माता ! मुझे भी रूप दो, यश दो, जय दो, जिससे पूरा संसार मेरे वश में हो जाय ।।११३॥ सौ में सूर, सवा में काणो, सवा लाख में इंचाताणो। इंचाताणा ने करी पुकार, मांजर से रहना हुशियार ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'एकता की महिमा ' सक्ति सम्पादने श्रेष्ठा भवक्लेशौधनाशिनी । सर्वत एकता साध्या, परत्र हे सुखावहा ॥ ११४ ॥ अर्थ- व्यक्ति, कुटुम्ब, समाज और देश में शक्ति का संपादन प्रौर वर्धन एकता के जरिये से ही साध्य है । २. पारस्परिक क्लेशों को मिटाने में एकता की साधना अत्यन्त आवश्यक है । जितने अंशों में बन सके या जिस प्रकार से भी बन सके, एकता को बनाये रखने में ही मानवता का विकास होता है । इस लोक को सुन्दरतम बनाने में और परभव को सुधारने में एकता की आराधना मंगलदायिनी है | अतः सर्वत्र एकता एक रूप्य संघ-संगठन बनाने में ही सब का श्रेय है ।। ११४ ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: 'कैंची जैसा काम हानिप्रद है' कर्तरीसदृशंकर्म मा कुरु परछेहकम् । कुरुत्वं सूचिवत् कार्यः भद्रं वाञ्छसि हे सखे ।।११५॥ अर्थ-अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य अवतार को प्राप्त करके यदि आप अपना भला चाहते हो तो, जिस कार्य से दूसरों के व्यापार व्यवहार में नुकसान हो जाय, या उनके बाल बच्चों को भूखे मरने की नौबत आ जावे, ऐसा कैंचो (Scissors) जैसा कार्य मत करना। और सुई ( Needle) के जैसा कार्य करना, जिससे सबों का भला हो सके । समझना सरल है कि कैंची अपना काम करके गादो के नीचे दबती है और सुई अपना काम करके दरजी के मस्तक पर चढ़ती है । इन्सान भी कैची के सदृश कार्य करेगा तो सामाजिक जीवन में वह निन्दनीय बनेगा और सुई के तुल्य दूसरों को सांधने वाला सबका पूज्य और आदरणीय बनेगा ॥११५।। सुपारी कहती मैं भोली भाली, खेलु लोहे के संग। मेरे तन के टुकड़े होवे, जब खुले मेरा रंग ॥ लाल पीलो ने बादली, मूल रंग कहेवाय । बाकी ना बीजा बधां, मेलवणी थी थाय ।। भणतर रही गई बांझडी, गणतरी भूल्या गमार । परतिरीया फंदे पड़ी, रखड्या भाई संसार ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'अन्यायोपार्जित धन से नुकसान' अन्न दोषो महादोषो चाधोगामी निरंतरम् । सदाचारमयाः पुत्राः जायन्ते नहि तत्र भोः ।।११६।। 'रिश्वतं गृहयते यत्र तत्र सुसन्तति कुंतः । सतीत्वं नैव भार्यायाः गृहशोभा श्मशानवत् ।।११७।। ___ अर्थ-जैनागम में मोक्ष प्राप्ति के लिये 'मार्गानुसारिता' के पेंतीस गुणों का वर्णन सुस्पष्ट और सर्व ग्राह्य है। उसमें पहिला गुण 'न्याय सम्पन्न विभव" है, अर्थात् वैभव न्यायोपाजित होना अत्यन्त आवश्यक है । क्योंकि खाये हुए अनाज से ही शरीर में रस, लोही, मांस. हड्डी मज्जा, मेद और शुक्र (वीर्य, रज) आदि सात धातुनों का निर्माण होता है। यदि आपके पास न्यायोपाजित धन है तो इन सात धातुओं में शुद्धता और दिल दिमाग में सात्विकता आयेगी। अन्यथा इन्हीं सात धातुओं में तामसिकता और राजसिकता आने के कारण आपके जीवन के प्रतिक्षण में काम और क्रोध नाम के दो दैत्यों का प्रभुत्व रहेगा । लोभ नाम का अजगर (नागराज) मुंह फाड़कर अापके समीप बना रहेगा। संघर्षमय जीवन होने के कारण सर्वत्र वैर झेर की आग में आप सदैव संतप्त बने रहेंगे और ईर्ष्या, अतृप्ता, आशा और हिसकता नाम की राक्षसियें आपकी आंखों के सामने प्रतिक्षण नृत्य करती हुई दिखाई देगी। इस प्रकार प्रापका वैभव का नशा आपको ही नष्ट कर देगा । इसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: १०५ बात को बतलाते हुए कवि ने कहा है कि.-'अन्यायोपाजित धन से इस प्रकार नुकसान ही नुकसान है।' १. सब दोषों में महाभयंकर 'अन्नदोष' आपके यहां बना रहेगा। २. जीवन हमेशा नीचे की तरफ जाता रहेगा। ३. सदाचारी पुत्रों की प्राप्ति आकाश के पुष्पों के माफिक अशक्य रहेगी। ४. गुप्त प्रकार से पुत्रों में और पुत्रियों में दुराचार प्रवेश कर जायगा। ५. अपनी स्त्री में भी सती धर्म का ह्रास रहेगा। ६. घर की शोभा श्मशान सदृश रहेगी ।।११६-११७:। 'संत समागम के फायदे' सत्पथः प्राप्यते येन सदृष्टिः शुभभावना। समागमः सदा भूयात् सतां विवेक शालिनाम् ।। ११८ ।। अर्थ-ऐसे विवेकपूर्ण संत महात्माओं का समागस मुझे मिलता रहे जिससे दुर्लभतम तीन वस्तुओं की प्राप्ति सुलभ हो जाती है। १. आचार-विचार और उच्चार की प्राप्ति होकर सत्पथः सन्मार्ग की प्राप्ति होती है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: शेष विद्या प्रकाश २. हजारों-लाखों के दान से, या अमुक प्रकार के विधि-विधानों से भी सद-दृष्टि मिलनी अशक्य है, परन्तु साधु मुनिराजों के पास बैठकर प्राचार-विचार को प्राप्त करने वाली सद् दृष्टि सुलभ हो जाती हैं। ३. अच्छे अच्छे विख्यात महानुभावों के हृदय मंदिर में सद भावना, धर्माध्यान की ज्योत मुनिराजों के जरिये प्रकाशित हुई है ।।११८॥ 'मोक्ष की प्राप्ति श्रेणिक प्रमुखाः सर्वे सत्सङ्कस्य प्रभावतः । ध्र वं मुक्तिं वरिष्यन्ति, संसारक्लेशनाशिनीम् ।।११९॥ अर्थ-संसार की वृद्धि में 'अविद्मा, अस्मिता, राग-द्वेष और अभिनिवेश ये पांच कारण माने गये हैं । इन पाँचों क्लेशों का सम्पूर्ण नाश होने पर, या पुण्य पाप का समूल नाश होने पर, इन्सान मात्र को जो स्थान प्राप्त होता है उसको मुक्तिमोक्ष कहते हैं। ऐसे मोक्ष की प्राप्ति भी संत समागम से ही होती है । शास्त्रों में श्रेणिक वगैरह कई भाग्यशालियों की कथाएँ आती हैं उससे भी यही मालूम पड़ता है कि देवाधिदेव भगवान महावीर के समागम से ही श्रेणिक मुक्ति को प्राप्त करेंगे ।।११।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: १०७ 'जीवन में उतरा हुआ ज्ञान मोक्षप्रद है' षटकाया नवतत्वानि, कर्माण्यष्ट च मातवः । ग्रन्थानधीत्यव्याकर्तुमिति दुर्मेधसोऽप्यलम् ।।१२०।। अर्थ-काया के छ: भेद हैं. तत्व नव हैं, कर्म के पाठ प्रकार हैं और प्रवचन माता भी पाठ भेद से है, इस प्रकार उसके भेद भेदान्तर ग्रन्थों से पढ़कर उसकी व्याख्या करने में स्थूल बुद्धि वाला भी समर्थ हो सकता है। परन्तु ये ही तत्व यदि जीवन में उतर जाय, या उतार देने में प्रयत्नशील रहे तो चौक्कस उस साधक का बेड़ा पार है, पृथ्वीकाय, अपकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पति काय और सकाय में ८४ लाख जीवायोनि के जीवों का समावेश हो जाता है, अतः इन छ: कार्यों के जीव की हत्या से बचना ही श्रेष्ठ मार्ग है। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, पाश्रव, संवर, वंध निर्जरा और मोक्ष ये नवतत्व हैं । अनादिकाल से यह जीवात्मा, अनंतशक्ति का मालिक होते हुए भी, पाश्रव पुण्य और पापमय क्रियाओं के सेवन से अजीव अर्थात् कर्मराजा का बंधन करता रहता है । साधु समागम के द्वारा ही उन कर्मों का मंवर करके पूर्वोपाजित कर्मों का निर्जरण करता हुमा मोक्ष को प्राप्त करता है। मिथ्यात्व, अवरति, प्रमाद और कषाय के द्वारा यह जीव प्रतिक्षण, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, वेदनीय, नाम, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ :: :: शेष विद्या प्रकाश गोत्र, प्रायु और अंतराय कर्मों का उपार्जन करता है। ये पाठ कर्म हैं। पाठ प्रवचन माता इस प्रकार है : ईर्या समिति, भाषा समिति, प्रादान निक्षेप समिति, एषणा समिति और व्युत्सर्ग समिति तथा मनोगुप्ति, वचोगुप्ति तथा कायगुप्ति ये प्रवचन माता कहलाती है। साधु मात्र को तन्मय बनकर उनकी आराधना में ही अपना श्रेय समझना चाहिए ।।१२०॥ ब्रह्मचर्य भंग से नुकसान आकर्षणं मनुष्यस्य, सौन्दर्य कायिकं बलम् । स्मृति तिस्तथा स्फूर्तिः नश्यन्ते ब्रह्मनाशतः ॥१२१॥ अर्थ-स्वदारा संतोष तथा परदारागमन त्याग । यह गृहस्थाश्रमियों का ब्रह्मचर्य व्रत है, इनके नाश से मनुष्य के शरीर का प्राकर्षण तथा सौन्दर्य नाश हो जाता है तथा कायिक बल का ह्रास होता है, याद शक्ति, धैर्य तथा मन-वचन काया की स्फूर्ति भी नाश होती है । हाथी हिंडत देख, कुतरा भस भस मरे । बडपण तणो विधेक, क्रोध न आवे रे किसनीया ।। श्वानों को मिलता दूध वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं । मां की हड़ी से चिपक, ठिठुर जाड़ों की रात बीताते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: १०६ 'ब्रह्मचर्य के पालन में दोषों का नाश होता है' आलस्यमङ्गजाऽञ्च, शौथिल्यं सत्त्वहीनता । ब्रह्मचर्य न विद्यन्ते दोषा ! प्रमादसूचकाः ।।१२२।। अर्थ-अपनी मर्यादा में रहता हुअा पुरुष जो ब्रह्मचर्य धर्म की आराधना करता है तो प्रालस्य, शरीर जड़ता, शौथिल्य तथा सत्त्वहानि वगैरह दोषों से उसकी मुक्ति होती है ।।१२२।। 'विचक्षण कौन है ?' हयस्तनं कम मा पश्य श्वस्तनं मा विचारय । वर्तमानेन कालेन वर्तन्ते हि विचक्षणाः ।।१२३॥ अर्थ-हे भैया ! भूतकाल तो चला गया है अब हजारों प्रयत्न करने पर भी गया हुअा काल वापिस पा नहीं सकता। अतः उसी के गुण गान करने से या रोते रहने से क्या फायदा है ? भविष्य काल अभी दूर है जब वह मस्तक पर आया ही नहीं है तो गधे के सींग के समान उस भावी काल के बाजे बजाना भी छोड़ दे। तू यदि बुद्धिमान है, विवेकी है तो जिस महा दयालु परमात्मा की कृपा से वर्तमान काल तेरे हाथ में पाया है उसो को सुधार ले भैया, ऐसी भूलें मत करना, निरर्थक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० :: :: शेष विद्या प्रकाश और निष्फल चेष्टानों में या खेल तमाशा प्रभृति में वर्तमान काल को बर्बाद मत करना अन्यथा भविष्य काल भी तेरा दुश्मन बन कर तेरे मस्तक पर जब प्रायगा तब तेरा क्या होगा ? तुझे कौन मदद देगा ? अतः वर्तमान काल को ही ऐमा बना ले जिससे भविष्य काल आशीर्वाद सा बन जाय ।। १२३ ।। 'अन्तिम प्रार्थना' विद्या भक्तो नयापेक्षी पूर्णानन्दोऽस्मि हे प्रभो । याचे शान्ति पुनर्भक्तिं शासने तब निर्मले || १२४ || अर्थ- मेरे हृदय रूपी कमल को विकसित करने में मित्र समान ! दीन दयाल ! मेरे प्रभो ! मैं आपसे अपूर्व शान्ति चाहता हूं और आपके निर्मल शासन में मेरी भक्ति भवोभव बनी रहे यही अभ्यर्थना है । मैं विद्या भक्त हूं नीति न्याय से अपेक्षित मेरा जीवन है, ग्रतः पूर्ण आनन्द की प्राप्ति का याचक मैं नाम निरपेक्षसे पूर्णानन्द हूं । अब मुझे भाव निक्षेप से पूर्णानन्द पद चाहिए ।। १२४ ।। युवति का लज्जा वसन बेच, जब ब्याज चुकाया जाता है । मालिक तब तेल फुलेलों पर, पानी सा द्रव्य बहाता है || Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: १११ सम्पूर्णा सम्यक्त्वमूलक द्वादशव्रत-अतिचार संख्यकाः एकशतचतुविंशति-समापका श्लोकाः नवयुग प्रवर्तक, उपरियाला प्रभृति तीर्थोद्धारक, बम्बई जैन स्वयं सेवक मण्डल व पालोतणा जैन गुरुकुल संस्थापक शास्त्रीय ज्ञान प्रचारक, सत्पथ प्रदर्शक, स्यादवाद नय नयन धारक, शास्त्र विशारद, जैनाचार्य स्व० १००८ श्री विजय धर्म सूरीश्वर के शिष्य, शासनदोपक, अहिंसा धर्म प्रचारक, अद्वितीय व्याख्यातृ शक्ति घारक पूज्य गुरुदेव स्व० श्री विद्याविजयजी महाराज के शिष्य न्याय व्याकरण काव्य तीर्थ मुनि पूर्णानन्द विजयेन ( कुमार श्रमण ) अनुवादितं, संशोधितं, परिमाजितं चेदं पुस्तकम् । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ :: :: शेष विद्या प्रकाश श्री वर्धमान तप का महात्म्य अथीरंपि थिरं वंकं -पिउजु दुल्लहंपि तह सुलहं, दुम्सज्झंपि सुसज्झं तवेण सप्पज्जए कज्जं । अर्थ-तप के प्रभाव से जो कार्य अस्थिर होता है वह भी स्थिर हो जाता है, टेढा होता है वह भी सीधा हो जाता है, दुसाध्य होता है वह भी सुमाध्य हो जाता है । 'तप से कार्य की सिद्धि होती है' यह वर्धभान तप ! महान् तप गिना जाता है । तीर्थङ्कर भगवंतों ने इस तप की खूब २ प्रशंसा की है । तत्त्वार्थ भास्य में भी रत्नावली कन्कावली आदि जो तप है उनके साथ इस तप की भी गिनती की है । वर्धमान तप याने क्रम से बढ़ता हुआ तप इस तप की शुरुग्रात ( प्रारम्भ ) ५ प्रोली साथ में की जाती है । इम वर्धमान तप की खूबी तो यह है कि इसके पारणे में उपवास होता है । इस वर्धमान तप की १०० प्रोली होने पर ५ हजार ५० प्रायम्बिल १०० उपवास होते हैं । एक ही साथ में एक सौ प्रोली की जावे तो १४ वर्ष ३ महीने श्रौर २० दिन लगते है । कई लोग तप को दुःख रूप या निर्बल काया हो जाती है ऐसा मानते हैं । वह उनकी भ्रमणा है । तप दुःख रूप नहीं है परन्तु सुख रूप है । तप यह काया को दुःख देने वाला नहीं है परन्तु देह को निर्बल बनाता है। बाह्य और ग्रन्तर तप दोनों प्रकार के कर्मों को पाते हैं यानि जलाते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com 1 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वर्धमान आयंबील की १०० ओली की समाप्ति तपस्वीगण चतुर्विध संघ सुमी मोनचादी २.शेमकावडी बा. दोनो सर्व करणे म्ममपतरोए मदी थी पियानो तीजी महानन्दादियो नोसेनरंतमबिजयी मुनी यो रमृरकवि मनो यो ममोहतमिमी नौ यो मानिरी सन्ट्रय मुनो श्री भयोधविजयी भूमौ श्री भूपक्षियी माम्बोसोथो राजेन्दबोटो मुनो श्रीमुदिज्यको साजरको श्रीसंगोभीनी सायीको यो नो यौहो . सारमारकबाल गाह प्रयामाई मुनी थी. अशावमी सावीत्री मो पुलकुनाचीजों - ઝવણ થીજી મારાજ माह सोनाल मालोजोश्रीप्रदीदधीजी Desमारवादी परमा श्रीमनोनमारको २०२३ प्राप्ति स्थान : एस. आर. सत्तावत बीजापुर (राजस्थान) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAR शासनदीपक मुनिराज श्री विद्याविजयजी महाराज Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: ११३ लेकिन जीव को या देह को नहीं तपाते । प्रात्मा को तो दोनों तप शांति देने वाले हैं । काया और मन को विशुद्ध बनाता है । रोगी को जितना आवश्यक उपयोगी है उतना ही इस क्रम रोगी के लिये उपयोगी है । वर्तमान समय में मनुष्यों के लिये सिप्रायम्बिल तप कर्म निर्जरा का मूल्य साधन है क्योंकि इसमें अहार के त्याग को कोई प्रधानता नहीं है परन्तु अहार में रहे हए रस और उसके स्वाद की त्याग की प्रधानता है। इस तप में हमेशा अहार लेने का है। सिर्फ इसमें रस-युक्त पदाथों का ही त्याग है । उसका सेवन दीर्घकाल तक हो सकता है और कर्म निर्जरा का भी लाभ मिलता है । शास्त्र में कहा हुआ है कि जिस मुनि का भोजन प्रसार है यानि नीरस है उसका तप कर्मों को छेदने के लिये सार है यानी वज्र है और जिसका भोजन सार यानि रस-युक्त है उसका तप असार है यानि कर्मों को तोड़ने के लिये दुर्लभ है । प्रेम छुपाया ना छुपे, जा घट भया प्रकाश । दाबी दूबी ना रहे, कस्तूरी की बास ।। क्या करेगा प्यार वो भगवान् से ? क्या करेगा प्यार वो ईमान में जन्म लेकर गोद में इन्सान की। कर सका न प्यार जो इन्सान से ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ :: :: शेष विद्या प्रकाश प्राण पोषक अन्न या रस ? प्राण का सम्बन्ध अन्न से है परन्तु वह रस के साथ नहीं है । अकेले अन्न से जीवित रह सकते हैं । लेकिन अकेले रस से नहीं । मांसाहरी को भी अन्न की क्यों जरूरत पड़ती है ? मांस में भले हो रस होवे परन्तु प्राण-पोषक तत्व तो धानी में ही है, इसी तरह दूध, दही, घी, गुड़ या तेल में रस भले ही होवे लेकिन धान्य बिना केवल उस रस के भोजन से पाहार आदिक शरीर को टिकाने वाला नहीं परन्तु क्षीण करने वाला होता है। ज्यादातर जीव, घी, शक्कर, खाने वाले अजीर्ण के रोग से पीड़ित होते हैं । रस या आरोग्य पोषक नहीं है परन्तु नाशक नहीं है । वर्धमान तप में आगे बढ़ने की भावना यह भी एक महान लाभ है तथा वर्धमान तप में थकावट के बदले में आगे बढ़ने की तमन्ना बढ़ती है। अठाई आदि तपस्या बारम्बार करने पर दूसरी बार करने की भावना होती है । बारम्बार नहीं, वर्धमान तप में सहज ही आगे बढ़ने की भावना चालू हो जाती है कि चलो सताईसवीं अोली पूरी हुई । अब अठाईस और उनतीस ही साथ में कर लेवें। चलो देखो पंचांग अोली कब चालू करें और पारणे का उपवास कब प्राता है मालूम नहीं कि धन की तरह यह भी एक मूड़ी है और उसके बढ़ाने की तमन्ना जागती है। शास्त्रकार कहते हैं कि 'तयस्खाया सो सार खाया' तयक्खाया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: ११५ ते सार खाया" जो अनाज के छोड़े, लूखा और रस-कस बिना का खाता है । सही रीति से सीखाता है, सही आराधना के सयों का मांग खाता है, आहार के रस को तोड़ने के लिये वर्धमान तप एक महान शस्त्र है । श्री वर्धमान तप से प्रात्मा स्वर्ण की तरह शुद्ध होती है । नरकादिक के दुःखों का अन्त पाता है । मात्र एक ही प्रायंबिल से सहस्त्र करोड़ वर्ष नरक के त्रासदायक पाप नाश होने का है । तो अनेक से तो पूछना ही क्या । काया पर से ममत्व घटता है और दुर्भावनाओं का नाश होता है । श्री चन्द्र कुमार केवली ने सौ अोली सम्पूर्ण की थी। वर्धमान तप के प्रभाव से दृष्टान्त में चन्द्रकुमार का नाम ८०० चौबीसी तक अमर रहने का है। वर्तमान में इस तप को महिमा श्री वर्धमान तप के संबंध में कई मुनिराजों ने पुस्तकें लिखी । परिचय भी दिया। और तप का महात्म्य बढाया जगह जगह वर्धमान तप आयंबिल खाते खोले गये । प्रथम श्री वर्धमान तप प्रायंबिल खाता के संस्थापक श्रीमान तपस्वीजी श्री गुलाबचन्द्रजो तेजाजी नाणा (राज.) ने बम्बई में श्री आदिश्वरजी जैन मन्दिर में मं० १९७० में खोला गया। और बम्बई वधमान तप प्रायविल खाता के संस्थापक भी पाप ही हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ :: :: शेष विद्या प्रकाश आज तक इस पंचमकाल में संवत २०२५ मौन एकादशी तक १०० अोली संपूर्ण करने वालों की निम्नलिखित संख्या है। १६ सोलह मुनिराज ६ छः साध्वीजी ११ ग्यारह श्रावक १ एक श्राविका पंडित शेषमलजी ने परिश्रम करके १०० अोली सम्पूर्ण करने वाले महानुभावों के फोटो और प्राप्त किये । जिसका तपस्वी ग्रुप फोटो तैयार करवा कर प्रकाशित किया। जो जनता के दर्शनार्थ पुस्तक में भी प्रकाशित किया। विरम गांव निवासी तपस्वी भाई श्री रविलाल खोड़ीदास ने २०१७ भादवा बदी १० से श्री वर्धमान तप का प्रारम्भ किया और अभी ७२वीं अोली चालू हैं और जिन्दगी तक आयं. बिल करने का नियम लिया है । धन्य है तपस्वी को। संवत् २०२४ चैत्र सुदी पूनम को श्री नाकोड़ाजी तीर्थ में श्री शेषमलजी को तपस्वी रतिलाल भाई का मिलन हुअा, तब से इनकी भावना भी हुई कि अब अोली ऐसा दिन देख कर चालू करें कि पारना करने की इच्छा हो न होवे। चैत्र सुदी पूनम अठावनवीं पोलो सम्पूर्ण कर बदो एकम को पारणा किया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: बाद में २०२४ प्राषाढ़ बदी पाठम (गुजराती जेठ बदी पाठम) मंगलवार को उनसठवो अोली चालू की जो आज तक चालू है और जहां तक हो सके वहां तक पारणा नहीं करना । जिन्दगी के अंतिम वन और वर्धमान तप के अंतिम वन सम्पूर्ण किये। अब वन से बाहर निकल कर बेधड़क निडर होकर तपस्या कर रहे हैं । शासन देव से प्रार्थना करते हैं कि सतावतजी को १०० पोली सम्पूर्ण करने की शक्ति प्रदान करें। पन्यास भद्रंकर विजय गणि विसलपुर (राजस्थान) माह सुदी १५ सं० २०२५ Sias Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ :: :: शेष विद्या प्रकाश राता महावीरजी स्तवन पावापुरी के वासी तुजको क्रोड़ों प्रणाम तुजको क्रोड़ों प्रणाम बीजापुर से अधकोस ऊपर हस्तुतुडी है अति सुदर राता महावीर नाम तुजको कोड़ प्रणाम ! सिद्धारथ कूल दीपक जाणो त्रिशला राणी के लाडला मानो वर्धमान गुण नाम तुजने कोड़ो प्रणाम । नंदीवर्धन के बांधव हो यशोदा के कंत तुम्ही हो। क्षत्रीय कुड शिरताज तुजने कोड प्रणाम । मूर्ति यह है इंदर की प्यारी, हिंगाक्षी की शोभा न्यारी शिला-लेख अजमेर तुजको कोड़ प्रणाम । झाडी जंगल पर्वत सोहे दर्शन से तो मनहु मोहे ___ सनमुख है हनुमान तुजने कोड प्रणाम चैत्र सुदी दशमी दिन जाणो मेलानो है मोरो ठाणो आवे जैन अजैन जिनने कोड़ो प्रणाम । धर्म सूरि के पुण्य प्रभावे विद्या विजय मुरु मन भावे शिवपुरी के मण्डल तुजको क्रोडो प्रणाम । बाणु शाले भाद्रव मासे बाली नगरे को दश दिवसे सत्तावत गुण गाय तुजने क्रोड़ो प्रणाम । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: ११६ रूढी विनाशक गायन हांरे म्हारी मरुधर सहेलियां सांभलो रे हालो जुना रिवाजो ने मे लिये । मोटा मोटा घाघराने लपियांरा देणा फोगटरा फेटीयाने फाडजो हालो जुना रिवाजो ने मेलिये । माथा रो गुंथणो ने आरी रो घालणो पगोरी बेडीयो ने तोड़जोरे हालो जुना रीवाजो ने मेलिये । दोतांरो चुडलो ने दोतों रा मुठीया दोतों रो पहेरणो मेलजोरे हालो जुना रीवाजो ने मेलीये । अंग आखु ढांके वा कुरती रे पहेरो कपाले देजो लाल टीलडी रे हालो जुना रिवाजो ने मेलिये । फाटा फाटा गावे जाने होलीरी मौजो नाचतां लाज घणी मावजोरे हालो जुना रिवाजो ने मेलिये । टीली बिनारी प्यारी नारी ए विधवा स्वामिनी एही निशानीरे हालो जुना रिवाजो ने मेलिये । भणचु ने कातवु लेजोरे हाथ मां गोबर सहेलियांरे दिलमां उमेद मुम्बापुरी नयरीए डुंगरी लावणा ने मेलणोरे रिवाजो ने मे लिये । हालो जुना होजो दुनियारी कहेण ने छोडजोरे बजार रे राजसुत शेष हालो एम बोले रे हालो । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० :: :: शेष विद्या प्रकाश आनन्द पत्रिका बिलासपुर नगरी भलीरे मरुधर मां मनोहार चालो भवी देखवारे प्रतिष्ठा महोत्सव थाय छेरे धर्मनाथ दरबार, चालो भवी देखबारे अन्जन शलाका श्रेष्ठ माँ रे कहेतां न आवे पार चालो भवी जैन श्वेताम्बर नी वली रे कॉनफरन्स हितकार चालो भवी... साल बाणु नी जाणजोरे वैशाख की मनोहार चालो भवी.... उज्जवल दशमी नो दिने रे सोमवार सुखकार चालो ... मूरि सम्राट तिहां कने रे देखो ते देव समान चालो भवी वाणी सूरिजी की सांभलो रे हर्ष थकी बहुमान चालो विविध प्रकारनी पूजनारे नित नित भारी होय चालो महाकीर मंडल प्रावीयु रे बामण वाउ मनाद चालो डुगरनी रचना थणी रे कहेतां न आवे पार चालो अष्टादश तुमे देखनो रे शत्रुजय गिरनार चालो सम्मेत शिखरजी ने वंदजोरे पाबुजी छे मनोहार चालो आठ दिवस वली जाणजो रे स्वामी वच्छल होय चालो वर प्रथम तुमे जाणजोरे गोदाजी ना रायचंद चालो वर दूजी जेठमल्ल नी रे त्रीजी छे रायचंद चालो वर चोथी अमीचंद नी रे पांचमे किस्तुर चंद चालो वर छटी अमीचंद नी रे सातमे छे देवीचंद चालो पाठमी वर केशरीमल्ल नी रे नवमे लछी प्रेमचन्द चालो वार रवी मुम्बापुरी रे सत्तावत गुण गाय चालो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: १२१ पउदा (चांदणिया) विनाशक चांदणियां चांदणियों चांदणियां चांदणियां ने आगी नाखो भला होवे ला थांरो । पदमणि जी पियु से फरमावे दोष कांई है म्हारो चांदणियां मे घाल घाल ने बिना मोत क्यु ? मारो चांदणियां पाछा निर्वल हुआ बालमु छिपा छिपाने राखो । मर्द हुमा क्यु ? पालो पडदो खुली हवा में राखो चांदणियां पहोचावण वाली नहीं मिले जब हाथा जोडी करणी जीणां जीणां री गरजां करतां लाजे थारी परणी चांदणियां किल बिल किल बिल करतां चाली सांडीया मारी भेटी एक उछल गई दूजी नाठी तीजी लांबी लेरी चांदणियां सज्जन ऐसा पडदा सु तो लुगायां दुःख पावे दिन दिन रोगी होती जावे टी. बी. सू मर जावे चांदणियां संवत् दो हजार वर्षे चैत्र सुदी दूजे जोधाणारी रेल मे तो सत्तावत् बोले चांदणियां Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ :: :: शेष विद्या प्रकाश कहावतें :-- अपने कर से असि उठाकर, अपने सिर पर लाते हैं। अपनी नौका अपने कर से मूरख नित्य डुबाते हैं । शंखली नाणा श्रापती लपोडशंख मुझ नाम । मांगो मांगो बहुँ कहुँ पण कोड़ी न आपु दाम ॥ दाता दाता मर गये जिन्दे रहे मक्खीचूस । लेने देने में कुछ नहीं झगड़ने में मजबूत ॥ आचारे अभिमान वध्यु तप थी वध्यो क्लेश । ज्ञाने गर्व वध्यो घणो अवलो भजव्यो वेश ।। झूठे तन-धन झूठे जोबन झूठा है घर वासा । आनंद घन कहे सब ही झूठा साचां शिवपुर वासा ।। तब लग धोवन दूध है जब लग मिले न दूध । तब लग तत्व अतत्व है, जब लग शुद्ध न बुध ।। इश्क के दर्द में सभी दर्द गर्क है । सिकम के दर्द में इश्क भी गर्क है ॥ मिले खुश्क रोटी जो आझाद रहकर । तो वो खौफ जिल्लत के हलुए से बेहत्तर ॥ कनक कनक ते सौगुनी मादकता अधिकाय । या खाये बौरात है वा पाये बौराय ॥ पर निन्दा पर द्रोह में दिया जनम सब खोय । प्रभु नाम सुमरा नहीं तिरना किस विध होय ।। जा घट प्रेम न प्रीत रस पुनि रसना नही नाम । ते नर प्रा संसार में उपजि मरे बेकाम ॥ जीवन जोवन राजमद अविचल रहे न कोय । जो दिन जाय सत्संग में जीवन का फल सोय ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: १२३ क्या भरोसा देह का विनस जाय छिन मांही । श्वास श्वास सुमिरिन करो और जतन कछु नाही ।। लक्ष्मी छाणा बेचती भीख मांगतो धनपाल । अमर मरतां मैं सुण्या भलो मारो ठन ठन पाल ।। राजा राणी को माने उसमें अानंदघन को क्या ? राजा राणी को नहीं माने तो आनन्दघन को क्या ? माखी मारु बाकस तोडू तोडू काछ सूत । बे मुठिये पापड़ तोडू खरो वीर रजपूत ।। मां का देखा बहिन का देखा देखा सासु साली का । फिर फिर के सब का देखा न देखा घर वाली का। जेरो वाजे वायरो पुठ दिजे तेड़ी । बैठो दूजे बकरी उभे दुजे ऊटडी ॥ नई मजरी खाट न चए टापरी । भेसडिया दो चार दूझे बापड़ी ॥ बाजरी रोटा दही में घोलणा । इतरा दे करतार तो फिर नहीं बोलणा ॥ स्नान करे सपाटा करे जनेऊ घाले गांटू । जनेऊ घाले धन मिले तो रूपों बांधे रांडू । उनु पीये डु पिये आ वणीयाणी काली । मुहपत्ति बांध्या धन मिले हुँ बांधे राली ॥ श्याम वरण मख उज्जवल केता ? रावण सिर मंदोदरी जेता । हनुमान पिता कर लेश । तो राम पिता कर देश ॥ (उड़द) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ :: :: शेष विद्या प्रकाश एक अचंभा ऐसा देखा (उपाश्रय के पास)। तीन थंभ पाताल में एक थंभ आकाश ।। नव घड़ी जी नव घड़ी। दस मिला कर पान खड़ी ।। चुप करो मिया मैं बोलुगी, तुमको आवेगी रीस । अबकी बार जो तुम मरो तो, मेरे पूरे वीसा वीस ॥ इण साड़ी रा सल मत भांगो मोरा राणी जी इण साड़िये सोले आणी । अवगर मत बोलो मोरा वर, थोरा समेत मारे अठारे घर ।। आज हिमालय हालसी, मरशे नव जणा । दशमा मरजे गोरजी, सुइजो दो दो जणा ।। पीपल पूजन में गई कुल अपने ही काज । पीपल पूजता हरि मिल्या एक पंथ दोय काज ।। आवत घसे जावत घसे, माथे छांटे पाणी। कालीदास मैं थोरा मन री, वातलडी जानी ।। ए छे मारा दीकरा, ए छे मोरा मोटी। ए वांत मांछ प्रांटी, एना बाप अमोरा मोटी । सभी गाम सोहामणो, दशा विशा नो वास । दान पुण्य समझे नहीं, आयंबिल ने उपवास ॥ मास नहावे पाप कहावे, नित्य नहावे देडका । विगर पाणी से स्नान करे, वो मनक नही पण देवता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: १२५ धन री निन्दा करे, नपट नगद कलदार । दफा तीन सौ दोयरा, होवे तीन सौ चार ।। धमधमे पर धमधमा, धमधमे पर धम । मांगता आगल मांगन जावे, उसकी अक्कल कम ।। भुजियो किल्ला भुजंग, सूरे जा सिरदार । उभो अइए आकाश तो ते मणे मदार ॥ वल्लो पिपल बात करे, नींब झंखोला खाय । आछी मारी आंबली, तू गलीयों में 'गू' खाय ।। जैसो साह झट फरमा, तारु पावलु तोड़े। चित्तोड़ा, भीलोड़ा मत देखो, सेवकजी, जो देवे सो लेवो, घड़ी पलक री विलम्ब करो तो इणा पाला पण रेवो रे ॥ कर बोले कर ही सुणे, श्रवण सुणे नहीं तांही। कहे पहेली वीरबल मुर्दा आटा खाय ।। काली थी कलगारी थी, काले वन में रहती थी। लाल पाणी पीती थी, मदों का दाव लेती थी ।। (तलवार) चांद सा मुखड़ा, सब तन जखमी, बीना पांवों यह चलता है। सबका प्यारा राज दुलारा, साल साल में बढ़ता है।। (रुपया) तन गोरा, मुख सांवरा, बसे समंदर तीर । पहिले रण में वह लड़े, एक नाम दो वीर ।। (कलम) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ :: :: शेष विद्या प्रकाश पाल चढंता गद्धा दिट्ठा। थपके रोटी पाई। निद्रा निद्रा, हार मिलाया। टिड्डा थारी मौत आई ।। पांच सौ पावड़ीयें चढंता भूमि पग न टकंता । वें दिन ठाकुरा चितारों के यू यू करता ।। बांबी बांकी जलभरी, ऊपर जारी आग । जब ही बजाई बांसरी, निकस्यो कालो नाग ।। (चलम) जतिजी चाल्या गोचरी, गोटो वाग्यो घम । सेठाणीरी छाती फाटी जाणे आयो जम !! ऊंट कहे सभा मांहे यार ! बांका अंगवाला भून्डा । भूतल मां पशुओं अने पक्षियों अपार छ । बगला नी डोंक बांकी, पोपट नी चांच बांकी । कुतरा नी पुछड़ी नो वांको विस्तार छे ।। वारण नी छे सूढ़ बांकी, बांधना छे नख बांका। भैंस ने तो सींग बांका, सींगड़ा नो भार छ ।। सांभली शियाल बोल्यो, दाखे दलपतराम । अन्य नू तो एक वांकू, आपना अढार छ । रांड सांड सीडी सन्यासी । इन चारों से बचे, वह सेवे कासी ।। खाना कलाकंद का अच्छा है । पहिनना मलमल का अच्छा है ।। धंधा सट्टे का अच्छा है। मरना हैजे का अच्छा है ॥ चांदलो करी श्रावक थया । लाडवा जोइने जमवा गया ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: १२७ थुक अन्दर का अच्छा है, बाहिर का बुरा है। धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का ।। बेसंतो वाणियों ने, ऊंठती मालण । भांगी तोय भरूच, तुटी तोये अमदाबाद । मुंबई केवी ऊंधी गैत । पहेला कावा ने पछी भीत ॥ सिर बड़ा सपूत का, पैर बड़ा कपूत का । आठ कुवा नव बावड़ी, सोले में पणिहार ।। खद खद खौदतां, टगमग जोवंता । पल पल दौडंता करो बेटा फाटके, पियो दुध वाटके ।। घर के रहें न घाट के ।। कम खाना, गम खाना, नम जाना। गुड़ खावे घोड़ा, तेल पीवे जोड़ा ।। कांग्रेस के राज्य में, जणतर, भणतर चणतर बढा ।। झब्बा, झण्डा, झोली दीधा। ____धन, धर्म, धन्धा लिया । उद्घाटन, भाषण, चाटण बढ़ा। श्राव, जाव, भाव बढ़ा । और आश्वासन भी बढ़ा ॥ हिम्मते मर्दा, तो मददे खुदा । सौ का हुआ साठ, आधा गया नाठ, दश देंगे दश दिलवायेंगे, दश का लेना देना क्या ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ :: :: शेष विद्या प्रकाश सट्टे के व्यापार में नुकसान चांदी मां चगदाई गया, सोने गया सपडाई । टुकड़ा मां बुकड़ा कर्या, एरंडा मां गया अथडाई ।। अलसी मां अवला पड्यां, रू' मां गया रंडाई। पारा मां पटकाई गया, खांड मां गया खंडाई ।। मरी मां मरी गया, कपूर मां गया कुदी। कंतान मां कतराई गया, शेर मां गया संताई ।। 'दीफड़' मां डफडाई गया, अोडीनरी मां आडा पड्या। सुतर मां सुई गया, नाणा मा नवरा पडया ।। करियाणा मां कंटालो चडयो, तेल मां गया तलाई । टोपरा बझार मां टपलाई पडयो, खजुर मां गया खवाई ।। लोखंड मां लडाई पड्या, सुठ मां गया सडाई । चा बझार मां चवाई गया, फीचर मां पडया फसाई ।। आंकडा मां अकलामण थई, पोलीस प्रावी पकड़ी गई । चेवडा बझार मां चुथाई गया, क्यांथी आवे कमाई ।। लंबा तीलक मधुरी वाणी । दगेबाज की यही निशानी ।। Int - - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: १ - महाजन २ - ब्राह्मण ३- राजपूत ४- सोनार ५ – मुसलमान ६- सुधार ७ - लुहार ८- कुम्हार ६- दरजी १० – मेघवाल - ११ - राजगर १२- कलार १३ - लकारा १४- रावल १५ – साध १६- माली १७ - घांची १८- गोसा बीजापुर में ३६ कौम 9300 .... 0000 9494 3800 १००० : .... 9334 17 9990 1000 १६ - भील २० - मेणा २१ - खटीक २२ - ढोली २३ - रबारी २४ - धोबी २५- बंदारा २६ – सलावट : १२६ २७-भाट २८ -नावी २६ – सरगरा ३० - दसोतरी ३१ - दरोगा ३२ - गोसाई बाबा ३३–गुरु ३४ – गाल्लीया ३५ – मेतर ३६ - जोगीड़ा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० :: :: शेष विद्या प्रकाश जिसको सात गरने पानी छानकर पीना कहते हैं। लड़की की शादी करते समय वर में इतनी बातें देखना आवश्यक है। __ (१) वर का रूप रंग। (२) वर का घर कैसा है ? (३) नगर । (४) मालदार हैं या नहीं ? (५) परिवार कैसा है ? (६) व्यापार है या नहीं ? (७) व्यवहार कैसा है ? परदेश जाते समय रविवार को तंबोल । सोमवार को दर्पण देखना । मंगलवार को धाणा । बुधवार को गुड़ । गुरुवार को राई । शुक्रवार को चणा। और शनिवार को बावडींग (उड़द) खाके जाना आना अच्छा है। जातियों के लिए दिन रविवार-राजपूत के लिये । सोमवार-नाई, माली। मंगलवार-सोनी, धोबी । बुधवार- महाजन। गुरूवार--ब्राह्मण । शुक्रवार-मुसलमान, वेश्या । शनिवार-तेली, तंबोली के वास्ते अच्छे वार हैं। प्रत्येक मास में वर्जित वस्तुएं: चैत्र में गुड़ । वैशाख में तेल । जेठ में पंय। आषाढ़ में पान पत्ता । श्रावण में दूध । भाद्रपद में छाछ । पासोज में करेला । कार्तिक में दही । मिगसर में जीरा । पौष में धणा। माह में साकर। फागन में चणा छोड़ देना अर्थात् नहीं खाना स्वास्थ्य के लिये हितकर है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: ५३१ सट्टे के व्यापार में पांच वस्तु की आवश्यकता - त. तारवणी - अर्थात् बजार का रुख देखना | थ. स्थिरता - मन में स्थिरता लाना । द. दलाल - अच्छे दलाल होना आवश्यक ध. खुद के पास धन होना जरूरी है। न. नागाई - स्वभाव में तेजी रखना । कथायें - १ - अज्ञान में मोन उत्तम है । २ - पैसे वाले के सगे ज्यादा | ३ - क्रोधी के सामने नम्र होना । ४ - जानकार के आगे अजान होना । ५ - पान पर चूना नहीं लगने देना । ६ - हिंम्मते मर्दा तो मददे खुदा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat 1 www.umaragyanbhandar.com Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ : :: शेष विद्या प्रकाश वृद्धा का जवाब वृद्धा की कथा इस प्रकार है, उज्जैन का राजा भोज का अपने मंत्री के साथ नगर चर्या के वास्ते जा रहा था। रास्ते की जानकारी के लिए उसने एक वृद्धा से पूछा कि, मैया वह मार्ग (सड़क) किस तरफ जा रहा है । बुढिया ने उनको देखा और मनो-मन निश्चय किया कि ये दोनों राजा और राज मंत्री होने चाहिए, उस जमाने में स्त्रियों की शक्ति का विकास और विद्वता भी अच्छी खिल उठी होगी। बुढिया ने कहा 'रास्ता अचेतन अर्थात् नड़ होता है, और जड़ पदार्थ चलता नहीं हैं" आप कौन हैं ? तब मंत्री ने कहा हम प्रवासी हैं ! बुढिया बोल उठी तुम झूठे हो क्यों कि संसार भर में प्रवासी दो ही होते हैं, एक सूर्य और दूसरा चांद जो संसार की सेवा करने के लिये घूमते रहते हैं।" मंत्री बोले हम मेहमान हैं तब वृद्धा ने कहा मेहमान तो धन और यौवन ही हैं जो आने में भी देर नहीं करते और जाने में भी देर नहीं करते। मंत्री ने कहा 'हम राजा है,' बुढिया बोली 'संसार में इन्द्र और यम ये दो ही राजा हैं तुम कौन ? मंत्री बोले हम 'क्षमावान हैं।बुढिया हंसती हुई कहती है कि 'क्षमा से भरे हुए तो संसार में दो ही हैं। एक तो नारी और दूसरी पृथ्वी माता।' तब चक्कर में पडे हुए मंत्री बोले 'मैया ! हम तो परदेशी हैं।' बुढिया हार खाने वाली नहीं थी, उत्तर दिया कि संसार में परदेशी दो ही हैं एक तो जीवात्मा, दूसरा पेड़ का पत्ता। अभी तक कोई नहीं जान सका कि ये दो वस्तु कहां से आती है और कहां जाती है। मंत्री ने फिर कहा 'हम तो गरीब हैं' तब वृद्धा कहती है 'गरीब तो एक पुत्री और दूसरी गाय है तुम गरीब नहीं हो।' मंत्री Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: १३३ ने कहा माताजी हम तो 'सबको जीवितदान देने वाले हैं। तब हास्यशीला वृद्धा कहती है कि 'जीवित मात्र को जिन्दगानी देने वाले तो अनाज और पानी है।' तब आखिरी में राजा साहब ने कहा कि मैयाजी तुम्हारी वाक्यपटुता से तो हम हार खा गये हैं तब वृद्धा ने कहा नहीं तुम हारे हुए नहीं हो क्यों कि हारे हुए तो दो ही हैं । एक करजदार और दूसरा बेटी का बाप । राजा और मंत्री हाथ जोड़कर कहते हैं कि मैया अब माफ करो, तब वृद्धा ने कहा 'तुम राजा भोज और ये तुम्हारे मंत्रीश्वर हैं। जाओ यह रस्ता उज्जैन का है परमात्मा तुम्हारा भला करें।' एक दो साड़ा तीन_ [एक, दो, साड़ा तीन का रहस्य यह है । गुजरात में बच्चे बोलते हैं इन-मीन साड़ा तीन । इसी प्रकार मारवाड में भी बच्चे बोलते हैं एक दो साढ़े तीन ] निम्नलिखित इनका रहस्य है१. रोग रहित स्त्री जब बच्चे को जन्म देती है तब वजन में वह __ बच्चा ३।। सेर बंगाली होता है। २ जन्म लेने से मरने तक प्रत्येक इन्सान अपने हाथ से ३॥ हाथ का होता है। ३ जिस अनाज को खाकर चराचर संसार जीवित रहता है वह अनाज भी ३।। प्रकार का है। १ डंबी- जव, गेहूँ, चावल वगैरह। २. भुट्टा- (डेडा) मकाई जुवार बाजरी वगैरह । ३. फली- मूग, चवला, तुवर, मोठ वगैरह । ०। पान, भाजी शाक इत्यादि । पान भाजी खुली होने के कारण on में गिना जायगा इस प्रकार अनाज ३॥ प्रकार से सिद्ध हो गया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ :: :: शेष विद्या प्रकाश ४. रहने के मकान भी ३॥ प्रकार के है । १. कच्चा मकान ईट का २. पक्का मकान पत्थर का ३. झुपडा घास लकडी का ०।। जमीन भूमि पर रहने वाले । ५. वाजिंत्र भी ३।। प्रकार से सिद्ध होता है । १. हाव हवा भरने से जो बजता है जैसे हारमोनियम बंसरी मसक वगैरह। २. घाव हाथ ठोकने से बजने वाला जैसे नगाडा, ढोल, ढोलकी, तबला वगैरह। ३. घसक घीसने से बजने वाला जैसे दिलरूबा, वीणा, तंबुरा, सारंगी वगैरह ०।। ताल मंजीरा एक दोहरा भी है पूर्व जन्म के पाप ही से भगवंत कथा न रुचे जिनको । तब नारी बुलाय के घर पर नचावत है दिन को रेन को ।। मृदंग कहे धिक् धिक है मंजिर कहे किन को ? किन को ? तब हाथ उठाय के नारी कहे इनको इनको इनको इनको ।। ६. इन्सान के शरीर में ३।। करोड़ रोम होते हैं ? ७. कलिकाल सर्वज्ञ सिद्धराज-कुमारपाल भूपाल प्रतिबोधक, अहिंसा के पूर्ण प्रचारक, जैनाचार्य, श्री हेम चन्द्राचार्य ने अपने पूरे जीवन में ३॥ करोड श्लोक की रचना करके जगत के पंडितों को चकाचौंध कर दिया। इस प्रकार साडा तीन की यह महिमा संक्षेप से गाई है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष विद्या प्रकाश :: :: १३५ पहेली (सवाल) ए ऊंट वाला भाई थारे लारे बांधी पेटी आगे जो बैठी है वो थारे बेन है के बेटी न म्हारे लागे है बेन न लागे है बेटी इण री सासु ने म्हारी सासु सगी माँ न बेटी जबाबः- ( सुसरो न बेटा री बहु) राजपूत लड़के की होशियारी कुण्डल की सराय में मियां दलपत खां उतरे हैं। तातपुर से आये हैं, शीतपुर को जात हैं। सांभर के सरदार मियां लवण खार भी साथ हैं। आओगे तो पा जाओगे नहीं तो उतरे घाट है ।। जवाबः- (खिचड़ी) संपूर्ण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशावि पुस्तक प्राप्ति-स्थानः१ : पं० शेषमल सत्तावत बीजापुर (वाया-वाली) राज 2: मरुधर बालिका विद्यापीठ विद्यावाड़ी, रानी (राज.) alchbllo Merc なた अष्ट भाषायुक्त श्लोक (सत्तावतकृति) : हेत फिकरे न कर्त्तव्यं करवी तो जिगरे खुदा। पाण्डुरङ्ग कृपा से ही वर्कस्य सिद्धि हबई / / क्या करेगा प्यार वो भगवान से ? क्या करेगा प्यार वो इमान से? जन्म लेकर गोद में इन्सान की,, कर सका न प्यार जो इन्सान से !! 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