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________________ शेष विद्या प्रकाश :: पदार्थों को संयमित मर्यादित करने में वृति रखना इसी का नाम धर्म है । और इसी धर्म से इन्सान श्रेय और प्रेय की प्राप्ति करता हुआ भव भवांतर में सुखी बनता है ॥ १२ ॥ 'चातुर्मासिक धर्म व्याख्यान श्रवणं जिनालयगति नित्यंगुरोदनं प्रत्याख्यान विधानमागमगिरां चित्तेचिरं स्थापनम् । कल्पाकर्णनमात्मशक्ति तपसा संवत्सराराधनं श्राद्धैः श्लाध्यतपोधनादिति फलं लभ्यं चतुर्मासके १३।।।। अर्थ-भोजन किये बिना जैसे नहीं चलता है वैसे धर्म बिना भी नहीं चल सकता है। धर्म वही है 'अन्त करणशुद्धित्वं धर्मत्वम्' जिन शुद्ध और शुभ क्रियाएं करने से आत्मा में शुद्धि होवे उसी को धर्म कहते हैं अर्थात प्रात्मा को शुद्ध बनाना ही क्रियाओं का प्रयोजन है । ऐसा धर्म उपादेय है तथापि चौमासे के दिनों में विशेष प्रकार से उपादेय है। १ हमेशा धर्म के व्याख्यान सुनना। २ जिनेश्वर भगवंतों के मन्दिर में जाना । ३ गुरु भगवंतों को त्रिकाल वन्दन करना । ४ भोग्य और उपभोग पदार्थों का संयमन करना । ५ जिनवाणी को चित्त में स्थापन करना । ६ कल्प-सूत्र का श्रवण प्रतिवर्ष करना । ७ तपश्चर्या के द्वारा पर्युषण पर्व की आराधना करके सबों के साथ मिच्छामि दुक्कडं देना ।। १३ ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035257
Book TitleShesh Vidya Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnanandvijay
PublisherMarudhar Balika Vidyapith
Publication Year1970
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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