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________________ ( २ ) द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार शुद्धता और प्रमाणिकता के ( आन्तर बाह्य रूप से ) परम पुजारी भाई शेषमलजी रहे हुए हैं, और इन्हीं कारणों से प्रत्येक मुनिराज, पन्यासजी महाराज व आचार्य भगवन्तों की तथा त्यागी, तपस्वी, आराधकों की कृपा दृष्टि प्राप्त किये हुए हैं, अत: सर्वत्र जाना आना सुलभ होने से, तथा शिवपुरी के विद्यार्थी जीवन से भी, कुछ न कुछ मंग्रह करने का आनन्द उनको प्राप्त होता गया है, तभी तो गृहस्थाश्रमी होते हुए भी संस्कृत श्लोकों का इतना अच्छा संग्रह उनके पास है, उसमें से कुछ ज्ञानगर्भित, कुछ नीतिगर्भित और कुछ दिलचस्प, संग्रह जो नोट बुकों में संग्रहीत था उसको संस्कार देने के लिए मुझे कहा गया। मेरे सहृदय, गुरुभ्राता, पंडितजी का कथन मैं कैसे टाल सकता था ? साथ-साथ मैं आलसी भी प्रथम नम्बर का हूँ, मेरा दोष भी मुझे ख्याल में था, फिर भी मैंने स्वीकार किया। गुरुदेव की कृपा समझो या पंडितजी का अनुराग, मेरी कलम अपने आप चलने लगी, उत्साह था कि 'यह काम तो मैं पूरा कर ही दूंगा' और श्रद्धा ने भी साथ दे दिया ! पिछले दस श्लोक मेरे बनाये हुए ही हैं। पंडितजी ने उदार दिल से स्वीकृति दी और श्रावक धर्म के सम्यक्त्व मूलक बारह व्रतों के १२४ अतिचारों की संख्या प्रमाण में, इम श्लोक संग्रह पर भावानुवाद तैयार कर लिया। शब्दार्थ का मोह छोड़ कर प्रायः श्लोक के भाव व कवि के भाव को मैंने मेरी बुद्धि के अनुसार भावानुवाद में उतारा है। बहुत से श्लोक अत्यन्त सुपरिचित है, फिर भी आखिर सुभाषित होने के कारण उसमें कभी तो अत्यन्त, कभी गूढार्थ रूप से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035257
Book TitleShesh Vidya Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnanandvijay
PublisherMarudhar Balika Vidyapith
Publication Year1970
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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