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________________ ३६ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'जीवन को निष्फलता' जिह्वा दग्धा परान्नेन करौ दग्धौ प्रतिग्रहात् । मनो दग्धं परस्त्रीमिः कार्यसिद्धिः कथं भवेत् ||३४|| अर्थ - मृत्यु शय्या ही एक ऐसा स्थान है, जब इन्सान मात्र को सत्य ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है, और जीवन के बुरे कर्मों का साक्षात्कार भी होता है, परन्तु वह अवस्था सर्वथा असहाय और लाचारी से परिपूर्ण है, एक जीवात्मा इस प्रकार अफसोस कर रहा है कि : + १. हमेशा दूसरों का अन्न खाकर मैंने मेरी जीभ बिगाड़ी, अर्थात् पूरी जिन्दगी तक मैं माल मसालें (लड्डु ) का भगत बना, परन्तु परमात्मा का भक्त या साधु सन्तों का भक्त नहीं बन सका । २. दूसरों के धन को उड़ाने में, या गलत करने में मैंने मेरे हाथ अपवित्र बनाये, परन्तु सर्वश्रेष्ठ मनुष्य अवतार प्राप्त करके भी, मैं हाथों के द्वारा दूसरों की सेवा न कर सका, या बड़ों को, गुरूजनों को हाथ जोड़कर नमस्कार न कर सका । ३. परस्त्रियों की लुभावनी मायाजाल में आकर के मैंने मेरे मन को बिगाड़ दिया । इस अवस्था में अब मैं क्या करू ं । मेरा भला कैसे हो सकता है, क्योंकि महादयालु परमात्मा के दिये हुए जीभ, हाथ और मन का दुरुपयोग करके मैं परवश बन चुका हूँ ||३४|| Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035257
Book TitleShesh Vidya Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnanandvijay
PublisherMarudhar Balika Vidyapith
Publication Year1970
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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