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________________ ११२ :: :: शेष विद्या प्रकाश श्री वर्धमान तप का महात्म्य अथीरंपि थिरं वंकं -पिउजु दुल्लहंपि तह सुलहं, दुम्सज्झंपि सुसज्झं तवेण सप्पज्जए कज्जं । अर्थ-तप के प्रभाव से जो कार्य अस्थिर होता है वह भी स्थिर हो जाता है, टेढा होता है वह भी सीधा हो जाता है, दुसाध्य होता है वह भी सुमाध्य हो जाता है । 'तप से कार्य की सिद्धि होती है' यह वर्धभान तप ! महान् तप गिना जाता है । तीर्थङ्कर भगवंतों ने इस तप की खूब २ प्रशंसा की है । तत्त्वार्थ भास्य में भी रत्नावली कन्कावली आदि जो तप है उनके साथ इस तप की भी गिनती की है । वर्धमान तप याने क्रम से बढ़ता हुआ तप इस तप की शुरुग्रात ( प्रारम्भ ) ५ प्रोली साथ में की जाती है । इम वर्धमान तप की खूबी तो यह है कि इसके पारणे में उपवास होता है । इस वर्धमान तप की १०० प्रोली होने पर ५ हजार ५० प्रायम्बिल १०० उपवास होते हैं । एक ही साथ में एक सौ प्रोली की जावे तो १४ वर्ष ३ महीने श्रौर २० दिन लगते है । कई लोग तप को दुःख रूप या निर्बल काया हो जाती है ऐसा मानते हैं । वह उनकी भ्रमणा है । तप दुःख रूप नहीं है परन्तु सुख रूप है । तप यह काया को दुःख देने वाला नहीं है परन्तु देह को निर्बल बनाता है। बाह्य और ग्रन्तर तप दोनों प्रकार के कर्मों को पाते हैं यानि जलाते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com 1
SR No.035257
Book TitleShesh Vidya Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnanandvijay
PublisherMarudhar Balika Vidyapith
Publication Year1970
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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