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'प्राक्कथन'
करीब ४२ वर्ष के पहिले की बात है जब मैं शिवपुरी (मध्य प्रदेश) श्री वीरतत्त्व प्रकाशक मंडल में संस्कृत व धार्मिक अभ्यास कर रहा था, बड़ा अच्छा मेरा पुण्योदय था । प्रात: काल के पहिले ही व्याकरण के सूत्रों का रटना, प्रार्थना करनी, देव मंदिर, गुरू मंदिर में जाना और महान् विवेचक, प्रखर अभ्यासी, संस्था के सफल और सक्रिय अधिष्ठाता, परमपूज्य गुरुदेव श्री १००८ श्री विद्याविजयजी महाराज साहब के चरण-कमलों में सविधि वन्दना करना तथा प्रति दिन कुछ न कुछ छोटा सा व्याख्यान सुनना। फिर शारीरिक क्रियाओं से निपट कर नास्ता, पूजा तथा पाठ (Lesson) को संभालना और स्कूल जाना । पढ़ना पढ़ाना इत्यादिक प्रति दिन का यह हमारा कार्यक्रम था। मैं मेरे लिए कहने का अधिकारी हूँ कि गुरूओं की सेवा में रहकर कुछ सीखा, कुछ अनुभव किया और संग्रह करने का स्वभाव होने से कुछ संग्रह भी किया। तब मुझे स्वप्न में भी यह ख्याल नहीं था कि उसे प्रकाशित करना होगा। परन्तु शिवपुरी छोड़ने के बाद भी मेरे शुभ कर्म के अनुमार मेरा धार्मिक व सामाजिक संस्थाओं से सम्बन्ध रहा है । व्यापारी होते हुए भी आयंबिल, उपवास, ब्रतधारण करना, प्रतिक्रमण, पौषध
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