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________________ शेष विद्या प्रकाश :: 'गृहस्थाश्रम में लक्ष्मण का ब्रह्मचर्य' भूषणं नैव जानामि, नैव जानामि कुण्डले । नूपुराण्यैव जानामि नित्यं पादाभिवन्दनात् ॥५९।। अर्थ-सीताजी का अपहरण हो जाने के बाद रस्ते में से जुदे जुदे प्राभूषण रामचन्द्र को मिले और लक्ष्मणजी को पहिचानने के वास्ते दिये, परन्तु लक्ष्मणजी उन आभूषणों को नहीं पहिचान सके । केवल भाभी (भौजाई) जो माता के समान होती है, उनके चरणवन्दन करते समय सीताजी के पैर में जो नूपुर (पायल) था उसको हाथ में लेकर लक्ष्मणजी अपने बड़े भाई से कहते हैं कि, हे भैया ! इस हार को. इन कुण्डलों को, इन बंगड़ियों को या इस कंदोरे को में नहीं पहिचान सका कि ये आभूषण किनके हैं, केवल नूपुर (झांझर) को देखकर कह सकता हूं कि यह नूपुर मेरी भाभी सीता माता का ही है। रामचन्द्रजी आदि को बड़ा भारी प्राश्चर्य होता है कि जो देवर अपनी भाभी के साथ २४ घंटे रहता है, फिर भी उसको यह मालूम नहीं है कि भाभी के शरीर पर कैसी साडी है, और क्या आभूषण है ? धन्य रे लक्ष्मण ! प्रशंसनीय रहेगी तेरी गृहस्थाश्रम की मर्यादा और आदरणीय रहेगा तेरा जीवन ॥५६।। जाट कहे सुण जाटणी, जिस गांव में रहना। ऊंट बिल्ली ले गई, तो हांजी हांजी कहना ॥ जननी जण तो भक्त जण का दाता का शूर । नहीं तो रहेजे बांझणी, मत गुमावीश नूर ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035257
Book TitleShesh Vidya Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnanandvijay
PublisherMarudhar Balika Vidyapith
Publication Year1970
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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