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________________ १६ :: :: शेष विद्या प्रकाश 'धर्म की उत्पत्ति, वृद्धि, स्थिति और नाश' कथमुत्पद्यते धर्मः ? कथं धोविवर्धते । कथं च स्थाप्यते धर्मः कथं धर्मो विनश्यति ॥१९।। अर्थ-एक साधक भक्त अपने गुरु से पूछता है कि धर्म की उत्पत्ति कैसे होती है ? धर्म बढ़ता कैसे है ? धर्म की स्थापना कैसे होती है ? और धर्म का नाश कैसे होता है ? ॥१६॥ सत्येनोत्पद्यते धर्मों, दयादानेन वर्धते । क्षमाया स्थाप्यते धर्मः क्रोध लोभाद विनश्यति ॥२०॥ अर्थ- पिछले श्लोक के प्रश्न का उत्तर देते हुए गुरु ने कहा कि आत्मिक जीवन में जब तक 'सत्य' धर्म का उदय नहीं होता है, तब तक हे साधक ! जीवन में धर्म का उत्पन्न होना सर्वथा असम्भव है, कारण कि जैनागम में महावीर स्वामी स्वयं बोलते हैं कि 'सच्चं खलु भयवं' (T RUTH IS GOD) अर्थात् सत्य ही परमात्मा है, जब तक परमात्मा की ज्योत अपने हृदय में प्रवेश नहीं करती तब तक धर्म और धार्मिकता हजारों कोस दूर है । ' साचां मां समकितवसे ' इसका अर्थ भी यही है कि सत्यजीवन सत्यव्यवहार, सत्यव्यापार, और सत्य भाषण में ही समकित ( सम्यक्त्व ) का वास निश्चित है इसलिए सत्य के द्वारा ही धर्म की उत्पत्ति होती है। सत्य से उत्पादित धर्म, दया और दान के द्वारा बढ़ता है। दया आत्मा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035257
Book TitleShesh Vidya Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnanandvijay
PublisherMarudhar Balika Vidyapith
Publication Year1970
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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