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________________ :: शेष विद्या प्रकाश जवानी चली गई है परन्तु मेरा मन अभी भी उनके भोगों की लालसा में तड़फ रहा है । ३० २. जीभ इन्द्रिय के वश में आकर मैंने खाद्य प्रखाद्य का, तथा कब और कितना खाना उसका विचार तक नहीं किया । मेरे दांत गिर गये, गिरे जा रहे हैं तथापि जीभ के ऊपर मैं संयम नहीं कर सकता । ३. अलमस्त मेरा शरीर था । शरीरमद में आकर के मैंने कितने ही अत्याचार किये, अनाचार किये अब लाकड़ी का सहारा लिया, परन्तु परमात्मा का सहारा लेने का भाव अभी भी नहीं आया । ४. प्रांख इन्द्रिय का तेज घट गया है, फिर भी परमात्मा के दर्शन की चाहना नहीं होती है और युवतियों के रंगबिरंगी वस्त्रों का देखना पसन्द पड़ता है । ५. कान युगलों ने सुनना छोड़ दिया है। तथापि निर्लज्ज बना हुआ मेरा मन अश्व के माफिक संसार के भोगों में दौड़ रहा है । हाय ! मेरी क्या गति होगी ? परमात्मा के घर जाकर मैं क्या जवाब दूंगा ||२८|| परोपकार : पुण्याय पापाय परपीडनम् । - पुराण परहित सरिस धर्म नहीं भाई । परपीड़ा सम नहीं अधमाई । - तुलसीदास www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
SR No.035257
Book TitleShesh Vidya Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnanandvijay
PublisherMarudhar Balika Vidyapith
Publication Year1970
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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