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‘शेष विद्या प्रकाश ::
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'तष जैनियों ने भी ललकारा' सिंहेन विदार्यमानोऽपि न गच्छेच्छैव मंदिरम् । न वदेत् हिंस की भाषां प्राणैः कण्ठगतैरपि ॥१२॥
अर्थ-तब लाठी का जवाब लाठी से देते हुए किसी जैन गृहस्थ ने भी कह दिया कि सामने से आता हा शेर (सिंह) यदि आपको फाड़ दे तो भी महादेव जी के मंदिर में मत जाना, और प्राण चले भी जावे तो भी हिसकी भाषा अर्थात् दूसरों के मर्म को घात करने वाली ईर्ष्यायुक्त, अपथ्य, असभ्य और संदिग्ध भाषा का प्रयोग कभी भी मत करना ।।१२।।
'प्रान्तों की लडाई निर्विवेका मरुजनाः निर्लज्जाश्चापि गूर्जराः । निर्दया मालवाः प्रोक्ता मेदपाटे गुणास्त्रयः॥९३।।
अर्थ-जब भारतवर्ष में दर्शन, व्याकरण साहित्य, वेद वेदान्त के पारगामी पंडितों का वागयुद्ध चल रहा था उसी समय भारत का एक प्रान्त दूसरे प्रान्त को ललकारता हुआ कह रहा था 'मारवाड की जनता विवेक होन होती है, जड़ होती है ऐसा लांछन गुजरातियों ने लगाया तब मारवाड़ियों ने मुह खोल दिया और कहा कि गुजरातो लोग बिना शरम के अर्थात् बेशरम होते हैं।
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