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:: शेष विद्या प्रकाश
और निष्फल चेष्टानों में या खेल तमाशा प्रभृति में वर्तमान काल को बर्बाद मत करना अन्यथा भविष्य काल भी तेरा दुश्मन बन कर तेरे मस्तक पर जब प्रायगा तब तेरा क्या होगा ? तुझे कौन मदद देगा ? अतः वर्तमान काल को ही ऐमा बना ले जिससे भविष्य काल आशीर्वाद सा बन जाय ।। १२३ ।।
'अन्तिम प्रार्थना'
विद्या भक्तो नयापेक्षी पूर्णानन्दोऽस्मि हे प्रभो । याचे शान्ति पुनर्भक्तिं शासने तब निर्मले || १२४ ||
अर्थ- मेरे हृदय रूपी कमल को विकसित करने में मित्र समान ! दीन दयाल ! मेरे प्रभो ! मैं आपसे अपूर्व शान्ति चाहता हूं और आपके निर्मल शासन में मेरी भक्ति भवोभव बनी रहे यही अभ्यर्थना है । मैं विद्या भक्त हूं नीति न्याय से अपेक्षित मेरा जीवन है, ग्रतः पूर्ण आनन्द की प्राप्ति का याचक मैं नाम निरपेक्षसे पूर्णानन्द हूं । अब मुझे भाव निक्षेप से पूर्णानन्द पद चाहिए ।। १२४ ।।
युवति का लज्जा वसन बेच, जब ब्याज चुकाया जाता है । मालिक तब तेल फुलेलों पर, पानी सा द्रव्य बहाता है ||
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