________________
शेष विद्या प्रकाश ::
४. नीच जाति के लोगों का महत्त्व बढ़ जाता है।
५. पण्डितों में भी स्वार्थमात्रा अधिक बढ़ने से शास्त्रों के अर्थ
में विपरीतता ला देते है। ६. धर्मचारिणो स्वस्त्री भी पति से द्वेष करती हुई मानो अपने पति के पापों को चेलेंज देती हुई परपुरुषग्त बन जाती है ।
७. पुत्रों में भी पिता के प्रति द्वेष भावना उत्पन्न हो जाती है।
इस प्रकार संघर्षमय जीवन पूरा करने के बाद जब वह वृद्ध हो जाता है तब कपाल ऊपर हाथ देता हुअा कहता हैहाय रे ! कैसा कलियुग पाया है । धन्य है वे भाग्यशाली जो मेरे पहिले मर चुके हैं ।।७३।।
'हर्ष शोक दोनों व्यर्थ है। विपत्तौ किं विषादेन संपत्तौ हर्षितेन किम् । भवितव्यं भवत्येव कर्मणो गहना गतिः ॥७४।।
अर्थ-हे जीव ! विपत्तियों के आने पर दुःखी क्यों होता है ? तथा संपत्तियों के आने पर राजी भी क्यों होता है ? क्योंकि संपत्ति और विपत्ति में तो पूर्वभवीय शुभ अशुभ उपाजित किये हुए कर्मों का कारण है । अतः दोनों अवस्था में साम्यभाव धारण कर ॥७४।।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com