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शेष विद्या प्रकाश ::
'उदारता ही प्रशंसनीय है' अयंनिजः परोवेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।।८५।। अर्थ-जिनका मन संकुचित होता है उनके मन मे हमेशा यही भाव बना रहता है कि 'यह मेरा है वह तेरा है' परन्तु सत्पुरुषों के सहवास से जिन्होंने अपने मन को ज्ञानवान बनाने के साथ उदार बनाया है उनके मन में 'पूरा संसार मेरा कुटुम्ब है' में संसार से भिन्न नहीं हूं ऐसा भाव बना रहता है ।।८।।
'सुख दुख में समदर्शी बनना अचिन्तितानि दुःखानि यथैवायान्ति देहिनाम् । सुखान्यापि तथा मन्ये दैव मत्राति रिच्यते ।८६।।
अर्थ-प्रत्येक इन्सान को 'चक्रनेमिक्रमेण' न्यायानुसार अचि. न्तित दुःख भी आते हैं, वैसे अचिन्तित सुखपरंपरा भी पाती है । इसमें भाग्य (तकदीर) ही बलवान् है ! अतः सुख दुःख पाता है और जाता है इसमें क्या हर्ष ? क्या शोक ? ॥८६।।
तेल जले बत्ती जले, नाम दीवे का होय ।
गौरी तो पुत्र जणे, नाम पियु का होय ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com