________________
. शेष विद्या प्रकाश ::
:: ८५
अय धारा सदाधारा, मदालम्बा सरस्वती ।
पण्डिता मण्डिता सर्वे , भोजराजे भुवंगते ।।८८।। अर्थ-तब भोजराज खुश हुए, और छद्मवेष को निकालकर असली रूप में कालीदास के सामने प्रकट हुए । तब पंडित जी बोल उठे।
'आज धारा नगरी प्राधार वाली हुई, सरस्वती का स्थान पुन: स्थापित हो गया, और पण्डित वर्ग का बहुमान भी अखण्डित रहा, क्योंकि भोजराज जीवित हैं अर्थात् सरस्वती पुत्र भोज राजा प्रजा के साथ न्याय नीति का व्यवहार करने वाले थे। सरस्वती ही उनकी परम-ग्राराध्य देवता थी और पण्डितों को यथा योग्य दान दक्षिणा देकर बहमानित करते रहते थे ।।८८।।
देवी की टीली कही, शिव की काठे आड़ । तीखो तिलक जैन रो, विष्णु की दो फाड़ ।। मूड मुंडाये तीन गुण, मिटे सिर की खाज । खाने को लड्डू मिले, लोग कहे महाराज ॥ निन्द। हमारी जो करे, मित्र हमारा होय । बिन पानी बिन साबु से, मैल हमारा धोय ॥ पंच, पंचोली, पोरवाल, पाडो ने परनार ।
पांचे पप्पा परिहरो, पछे करो व्यवहार ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com