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८२ :
:: शेष विद्या प्रकाश
'मुझे कुशलता कैसी ?"
लोकः पृच्छति भे वार्ता शरीरे कुशलं तव । कुतः कुशलमस्याकं गलत्यायुर्दिने दिने || ८३ ||
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अर्थ - श्राप कुशल तो हैं ? इस प्रकार सब जनता मुझे पूछती रहती है परन्तु पूछने वालों को क्या मालूम ? कि मेरा आयुष्य प्रतिदिन प्रतिसमय घटता जा रहा है । ऐमी हालत में मुझे कुशलता कैसे हो सकती है ! अतः क्षण भङ्गर जीवन है । शीघ्रातिशीघ्र धर्माराधन, सत्याचरण और ब्रह्मचर्य पालन में जीवात्मा को जोड़ने वाला ही वस्तुतः स्वस्थ है || ८३ ||
'विद्वत्ता का मान '
।
विप्रोऽपि भवेन्मूर्खः स पुराद् बहिरस्तु मे । कुम्भकारोऽपि यो विद्वान् स तिष्ठतु पुरे मम ॥ ८४॥ |
अर्थ- कोई राजा अपने मंत्री से कह रहा है कि ब्राह्मण कुल जैसे अच्छे कुल में जन्म लेकर भी जो मूर्ख है उसको गांव के बहार रखा जाय परन्तु कुम्भार होते हुए भी यदि विद्वान् है तो उसको मेरे राज्य में स्थान मिलेगा ही || ८४||
रंगी को नारंगी कहे, तत्व माल को खोश्रा ।
चलती को गाड़ी कहे, देख कबीरा रोया ॥
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