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शेष विद्या प्रकाश ::
मानव देव बनता है इसलिए मानवता के परमोपासक, दीर्घ तपस्वी भगवान् महावीर स्वामी ने भोगोपभोग विरमणव्रत' गहस्थाश्रमियों को सुखी बनाने के लिये प्ररुपित किया है ।।६।।
'धन का उपार्जन करना अच्छा है। धन नर्जय काकुस्थ ! धनमूलमिदं जगत् । अन्तरं नव पश्यामि, निर्धनस्य मृतस्य च ।।७०।।
अर्थ-दुनिया कहती है कि “जिस साधु के पास कोडी है वह साधु कोडी का है और जिस गृहस्थ के पास कोडी नहीं है वह गृहस्थ कोडी का है।
इसी बात को बतलाते हुए कह रहे हैं कि हे काकुस्थ ! तू धन का उपार्जन कर, क्योंकि इस संसार में धन का मूल्य ज्यादा है। सशक्त होते हुए भी भाग्य के भरोसे बैठा हुप्रा प्रालसी पादमी व मृत दोनों एक समान है। खूब याद रखना होगा कि महापुरुषों ने भाग्य की अपेक्षा पुरुषार्थ को कोमत ज्यादा बतलाते हुए कहा "भाग्य यदि तिजोरी है तो पुरुषार्थ उसकी चाबी है । भाग्य यदि पुत्र है तो पुरुषार्थ उसका बाप है।"
इन्सान ! भाग्य को प्रशंसा गाने वाली कथाओं को और कविताओं को तू भूल जा, भूल जा और पुरुषार्थ देव की प्रारती उतारना सीख ले।
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