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:: शेष विद्या प्रकाश
'संतोषी मन सदा सुखी है
वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं दुकूलैः समइव परितुष्टा निर्विशेषो विशेषः स तु भवतु दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला मनसिच परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः । ६९ ।।
अर्थ- समझदारीपूर्वक त्यागभाव से बने हुए त्यागी का यह कथन है कि हे श्रीमत ! यद्यपि तेरे पास स्पर्शेन्द्रिय के भोग के लिए मुलायम, रंगबिरंगी रेशमी वस्त्र है । जीभ इन्द्रीय के लिए खान पान की पूर्ण सामग्री है। नाक इन्द्रिय के भोग के लिए गुलाब, हीना और केवडे का प्रत्तर भी है। कान इन्द्रिय के विलास के वास्ते हारमोनियम रेडियो, ग्रामोफोन ग्रादि वांजित्र है । तथा आँख इन्द्रिय को तृप्त करने के लिए नयनरम्य विलासवती और रंगबिरंगी कपड़ों में और आभूषणों में सज्ज बनी हुई युवतियें हाथ जोड़ कर तेरे सामने खडी है तथापि तेरे जैसा दुःखी मैंने कहीं नहीं देखा । और मैं वृक्ष के छाल ( वल्कल ) के कपड़े अर्थात् अल्पमूल्य के मामूली कपडे पहनता | भिक्षा से निर्वाह करता हूँ और एमन्त में रहता हूँ। तो भी तेरे से मैं ज्यादा सुखी हूँ ।
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भैया ! सुख और दुःख मानसिक कल्पना है। संस्कारी मन सदैव सुखी है, और भोग के कीचड़ में फसा हुआ प्रसंस्कारी मन हमेशा दुःखी है । भोग में मानव दानव बनता है और त्याग में
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