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शेष विद्या प्रकाश ::
'स्थानभ्रष्ट की निन्दा' स्थानम्रष्टा न शोभन्ते दन्ताः केशा नखानराः । इति विज्ञाय मतिमान, स्वस्थानं न परित्यजेत् ।।५९।।
अर्थ- संसार का कोई भी पदार्थ अपने अपने स्थान में ही शोभता है । स्वार्थवश या बुद्धि म्रमवश स्थान भ्रष्टता इन्सान मात्र के लिये अवश्यमेव निन्दनीय है। जैसे दांत, केश और नाखून अपने स्थान में ही अच्छे लगते हैं और प्रशंसित बनते हैं । स्थान से पतित हुए दांत, केश और नाखून फेंकने लायक तो होते ही हैं परन्तु अस्पृश्य भी हो जाते हैं। बस यही दशा मनुष्य की है जो अपना स्थान छोडता रहता है । इसी प्रकार अपने पुरुषार्थबल से प्राप्त किया हुमा ज्ञान, विज्ञान और बुद्धि को भी सदुपयोग से अर्थात न्याय नीति, प्रमाणिकता और सत्य मार्ग से भ्रष्ट नहीं होने देना चाहिए ॥५७।।
कुंवारा था जद फुटरा, परण्या पछे भाटा । छोरा छैया लारे लागा, जद हैया बाद में नाठा ।। खट्टा मीठा चरबड़ा, चार आंगल के बीच । संत कहे सुण संतवी, मिले तो कीचाकीच ॥
चणा छबीले गंगाजल, जो पूरे कीरतार । ___ काशी कबहुँ न छोड़िये, विश्वनाथ दरबार ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com