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:: शेष विद्या प्रकाश
'सनातन धर्म'
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यम प्रियम् । प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्म सनातनः ॥ ५८ ॥
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अर्थ - सत्य बोलने की प्रादत हमेशा कल्याण के लिए होती है । सत्य भी वही है जिसमें प्रिय, पथ्य और हितकारी वचन बोले जाते हैं । सत्य भाषण होते हुए भी यदि अप्रिय है, अर्थात जिस भाषा के बोलने से दूसरों को दुःख होवे, किसी को मरना पड़े, या दुश्मनों का भी मर्म प्रकाशित होवे तो वह भाषा सत्य नहीं है । 'सहसा रहस्सदारे ' का अर्थ यही है, कि प्रणसमझ में, उतावल में, या ईर्ष्या बैर, क्रोध और स्वार्थ वंश में दुश्मनों के भी पापों को, अपराधों को, या भूलों को जीभ पर लाकर प्रकाशित नहीं करना चाहिये । गृहस्थाश्रमियों को सुखी बनाने का यह सिद्धमंत्र देवार्य भगवान महावीर स्वामी ने तथा प्राचार्यों ने प्रकट किया हैं ।
प्रिय अर्थात मीठी भाषा बोलते हुए भी यदि उसमें सत्यता का नामोनिशान नहीं है, तो यह चापलूसी की भाषा होने के कारण अकल्याणकारी भाषा है, जो बोलने लायक हर्गिज नहीं है । अपनी उन्नति चाहने वालों को यह याद रखना है कि 'स्वयं दूसरों की चापलूसी न करे, और चापलुसी करने वालों का साथीदार न बने, अन्यथा अधःपतन निश्चित है ? बस इसी का नाम सनातन धर्म है अर्थात् मानव धर्म है ।। ५८ ।।
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